Monday, January 26, 2015

NAMO REPUBLIC

नमो गणतंत्र 

(गणतंत्र दिवस विशेष )
कहीं इतिहास के पन्नों पर न खो जाए
की किसी रोज मेरे देश में भी लोग हँसते गाते थे. 
कहीं किसी और को पता न चल जाए 
मेरे देश में ऐसे भी बच्चे  है भूखे पेट
कहीं  शर्म न आ जाए ये देख कर
हुनर के बिना ही रही १८ साल की पढ़ाई . 
आज भी जिन्दा है सपने आजाद और बिस्मिल के  
क्योंकि आप भी तो वाही चाहते हैं. 
कहाँ गया देश का पैसा, विकास के रस्ते पर क्यों है  फाटक , 
जब लोग  आवाज उढ़ायेंगे, क्या तभी  बदलेंगे  बजट  

विकास के आंकड़ों का मोहताज नहीं ये देश 

देश का त्योंहार आ गया. एक बार फिर वक्त आ गया है की हम देश की किस्मत और देश के कर्णधारों की तरफ देखें और इस देश की तरक्की से भी ज्यादा अहम सवाल उड़ाएं. आज हर व्यक्ति को विकास दर और प्रगति के आंकड़े भ्रम में दाल रहे हैं. प्रश्न है की विकास के मायने क्या हैं. वह विकास किस काम का जिसका परिणाम एक तरफ गगनचुम्बी इमारते हैं और दूसरी तरफ भूखे लोग हैं. विकास की परिभाषा अगर सिर्फ औद्योगिक उत्पादन बढ़ाने से है तो ऐसी परिभाषा का तिरस्कार कीजिये क्योंकि आप उस देश से हैं जहाँ पर मानवीय मूल्यों को भौतिक विकास के इन आंकड़ों से ऊपर रखना आज नहीं हजारों वर्हों से सिखाया जाता रहा है. आप उस देश की परम्परों से जुड़े हैं जहाँ पर मानवीय मूल्यों के लिए राम के छोटे भाई भारत ने राजसिंहासन ढुकरा दिया, जहाँ पन्ना धा ने अपने पुत्र को भी देश के लिए अर्पित कर दिया, जहाँ महर्षि दधीचि ने अपने जीवन को भी स्वेच्छा से त्याग दिया. तो फिर इन विकास की गाथाओं और शेयर बाजार की उछाल का क्या मायने. 

किधर जा रहा है हमारा पैसा ? 
पिछले वर्ष ४००० करोड़ रूपये  गरीब लोगों के लिए आवासीय कालोनी बनाने के लिए रखा गया. क्या हुआ उनका? अगर लोक-कल्याणकारी सरकार और लोक-कल्याणकारी संगठन एक साथ काम करें तो क्या यह असंभव है की हम हमारे देश के करोड़ों लोगों को बिना छत के देखें. पिछले वर्ष ७०६० करोड़ रूपये १०० स्मार्ट शहर बनाने के लिए तय किये गए, क्या हुआ उन स्मार्ट शहरों का? पिछले वर्ष यह घोषणा की गयी थी की १०००० करोड़ रुपयों से एक स्टार्ट-अप फण्ड बनाया जाएगा जिससे नए उद्यमियों को मदद दी जायेगी ताकि वे अपना स्वरोजगार शुरू कर सकें. क्या हुआ उसका?  पिछले बजट में एक नए टीवी चैनल कृषि चैनल की घोषणा की गयी थी जिसको गाव गाव दिखा कर किसान भाईओं की मदद की जानी थी. क्या हुआ उसका. पिछले बजट में सरकार ने कहा था की ऍफ़ सी आई का सुधार करेंगे और फसल के रख रखाव के लिए बड़े पैमाने पर गोदाम (वेयरहाउस) बनाये जाएंगे ताकि किसानों को मदद मिले. क्या हुआ? सरकार ने कहा था की एक्सपेंडिचर मैनेजमेंट कमीशन (सरकारी खर्च की जांच करने वाला आयोग) स्थापित किया जायेगे, क्या हुआ? केंद्रीय सकरार एक  इ-गवर्नेंस का पोर्टल इ-बिज शुरू करने वाली थी जिससे सभी व्यक्तियों के सरकारी महकमों के चक्कर ख़त्म हो जाएंगे (ऐसा कहा गया था) और (शायद ऐसा होता तो भ्रस्टाचार भी कम होता). क्या हुआ? बेटी बचाओ आंदोलन, शिक्षक प्रशिक्षण के लिए प्रावधान, गाव गाव के बच्चों को क्लिक (एक ऑनलाइन शिक्षा का चैनल) के जरिये श्रेष्ठ शिक्षा की बात भी सुनी थी. सरकार ने डॉक्टरों की कमी को दूर करने के लिए 16 नए मेडिकल कॉलेज खोलने का आश्वासन दिया था (जिसमे से ४ तो आल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंस ही होने थे). टैक्स की दर कम करने की बात काफी समय से सुन रहा हूँ. पिछले बजट में वित्त मंत्री ने कहा था की टैक्स की सभी व्यवस्थाओं का खत्म कर के एक सरल सा गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स शुरू किया जाएगा और एक उम्मीद बानी थी की टैक्स का सरलीकरण हो जाएगा. स्किल  डेवलपमेंट के लिए बड़ी बड़ी योजनाएं सुनी थी. क्या हुआ. मैं ऐसे लिखता ही चला जाऊँगा तो अच्छा नहीं होगा. प्रश्न है की आप भी अपनी आवाज उठाईए. 

कौन ले जाएगा मेरी चिठियां वित्त मंत्री के नाम 
कुछ दिन पहले सभी आईटी कंपनिया वित्त मंत्री से मिली और बजट में डेटा सेंटर शुरू करने के लिए फायदे देने के लिए अनुरोध किया. आज जिस बहुराष्ट्रीय कम्पनी को देखो वो वित्त मंत्री को ज्ञापन दे रही है. जितनी भी बड़ी कम्पनियाँ है वे अपने हितों के लिए अपने ज्ञापन दे रहे हैं. आम आदमी के हितों के लिए कौनज्ञापन दे रहा है? देश में आज भी ऐसे गाव हैं जहा स्कुल नहीं लगते, स्कुल हैं तो ऐसे जिसमे  भवन जैसा कुछ भी नहीं. व्यावसायिक शिक्षा लेने वाले व्यक्तियों को आगे प्रतियोगी परीक्षा में बैठने से वंचित किया गया है (एक तरफ सरकार कहती है की व्यावसायिक शिक्षा को बढ़ावा दिया जाएगा). अगर किसी भी विकसित देश का इतिहास देखेंगे तो पाएंगे की वहां पर व्यावसायिक शिक्षा को तबज्जु दी गयी है और तभी स्वरोजगार को बढ़ावा मिला है. हमारे देश की सरकार क्या करेगी, और कब करेगी? 

किसी विकसित देश के राष्ट्रपति की सुरक्षा के लिए लगने वाले हजारों कैमरों की बात करने से ज्यादा जरुरी है की हम बात करें की आने वाले बजट में आम भारतीय की भलाई के लिए वित्त मंत्री से खरी खरी बात करने वाला कौन है?  पडोसी देश पाकिस्तान और जापान की तुलना कीजिये. पाकिस्तान ने एक तिहाई बजट हथियारों पर खर्च कर दिया, और जापान ने एक तिहाई बजट बच्चों, उनकी पढ़ाई, उनकी व्यावसायिक और औद्योगिक शिक्षा पर खर्चा किया और पिछले ५० वर्षों का परिणाम आप के सामने हैं. आप बजट को कैसे खर्च करते हैं वह तय करता है की आप देश को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं. हमारे देश में बजट में बाल स्वास्थ्य पर .५%, बाल शिक्षा पर ३%, बाल सुरक्षा पर .०३%, बाल विकास पर .८% प्रावधान होता है. आप इस की तुलना अन्य मदों से करिये. आप अपने भविस्य के लिए क्या कर रहे हैं आप स्वयं समझ जाएंगे. आज भी अनेक बालक कुपोषण, स्वास्थ्य सेवा के अभाव और ऐसे ही अन्य कारणों से .... (आप समझ सकते हैं की मैं क्या लिखना चाहता हूँ).   पिछले बजट में घोषणा के बावजूद भी आज भी अनेक ऐसे विद्यालय हैं जहाँ पर छात्राओं के लिए शौचालय नहीं है. आप किस विकास की बात कर रहे हैं? 

दुनिया में ऐसे कई देश हैं जहाँ सरकारों ने आवश्यकता पड़ने पर देश के हिट में सकल राष्ट्रीय आज से भी ज्यादा ऋण लिया है. हम भी सरकार का स्वागत करेंगे अगर जरुरत पड़ती है तो सरकार जितना चाहे ऋण ले और हर व्यक्ति सरकारी प्रयास में मदद करेगा परन्तु प्रश्न है की सरकार कब मानेगी की छात्राओं के लिए शौचालय पंचवर्षीय योजना नहीं बल्कि एक महीने की योजना से बनना चाहिए, गरीबों के लिए आवासीय योजनाएं कागजी नहीं बल्कि हकीकत में होनी चाहिए, और बाल स्वास्थ्य के लिए अस्पतालों और तकनीक का प्रसारण युद्ध स्तर पर होना चाहिए. सरकारी प्राथमिकताओं की दिशा बदलने के लिए आप को ही आवाज उठानी पड़ेगी क्योंकि अब विपक्ष तो मोन ले कर बैठा है. . 

lets challenge the status quo and create renaissance

बगावत करिये;  "रिनेसाँ" लाइए  

श्री महादेव गोविन्द रानाडे  के १७३ वें  जन्म दिवस पर विशेष 

एक दिया ही बहुत है 
अँधेरा मिटाने के लिए
एक कश्ती ही बहुत है 
सागर पार करने के लिए
एक सहारा ही बहुत है
तूफ़ान से निपटने के लिए 
जरा आवाज तो लगावो दोस्तों
बहुत से बुजदिल है किसी की राह देखते 
थोड़ा साहस तो जुटावो दोस्तों 
बहुत से कदम आपके पीछे होंगे 
फिर न कहना  
"जब वतन जल रहा था. 
मैं तो सिर्फ देख रहा था
चारों तरफ बर्बादी हो रही थी
मैं अपनी धुन में मस्त था 
जो लोग मदद के लिए हाथ मांग रहे थे
मैं उनको विद्रोही मान बैढा था"
इन्तजार कब तक करेंगे 
कहीं सब राख न बन जाए 


रिनेसाँ योरोप के इतिहास के वे वर्ष हैं जब वहां पर संस्कृति का  पुनरुद्धार हुआ. ये शब्द उस  समय की बात बताता है जब बड़े पैमाने पर संस्कृति में सुधार हुए.   भारत के महान सामाजिक क्रांतिकारियों में से एक महाविंद गोविन्द रानाडे का जन्म दिन भी १८ जनवरी है. अतः आज हमें उनको याद करना चाहिए. उन्होंने प्रार्थना समाज की स्थापना की और समाज में फैली कुरूतियों के खिलाफ आवाज उठायी. उस वक्त की जितनी भी सामजिक बुराइयां थी उनको मिटाने के लिए श्री रानाडे ने जी जान लगा कर आवाज उड़ाई. आज उन को याद कर के हमें फिर से बगावत करनी चाहिए - सामाजिक कुरूतियों के खिलाफ. आज फिर से हम सब को मिल कर  वैचारिक चिंतन और मंथन की संस्कृति बनाने के लिए भारत में एक रिनेसाँ लाना है. 


बढ़ता सामाजिक दिखावा और घटता आपसी सौहार्द 
एक शताब्दी पहले श्री रानाडे लोगों से कह रहे थे की शादी और इस प्रकार के आयोजन पर अनावश्यक खर्च न करो. वे सामाजिक कुरूतियों की निंदा कर रहे थे. आज भी वे ही हालत हैं. समाज उनको इज्जत देता है जो बेहिसाब दौलत समारोह और दिखावे पर खर्च करते हैं. कई कई अखबार भी उनपर लेख प्रकाशित कर उनको गौरवान्वित करते हैं. दिखावा एक ऐसी बिमारी है जिससे हमरी संस्कृति ख़त्म हो सकती है. आईये फिर से विद्रोह के झंडे उढाये. दिखावे की संस्कृति की जगह आपसी सौहार्द की संस्कृति की स्थापना करें. 


बढ़ रही है सामाजिक कुरुतियां
हमारा समाज फिर से भेड़ चाल चल रहा है. विदेशी नक़ल और देखादेखी का दौर चल रहा है. हम हर विदेशी सामाजिक बुराई को तुरंत अपना लेते हैं. अपनी खुद की सामाजिक बुराइयों को हटाना तो दूर, नयी नयी सामाजिक बुराइयों को और गले लगा रहे हैं. पुरानी सामाजिक बुराईयाँ अभी ख़त्म नहीं हुई है और नई सामाजिक बुराईंया हम फैला रहे हैं (जैसे की लिव इन रिलेशनशिप - जिसको आज कल कई मीडिया प्रचारित कर रहे हैं. ). इन नयी सामाजिक बुराइयों को रोकने के लिए ताकत की जरुरत नहीं है बल्कि चेतना और समझ  पैदा करने की जरुरत है. 

बढ़ती असहिष्णुता 
आज फिर से समाज में वैचारिक खुलापन, वैचारिक विमर्श और विविधता की संस्कृति की जरुरत आ गयी है. आज फिर से हमें समाज में बढ़ रहे कट्टरवाद को रोकना है. आज फिर से बढ़ती असहिष्णुता को रोकना है. हाल ही में तमिल लेखक पेरुमल मुरुगन को अपने एक उपन्यास का विरोध झेलना पड़ा. उनको अपना उपन्यास वापस लेना पड़ा. उन्होंने दुखी हो कर हमेशा के लिए लेखन छोड़ने की घोषणा कर दी. यह घटना हम शिक्षा से जुड़े लोगों के लिए एक सबक है. हमें यह महसूस करना चाहिए की कही यह एक खतरे की घंटी तो नहीं है. कहीं समाज में वैचारिक खुलापन, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रबुद्धता कम तो नहीं हो रही है.

केक और बुके की संस्कृति 
देश में पश्चिम की देखा देखि केक और बुके की संस्कृति शुरू हो गयी है. चाहे कोई भी मौका हो, केक तो कटेगी ही कटेगी और बुके तो दिए ही जाएंगे. आपसी तोहफे भी कुछ विदेशी देखा देखि से आ गए हैं. जब भी किसी को तोहफा देना है तो कुछ महँगी विदेशी चॉकलेट या विदेशी परफ्यूम देने का रिवाज शुरू हो गया है. एक समय था की लोग तोहफे में बेहतरीन पुस्तकें दिया करते थे. वे सब अब हमारे इतिहास बन गए हैं. अगर हमें अपनी संस्कृति को बचाना है तो इस तरफ भी फिर से सोचना पड़ेगा. 

खुला नशा 
आज कल समारोहों / आयोजनों में नशा-डांस-फूहड़पन का खुला प्रदर्शन हो रहा है. इसके खिलाफ लिखने या बोलने वाला कोई नहीं है. इस संस्कृति से हमारी युवा पीढ़ी बर्बाद हो जायेगी. 

विदेशी भाषा, विदेशी वेश-भूषा का बढ़ता जाल
एक शताब्दी पहले श्री रानाडे पुरे जीवन भारतीय भाषाओँ में साहित्य को बढ़ावा देने का प्रयास करते रहे. आज के समय में सभी लोग विदेशी भाषाओँ पर बल दे रहे हैं. स्थानीय भाषाओं को मुश्किल का सामना करना पड़ रहा है. अधिकाँश कंपनियां अपने कर्मचारियों से विदेशी परिधान में आने के लिए कहती हैं. हमारी भाषा और संस्कृति का भविष्य खतरे में हैं. 

घटते महिला और बाल अधिकार 
महिलाओं की शिक्षा से उनकी स्थिति सुधरी है लेकिन आज उनकी हालात और ज्यादा बुरी हो रही है. एक तरफ वे अपने घर का काम करती हैं, दूसरी तरफ उनके पति नशे की चपेट में रहते हैं. जैसे जैसे महिलाएं नौकरी की तरफ जा रहीं है, वैसे वैसे उनकी जिंदगी नयी चुनौतियों से रूबरू हो रही हैं. महिला सुरक्षा आज का नया मुद्दा बन गया है. बाल श्रम घटने का नाम नहीं ले रहा और बच्चों को शिक्षा का अधिकार सिर्फ कागजों तक सिमित है. 

विदेशी खान पान 
शुद्ध भारतीय खान पान की जगह पर आज विदेशी खान पान हावी हो रहा है. चुनौती है की हम पिज़्ज़ा की संस्कृति से कैसे बचे और अद्भुत भारतीय व्यंजनों को कैसे बचाएं. 
जुआ और अकर्मण्यता की संस्कृति 
आज का युवा बिना परिश्रम के पैसा कमाने के लुभावनों में फंसता जा रहा है. . वह जुए की गिरफ्त में फंसता जा रहा है. कही पर शेयर मार्किट के सट्टे , कहीं पर कोमोडिटी के सट्टे चल रहे हैं तो कहीं लोग क्रिकेट पर सट्टे कर रहे हैं. यह सट्टे की संस्कृत युवाओं को परिश्रम से विमुख कर रही हैं. अकर्मण्यता से कर्म की तरफ कैसे मोड़ें? आईये युवाओं का मार्गदर्शन करें. 

तकनीक का गुलाम आज का इंसान
यह एक अच्छी बात है की हर व्यक्ति के पास आज मोबाइल है. लेकिन वह तकनीक का गुलाम बन गया है. इस गुलामी का परिणाम बहुत बुरा होगा. तकनीक हमारी गुलाम है लेकिन आज का युवा तो उसका गुलाम हो रहा है. इसका परिणाम यह है की युवा वर्ग की सोचने और विमर्श करने की क्षमता कम होती जा रही है. 
बढ़ते शॉर्टकट्स, बढ़ती वन वीक सीरीज 
समाज में लेखन, शिक्षण, चिंतन और ज्ञानार्जन को फिरसे पुनः-स्थापित करने के जरुरत है. श्री रानाडे ने उस जमाने में भी अपनी पत्नी रमाबाई को शिक्षा हासिल करने के लिए प्रेरित किया और सामाजिक विकास की दिशा में आगे बढ़ाया. आज फिर से एक प्रयास की जरुरत है की आप अपने परिवार को तो कमसे कम चेतना और शिक्षा की दिशा में आगे बढाइये. शिक्षा से मेरा मतलब हुनर और परिश्रम पर आधारित शिक्षा और चेतना का प्रयास है न की येन-केन प्रकरेण  डिग्री लेने के हथकंडे . 


lets create heaven


आईये स्वर्ग बनाएं

इस दुनिया में अगर जन्नत है कही तो बस है यहीं है यहीं ...
लोक कल्याण कारी सरकार के लिए अमर्त्य सेन कितना भी कहें सरकारों की अपनी सीमाये होती है.  सरकार चाहे तो भी बहुत कुछ नहीं कर सकती क्योंकि नीति और कानून बनाने वाले लोग अक्सरजमीनी हकीकत से बहुत दूर होते हैंसरकार का मतलब बहुत कुछ सीमा तक नियम कानून औरव्यवस्थाओं से है और उनकी अनुपालना से हैलेकिन हम सब जानते हैं की आज नहीं हमेशा से हीइन सभी प्रक्रियाओं पर नकल करने की प्रवृति हावी रही हैवाही कानून बनाये गए हैं जो विदेशों(ख़ास कर कुछ विकसित देशों मेंमें चल रहे हैंज्यादातर मामलों में हमारे कानून भी उनके कानूनोंकी नक़ल मात्र होते हैं.

जब आप स्वर्ग बनाने की बात करते हैं तो फिर आप को उनलोगों को देखना पड़ेगा जो असलीस्वरज्य का मतलब जानते हैं और उसको अपनाते आये हैंइसके लिए आपको विदेश जाने कीजरुरत नहीं है  ही विदेशी संविधान की नक़ल करने की जरूरत हैइस अद्भुत देश में हजारों वर्षों सेग्राम स्वराज्य और गणतंत्र की अद्भुत परम्परा रही है जो आज भी किसी   किसी गाव - कसबे मेंमिल जायेगीजब हम उस गाव और कसबे (जो स्वराज्य असली अर्थ में अपनाता हैका आदर्शअपना कर हर गाव और हर मोहल्ले के स्तर पर स्वराज्य की शुरुआत करेंगे तो फिर एक ऐसीशुरुआत होगी जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते - यानी एक असली स्वर्ग की शुरुआत.
प्रशाशन और सरकारी तंत्र से परे भी बहुत कुछ होता है और जहाँ जहाँ भी ऐसे प्रयास होते हैं वेवंदनीय है और अनुकरणीय हैं.
स्वर्ग बनाने के लिए आज आपको अपने हाथों में अपनी कमान लेनी पड़ेगीयहाँ पर स्वर्ग बनाने केलिए आप जो भी करना चाहते है - उसके लिए शुरुआत भी आप को करनी है और लोगों को साथ भीआप को लेना हैस्वर्ग बनाने का रस्ता आसान भी नहीं हैकोई भी बड़ा मकसद कभी भी आसाननहीं होता है.

ग्राम स्वराज्य के अनूठे आंदोलन
राजसमन्द जिले के पिपलांत्री गाव के लोगो ने मिले कर अपना स्वयं का ऐसा विधान बनाया है कीहर गाव को इससे सबक लेना चाहिएजब भी किसी घर में किसी बालिका का जन्म होता है तो गाववाले मिल कर २१००० रूपये इकठे कर उस बालिके के पिता के १०००० जोड़ कर कुल ३१००० की एकएफडीआर (बैंक जमा ) करवा देते हैं और उस बालिका के पिता को यह भी लिख कर देना पड़ता है कीवह उस बालिका को पूरी पढाई करवाएगा और उसकी अवयस्क उम्र में शादी नहीं करेगाजब भीकिसी बालिका का जन्म होता है तब गाव वाले लोग मिल कर १११ पेड़ लगाते है और उन पेड़ों कोसींचते हैउस गाव में मृत्यु भोज की जगह पर एक बेहतरीन प्रणाली है - जब भी किसी की मृत्युहोती है - गाव वाले मिल कर ११ पेड़ लगाते हैइन सब परम्पराओं के कारण आज इस गाव काअपना नाम हैइस गाव को कई इनाम और सम्मान मिले हुए हैगाव के लोगों ने मिल कर एक सेबढ़ कर एक श्रेष्ठ परम्पराएँ स्थापित की हैइस प्रकार यह साबित होता है की अगर लोग चाहें तोफिर स्वर्ग बनाया जा सकता हैइस हेतु पहल गावों को ही करनी होगीहमारे देश में गावों में एक सेबढ़ कर एक बेहतरीन परम्पराएँ है और अगर हम सब मिल कर प्रयास करें तो ऐसा संभव है की हमहर गाव में एक स्वर्ग बना सकते हैं.

जहाँ संस्कृत आम भाषा है
कर्णाटक में मत्तूर और होसहल्ली में लोग आम बोलचाल में संस्कृत भाषा का इस्तेमाल करते हैं.यहाँ के लोग वर्षों पुरानी भारतीय संस्कृति को इस प्रकार संजोये हुए है जो वाकई वंदनीय हैइनगावों की इस अद्भुत परम्परा को नमन.

गाव जहाँ के कानून भारतीय कानूनों से भी ज्यादा अच्छे और मजबूत हैं.
हिमाचल प्रदेश के मलाणा  गाव के लोगों ने वर्षों से अपने बनाये हुए कानूनों का पालन किया है औरवे ऐसे कानून बनाते हैं तो हर नागरिक को समझ आते हैं और हर नागरिक दिल से उन कानूनों कापालन करता हैजैसे मलाणा में कोई भी व्यक्ति किसी जंगली जानवर को नहीं मार सकता (शिकारतो दूर की बात है). कोई भी व्यक्ति किसी हरे भरे पेड़ को नाख़ून तक नहीं चुभा सकता है - तोडनातो दूर की बात हैसिर्फ सूखे हुए पेड़ और डालियाँ की तोड़े जा सकते हैंऐसे अनेक उदाहरण है जोयह स्पस्ट करते हैं को जहा पर भी लोग मिल कर अपनी व्यवस्था स्थापित करते हैं - वह ज्यादाबेहतर ढंग से काम करती है.

अद्भुत अनोखे प्रयास
जहाँ जहाँ पर लोगों ने मिल कर नयी संगठनात्मक पहल की है वहां वहां अद्भुत अनोखे परिणामसामने आये हैंलोग चाहें तो वे कुछ भी कर सकते हैंसरकारें अपने बनाये हुए कानूनों के जाल मेंइस तरह जकड़ी रहती हैं की चाह की भी कुछ नहीं कर सकती हैं और  किसी और को कुछ करने देसकती हैंलेकिन लोग अगर चाहे तो चमत्कार कर सकते हैंइस हेतु एक माहौल बनाने की जरुरतहैंयहाँ मैं ऐसे कुछ उदाहरण प्रस्तुत कर रहा हूँ : -

ब्लाइंड पीपल एसोसिएशन
अहमदाबाद की इस अद्भुत संस्था में काम करते हुए अंधे लोग आम लोगों से भी ज्यादा सक्षम बनगए हैं और अपने काम को इतनी सफाई से करते हैं की आप हैरान रह जाएंगेवे फर्नीचर भी बनाते हैंतो सॉफ्टवेयर भी बनाते हैं.

मिराकल कोरियर
मिरेकल कोरियर एक ऐसी कोरियर कम्पनी है जिसमे काम करने वाले लोग बहरे हैंइस कंपनी मेंसिर्फ बहरे लोग ही काम करते हैं और वे इतने शानदार ढंग से काम करते हैं की किसी को कोईपरेशानी नहीं होती है.

सारांश : -
एक सकारात्मक पहल के साथ अगर हम सभी अपने अपने स्तर पर छोटे छोटे संगठनतमक प्रयासशुरू करेंगे तो इसी भारत वर्ष को हम फिर से स्वर्ग बना सकते हैंइस हेतु हमें अद्भुत अनुशासन,कर्तव्य निष्ठांआपसी तालमेलऔर सामाजिक उद्देश्यों को प्राथमिकता देनी होगीहमे  बेहतरीनकार्य करने वाली संस्थाओं से प्रेरणा लेनी होगी और उनके साथ मिल कर प्रयास करने होंगे.


restart the entrepreneurship education



फिर से शुरू करो उद्यमिता की पाठशाला 

३००० वर्ष पहले भारत में हर घर में उद्यमिता की पाठशाला चलती थी और हर व्यक्ति अपने बच्चों को उद्यमी बनना सिखाता था. यही कारण था की भारत सोने की चिड़िया था. विगत ६ दशकों में हमने अपने बच्चों को सिर्फ नौकरी के लिए तैयार किया है. आज ये समय आ गया है की हम अपनी गलती को स्वीकारें और फिर से उद्यमिता को प्राथमिकता देना शुरू करें. हमारी किताबों में यह लिखा गया की मुनाफे के लिए काम नहीं करना चाहिए और निजी क्षेत्र सिर्फ शोषण करता है. हमारी पुस्तकों में यह लिखा गया की सिर्फ सरकारी तंत्र ही विकास कर सकता है. आज ६ दशक के बाद हम फिर से एक मोड़ पर आ गए हैं जब हम को विकास के लिए आम आदमी और खास कर निजी क्षेत्र की भागीदारी की जरुरत महसूस हो रही है. आज हमारी ही सरकार यह मान रही है की विकास के लिए जरुरी है की निजी क्षेत्र की भागीदारी हो. आज सभी यह मान रहे हैं की मुनाफा बुरा नहीं है और अगर निजी क्षेत्र आगे आएगा तो विकास ज्यादा तेजी से होगा. आज हम उस मोड़ पर आगये हैं की हम यह मानने लग गए हैं की हर व्यक्ति को उद्यमिता प्रशिक्षण देना चाहिए. यहाँ तक की नौकरी पर रखे जाने वाले कर्मचारियों में भी उद्यमिता द्रिस्टीकोण होना जरुरी माना जा रहा है. इसी उद्यमिता द्रिस्टीकोण के कारण एम बी ऐ कर  के हमारे विद्यार्थी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नौकर बन रहे हैं और उनको अच्छी पगार मिल रही है. लेकिन जो सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है वह है देश और समाज की सेवा का. वो फिर से नजरअंदाज हो रहा है. उस क्षेत्र का नाम आजकल सामाजिक उद्यमिता के रूप में प्रचलित है. इस क्षेत्र में बहुत प्रयास की जरुरत है. 

सामजिक उदयमिता की ये नयी पाठशालाएं 
आज कई नयी संस्थाएं और संगठन उभर कर आगे आ रहे हैं जो सामाजिक उदयमिता और सामाजिक परिवर्तन के लिए तयारी करवाते हैं. इन संस्थाओं को इनके शानदार कार्य के कारण लोगों को एक नयी पहचान और प्रशिक्षण देने का मौका मिल रहा है. अनकन्वेंसन नामक एक संस्था उन लोगों को फेलोशिप देती है जो सामाजिक परिवर्तन और सामाजिक विकास के लिए कुछ नया और प्रभावशाली करना चाहते हों. कम्युटिनी नामक एक अन्य संस्था भी इसी तरह के प्रयास कर रही हैं. इन संस्थाओं से जुड़ कर लोग सामाजिक बदलाव लाने और सामाजिक चेतना लाने ले लिए अभिनव प्रयास कर रहे हैं. टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस, नरसी मोनजी इंस्टिट्यूट और कई ऐसे संस्थान आज सामाजिक उद्यमिता का पाठ्यक्रम चला रहे हैं. उनके विद्यार्थी समाज में बदलाव लाने के लिए अभिनव प्रयास कर रहे हैं. 


नए ज़माने के सृजनशील विद्यार्थी 
जयपुर के चिन्मय ने जयपुर से इम्फाल तक साइकिल पर यात्रा की और गाव गाव में अमन और सृजनशीलता का सन्देश पहुँचाया. बम्बई की जुइ गंगन ने नरसी मोनजी से सामाजिक उद्यमिता का पाठ्क्रम पूरा करने के बाद सामाजिक उद्यमिता के क्षेत्र में विलग्रो नमक संस्था के साथ जुड़ कर गाव गाव में सामाजिक उद्यमिता को पहुचाने का प्रयास शुरू किया. उन्होंने "फिर से साइकिल चलाओ" का आंदोलन शुरू किया और लोगों को फिर से साइकिल से जोड़ने का प्रशंशनीय प्रयास किया. ये वे युवा हैं जो चाहते तो बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में नौकरी की दौड़ में शामिल हो सकते थे लेकिन इनको सामाजिक उद्यमिता का क्षेत्र बेहतर लगा. आज के युवा फिर से अपनी जड़ों से जुड़ रहे हैं. हमें भी अपने भविष्य के खातिर सामाजिक उद्यमिता को बढ़ावा देना पड़ेगा और सामजिक उद्यमियों को सहारा देना पड़ेगा. 

स्कुल से शुरू हो सामाजिक उद्यमिता की पाठशाला 
श्री ईश्वर भाई पटेल के प्रयासों से स्कूलों में सामाजिक कार्य की कक्षाएं शुरू हुई थी. लेकिन वे इतनी लोकप्रिय नहीं हो पायी. फिर भी उनका बहुत सकारात्मक प्रभाव रहा. उनके साथ ही अब सामाजिक उद्यमिता की सृजनात्मक पढ़ाई भी शुरू होनी चाहिए. इस हेतु प्रयास शुरू होने चाहिए. इन प्रयासों का फायदा मिलेगा जब हम विद्यार्थियों को सामाजिक और सृजनशील काम करते हुए देखेंगे. विद्यार्थियों को सृजनशील कार्यों से जोड़ने में ये प्रयास बहुत प्रभावशाली होंगे. 

Diversity in thoughts and culture must be passed on to the students

विद्यार्थियों को सोम्पिये  विविधता की संस्कृति


हमारा देश विविधता की संस्कृति के लिए जाना जाता है. विविधता की इस भूमि में अलग अलग विचारों वाले लोग एक साथ आपसी सामंजस्य बनाये हुए रह सकते हैं. इस विविधता की भूमि में विद्यार्थी तरह तरह के विचार देखते हैं और विविध संस्कृतियों को देख कर उनमे स्वतंत्र दृष्टिकोण विकसित होता है. यह विविधता की संस्कृति हमारी सबसे बड़ी ताकत है और इस को बचने के हर संभव प्रयास होने चाहिए. सिर्फ अलग अलग धर्म और अलग अलग भाषाओँ को पनाह देने से विविधता की संस्कृति नहीं बढ़ती. यह एक वैचारिक आंदोलन हैं जिसमे हम हर द्रिस्टीकोण को देखने और समझने का प्रयास करते हैं और यह मानते हैं की कोई भी विचार अंतिम नहीं है. वैचारिक स्तर पर विकास एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है और जब भी कोई यह मान लेता है की वो ही सर्वज्ञ है या दूसरे लोग सब गलत है तो फिर मान लीजिये विकास की यह यात्रा ठप्प हो गयी है. 


क्या कट्टरवाद बढ़ रहा है? 
किसी भी प्रकार का कट्टरवाद (चाहे वह धार्मिक कट्टरवाद हो या वैचारिक कट्टरवाद) हमारे देश और हमारी संस्कृति के लिए हानि करक है. यह कट्टरवाद किसी भी रूप में प्रकट हो तो उसको एक बिमारी के रूप में देख कर हमें तुरंत सुधर के लिए प्रयास शुरू करने चाहिए. हमें इस मामले में सबसे ज्यादा चुस्ती दिखने की जरुरत है. 

तमिल लेखक पेरुमल मुरुगन की त्रासदी 
हाल ही में तमिल लेखक पेरुमल मुरुगन को अपने एक उपन्यास का विरोध झेलना पड़ा. उनको अपना उपन्यास वापस लेना पड़ा. उन्होंने दुखी हो कर हमेशा के लिए लेखन छोड़ने की घोषणा कर दी. यह घटना हम शिक्षा से जुड़े लोगों के लिए एक सबक है. हमें यह महसूस करना चाहिए की कही यह एक खतरे की घंटी तो नहीं है. कहीं समाज में वैचारिक खुलापन, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रबुद्धता कम तो नहीं हो रही है. यह हमारी बुजदिली होगी की हम किसी भी लेखक या चिंतक को उसके वैचारिक अभिव्यक्ति के प्रयास को समर्थन नहीं दे पाते हैं या कट्टरपंथी ताकतों से दर कर अपनी आवाज दबा देते हैं. जिस जिस देश में वैचारिक विविधता को रोकने वाली ताकतों को पनाह मिलती है उस उस देश का ह्रास शुरू हो जाता है. 


कैसे करें शुरुआत ?  
हर स्कुल और कॉलेज को एक ऐसा प्रयास करना चाहिए की विद्यार्थी विविधता की संस्कृति और वैचारी स्वतंत्रता का आस्वादन ले सके. उनको विविध भाषा, संस्कृति और वैचारिक पृष्ठभूमि वाले लोगों को अपने विचार रखने और अपनी संस्कृति / विचारधारा के बारे में बताने के लिए आमंत्रित किया जाना चाहिए. इससे विद्यार्थियों को विविधता की संस्कृति से रूबरू होने का मौका मिलेगा और उनमे चेतना का जागरण होगा. 

सांस्कृतिक कार्यक्रमों से शुरुआत करें
जब भी सांस्कृतिक कार्यक्रम हो, तो यह प्रयास करें की अलग अलग राज्यों के लोग अपनी संस्कृति को प्रस्तुत कर सकें जैसे पंजाब के लोग भंगड़ा प्रस्तुत कर अपनी संस्कृति के बारे में बताएं. ये एक शुरुआत होगी. फिर इसी प्रकार से बौद्धिक चेतना के क्षेत्र में विविध विचारधारा के लोगों को परिचर्चा के लिए आमंत्रित किया जाना चाहिए. 

वैचारिक द्वन्द के मेरे यादगार अनुभव 
जब में एम बी ऐ की पढाई कर रहा था तो सौभाग्य से उस समय वैचारिक विविधता और वाद-विवाद को प्रोत्साहन देने की संस्कृति थी.  हमारे प्राचार्य प्रोफेसर रवि टिक्कू नेहरू के समाजवाद से प्रभावित थे और हमारे निदेशक प्रोफेसर मोहन लाल मिश्र निजी क्षेत्र के पक्षधर थे. नीतिगत मामलों में दोनों के विचार अलग अलग होने का हमको बहुत फायदा मिला. क्योंकि ये दोनों लोग विविध विचारधाराओं को सिर्फ अभिव्यक्त ही नहीं करते थे, परन्तु वाद-विवाद और परिचर्चा के लिए एक बेहतरीन माहौल भी बनाते थे. जब भी सेमिनार या परिचर्चा होती थी तब विविध विचारधाराओं का संगम होता था. वाद विवाद को प्रोत्साहित करने की नीति के कारण विद्यार्थियों को भी वैचारिक विविधता के अंदर डुबकी लगाने का मौका मिलता था. 

सारांश : 

मैं हर विद्यालय - महाविद्यालय से अनुरोध करता हूँ की वैचारिक बहस (वाद-विवाद), परिचर्चा, और चिंतन को बढ़ावा देने के लिए प्रयास शुरू करें और एक ऐसा माहौल शुरू करें जिसमे विद्यार्थियों को हर वैचारिक द्रिस्टीकोण को गहराई से समझने का मौका मिले और अपने स्वयं के विचार अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता का आनंद मिले. हर व्यक्ति निडर और निर्भीक हो कर सच्चाई के अपने पक्ष को प्रस्तुत कर सके और सच्चाई को गहराई से समझने की दिशा में आगे बढ़ सके और विरोध करने वालों से भी आपसी सौहार्द के माहोल में चर्चा कर सके. 

give priorities to ITI and other vocational institutions

शिक्षा में सुधार के लिए मेरे कुछ अनुरोध 


बजट आने वाला है और सरकार अपना पिटारा खोलने वाली है. बजट में शिक्षा पर राशि बढ़ाने के लिए सभी लोग जोर दे रहे हैं. कुछ लोग कह रहे हैं की उच्च शिक्षा और शोध पर ज्यादा राशि होनी चाहिए तो कुछ प्राथमिक शिक्षा पर ज्यादा राशि के लिए आवाज उठा रहे हैं. मैं यह महसूस करता हूँ की आज हमारी समस्या यह नहीं है की हम उच्च शिक्षा कैसे प्रदान करें, आज यह समस्या है की पढ़े लिखे लोगों को रोजगार कैसे देवें. अधिकाँश सर्वेक्षण यह दावा करते हैं की पढ़े लिखे अधिकाँश विद्यार्थी ऐसे हैं जिनको रोजगार नहीं दिया जा सकता है, यानी की वे रोजगार देने के लायक ही नहीं है. ऐसा सिर्फ एक या दो नहीं अधिकाँश सर्वेक्षणों का कहना है और वह भी आंकड़ों के आधार पर. यह सभी जानते हैं की उच्च शिक्षा और शोध के श्रेष्ठतम संस्थाओं का फायदा भारत को कम बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को ज्यादा मिलता है (क्योंकि  आईआईटी और इसकी समकक्ष संस्थाओं से पढ़ कर निकलने वाले अधिकाँश विद्यार्थी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए ही तयारी करते हैं और वहीँ पर नौकरी करना चाहते हैं). प्रश्न है की हम सच्चे अर्थ में भारत की भलाई के लिए कब सोचेंगे और कब सच्ची सच्ची बात कहेंगे. प्रश्न है की कब तक हम झूठ और भ्रम जाल के बीच अपने लोगों को बरगलाते रहेंगे. कब तक हम आम भारतीय की पीड़ा को नजरअंदाज करेंगे. मैं आज इस मुद्दे पर आप सबसे खुल कर अपनी बात कहने के लिए अनुरोध करता हूँ क्योंकि इस देश का बजट आप सबका बजट है और जिस प्रकार से बजट में बंटवारा होगा, वाही तय करेगा आप और इस देश का भविष्य. आज इस देश पर किसी विदेशी सरकार का शासन नहीं है, पर सच्चे अर्थ मैं आजादी तो तभी आएगी जब आप हम और हम जैसे सभी आम आदमी सच्चाई को खुल कर कह पाएंगे और अपने देश के विकास की दिशा को बदल पाएंगे. 

भारत जैसे विकासशील देशों में व्यावसायिक, औद्योगिक और हुनर आधारित शिक्षा को बढ़ावा देने की जरुरत है. इससे न केवल बेरोजगारी घटेगी बल्कि विद्यार्थियों का असली विकास शुरू होगा. वाही व्यक्ति आगे तरक्की करता है जो शारीरिक शर्म करता है और श्रम आधारित तकनीक को अपने जीवन में अपनाने का प्रयास करता है. वर्तमान में इस प्रकार की शिक्षा को आखिरी विकल्प के रूप में देखा जा रहा है क्योंकि ऐसा माना जा रहा है की जो भी व्यक्ति पढ़ाई में कमजोर होगा वाही व्यक्ति व्यावसायिक शिक्षा की तरफ बढ़ेगा. व्यावसायिक शिक्षा को बढ़ावा देने में कई अड़चने हैं. आज व्यावसायिक शिक्षा के बाद यूनिवर्सिटी की पढाई, आईएएस की परीक्षा और इसतरह के अन्य प्रतियोगी विकल्पों के लिए रास्ते बंद हो जाते हैं. एक आईटीआई डिप्लोमा व्यक्ति जिसके पास शानदार व्यावसायिक शिक्षा है वह कभी भी भारतीय इंजीनियरिंग सेवा की परीक्षा नहीं दे सकता. ऐसा क्यों है? इस हेतु हमें हमारे देश के नीति निर्माताओं से अनुरोध करना है. 

जिस जिस देश में वाकई तरक्की हो रही है और लोगों को बेहतरीन रोजगार मिलरहे हैं वे वहीँ हैं जहाँ पर व्यावसायिक शिक्षा को प्रोत्साहन है और व्यावसायिक शिक्षा के बाद उच्च शिक्षा में आने के विकल्प खुले हैं. जहाँ जहाँ भी व्यावसायिक शिक्षा के बाद प्राप्त अनुभव को प्राथमिकता दी गयी है वहां वहां पर इसके शानदार परिणाम आये हैं. आप जापान, फिनलैंड और ऐसे अनेक देश देख सकते हैं जहाँ पर व्यावसायिक शिक्षा को वाकई में प्राथमिकता दी जा रही है. 

देश में उधोग धंधों और व्यवसायों में काम करने वाले अधिकांश लोग वे हैं जो आईटीआई और इस तरह के व्यावसायिक प्रशिक्षण संस्थाओं से प्रशिक्षित हुए हैं. इन प्रशिक्षित लोगों को पर्याप्त तबज्जु देने की जरुरत है और गरीब से गरीब व्यक्ति को उस शिक्षा से जोड़ने की जरुरत है जो उसको एक हुनर से जोड़ सके और देश को एक कर्मठ और ईमानदार कारकर्ता दे सके. इस हेतु प्रयास तभी हो पाएंगे जब हम वाकई में व्यावसायिक शिक्षा के लिए आवाज उढायेंगे और देश के शिक्षा सम्बन्धी कानूनों को बदलने के लिए आवाज उढायेंगे. लेकिन आज ऐसा नहीं हैं. आज हम देखते हैं की व्यावसायिक शिक्षा की जगह पर उच्च शिक्षा और शोध के लिए तो बात करने वाले बहुत हैं परन्तु व्यावसायिक और हुनर आधारित शिक्षा की वकालात करने वाले कोई नहीं हैं. काश आप जैसे लोग अपनी चुप्पी तोड़ दें तो हम सब मिलकर आम आदमी की आवाज को एक मजबूती प्रदान कर सकते हैं. कब तक सरकार आम भारतीय को नजरअंदाज कर सकती है? .