Thursday, April 23, 2015

ज्यादा जरुरी है जीवन की तैयारी

 ज्यादा जरुरी है जीवन की तैयारी

हर दिन शोध यही बता रहा है की ८०% से ज्यादा ग्रेजुएट्स नौकरी रखने के लायक नहीं है. न वे विद्यार्थी मुश्किल परिस्थितियों को झेल सकते हैं न ही वे इतने शानदार व्यक्तित्व के मालिक हैं की कंपनी उनको  बुला कर प्रबंधक की कुर्सी पर बिठा दे. आज जरुरत है की शिक्षा-विद शिक्षा के ढांचे और उसकी विषय वस्तु पर फिर से गौर करें. आज जरुरत है की शिक्षा-विद फिर से प्राचीन गुरुकुलों से सीख लेवें और यह तय कर लेवें की उनको विद्यार्थियों को जीवन के संग्राम में विजय दिलाने के लिए तैयार करना है न की सिर्फ डिग्री धारक बाबू. 

डॉ. सुभाष चन्द्र (जी कंपनी के संस्थापक) के एक कार्यक्रम में एक गाव से आये बालक ने कहा की शहर के बालक बिलकुल नाजुक और कमजोर होते हैं आने वाले समय में गावों के बच्चों से ही देश में प्रगति होगी. डॉ. सुभाष चन्द्र ने उस बच्चे को खरी खरी बात कहने के लिए बधाई दी. बात सही है. हम तथा कथित पढ़े लिखे शहरी लोगों ने अपनी आने वाली पीढ़ी को इतना नाजुक बना दिया है की वे लोग कुछ भी नहीं कर सकते हैं (सिवाय फेसबुक और व्हाट्सप्प चलाने के). आज आम शहरी बच्चा न धूप  बर्दास्त कर सकता है, न ठण्ड-गर्म, न रूखी-सुखी खा सकता है न नल का पानी पी सकता है. न वो दौड़ लगा सकता है न वो शारीरिक श्रम कर सकता है, न वो समूह में काम कर सकता है न वो विपत्तियों को झेल सकता है. हमने उनको आराम के नाम पर कमजोरी प्रदान की है. जीवन कोई आराम भरी यात्रा नहीं है. जीवन में कदम कदम पर मुश्किलें आएँगी. जीवन में जो व्यक्ति कठोर परिश्रम और विपरीत परिस्थितियों का सामना करने के लिए तैयार होगा वो ही आगे बढ़ पायेगा. आज दिखने में आ रहा है की महानगरों के बच्चे ऑफिस - वर्क के आलावा कोई काम ही नहीं कर सकते हैं. ऐसे बच्चे किस काम आएंगे? ऐसे बच्चों से देश का विकास नहीं हो सकता है. 

हर विद्यालय - महाविद्यालय विद्यार्थिओं को शैक्षणिक भ्रमण पर महानगरों की तरफ ले जाता है और उनको शानदार होटल में ठहरा कर आनंद-दाई जीवनशैली के दर्शन करता है. असली शिक्षा तो तब होगी जब उन विद्यार्थियों को गाव - गाव भ्रमण करवाया जाए और जीवन की मुश्किलों में कैसे समाधान निकला जाए ये सिखाया जाए. काश हम फिर से जमीन पर लोटा लाएं अपने विद्यार्थियों को और उनको यथार्थ के लिए तैयार करें. 

ज्ञानशाला

शहर को बनाइये ज्ञानशाला 

जहाँ हर मुसाफिर के लिए मुस्कराहट है
जहाँ हर व्यक्ति के लिए आदर है
चाहे या न जाने 
पहचाने या न पहचाने 
स्वागत तो सब का है
तीज त्योंहार, 
होली दिवाली, 
हिवडे उल्लास तो हमेशा है 
गाड़ी घोडा, पैदल असवारी, 
दौड़- धुप तो हमेशा है 
फिर भी एक अलमस्ती है  
हथाई और दुआ सलाम की फुर्सत सबको है
कोई कितना भी ऊँचा हो
या फिर ठेठ फकीरी हो 
मिल जुल कर सब गले लगेंगे 
मिल कर दो मीठे बोल बोलेंगे 
सड़क पर चलते राहगीर  
या दूर देश  का परदेशी 
हंसमुख हो सबसे बात करेंगे 
राम राम तो सब से है, 
एक गाव सा अल्हड
यह शहर ही तो मेरा शहर है 


हर शहर अपने आप में एक ज्ञान-शाला होता है. हर शहर में ऐसे अनेक लोग होते हैं जो शहर में विकास और चिंतन के लिए काम करना चाहते हैं. ये अब शहर की संस्थाओं पर होता है की वे कैसे इन लोगों की सेवाएं ले कर शहर को ज्ञान-शाला में बदले. शहर में अगर चर्चा, चिंतन और संवाद की संस्कृति हो तो फिर शहर का कहना ही क्या. कई बार ऐसा होता है जैसे की कहावत में कहा है "अपनी मुर्गी दाल बराबर". यानी अपने पास उपलब्ध संसाधन की कीमत न समझना. 

१८ साल पहले बीकानेर में श्री रोगेन्द्र कुमार रावल ने बीकानेर में युवाओं के  सांस्कृतिक उठान के लिए गांधी शोध संस्थान की शुरुआत की. उस संस्थान में शहर के विकास के लिए संवाद शृंखला और पुस्तकालय की शुरुआत की. प्रश्न उठा की बजट कहाँ से लाये. जवाब आया की इस शहर में एक से बढ़ कर एक चिंतक मौजूद हैं और शहर के लिए तो वे अपना समय ख़ुशी ख़ुशी निकालेंगे. फिर हर रविवार एक संवाद का दौर शुरू हुआ. हर संवाद में में अपने आप को धन्य पाता था. हर संवाद अपने आप में एक गहन चिंतन होता था. एक साल से ऊपर चले इस दौर में बिना बजट के भी श्री रावल ने एक अद्भुत  प्रयास किया था. शहर के ही अद्भुत लोगों से शहर के युवाओं को रूबरू करवाया था. उनके उस अद्भुत प्रयास से हम सब को सीख लेनी चाहिए. असली संस्थान वाही है जो शहर को ज्ञान-शाला बनाने में अपना योगदान दे सके. शिक्षा, संवाद, और परिचर्चा के द्वारा शहर के कायाकल्प में मदद करे  और अपना दायरा सिर्फ अपने तक सीमित न रख कर अपनी मौजूदगी का शहर को एक अहसास दे. 

भारतीयता के संस्कार चाहिए

विद्यार्थियों को जोड़िये नव वर्ष आयोजन से


आज भारत माँ के लाडलों को भारत माँ के नव वर्ष के बारे में नहीं पता है. यह एक दुर्भाग्य की बात है. हर शिक्षण संस्था को चाहिए की विद्यार्थियों को नव वर्ष के आयोजन से जोड़े. इस प्रकार भारत माँ के लाडलों को भारतीय परम्पराओं, भारतीय तिथियों, भारतीय महीनों और भारतीय संस्कृति की जानकारी होगी. अगर हम यह सब नहीं करते हैं और फिर कल कहते हैं की हमारे विद्यार्थियों को भारतीय संस्कृति की जानकारी नहीं हैं तो उसकी सारी गलती हमारी हैं क्योंकि हमने उनको भारतीयता के संस्कार नहीं दिए हैं. 

भारत में बुजदिल और विदेशी पठुओं की कमी नहीं हैं जो न केवल भारतीय त्योंहार नहीं मनाना चाहते परन्तु दूसरे लोगों को भी ऐसे त्योंहारों पर रोकते हों. ये सभी जानते हैं की पुरे भारत के लिए - हर व्यक्ति के लिए, हर घर के लिए, गाय सबसे पवित्र है और अनेक घरों की अर्थव्यवस्था ही गाय से चलती है, लेकिन आज महाराष्ट्र सरकार के निर्णय (गो-हत्या को बंद करने का निर्णय ) पर अनेक लोग  दबी जुबान विरोध कर रहे हैं. ऐसे ही आज जब पुरे देश को नया वर्ष आयोजित करना चाहिए, तो कई लोग ऐसे होंगे जो इस पर भी आपत्ति करेंगे. 

आईये फिर से भारत को संयोजित और सुदृढ़ करें और इस हेतु पहली शुरुआत हर शिक्षण संस्थान को करनी है और आज से अच्छा दिन क्या हो सकता है. 

भारतीय पहनावे ओर भारतीय खानपान को इज्जत चाहिए.

चलिए टाई विहीन संस्कृति की ओर

(सभी अभिभावकों से करबद्ध अनुरोध) 
कपड़ों से कोई सभ्यता ओर संस्कृति नहीं बनती ओर न ही कपडे हमारे विचारों के प्रतिनिधि होते हैं. लेकिन अगर कपडे किसी संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हों तो फिर उनके चयन में सावधानी होनी चाहिए. आज हर माँ - बाप की ख्वाइश होती है की उनका लाडला एक अच्छी स्कुल में टाई पहन कर जाए. टाई अंग्रेजों के समय से अधिकारी वर्ग के वर्चस्व से जुडी है ओर आज भी हम इस हीं भावना के शिकार हैं. आज भी हम अपने बच्चों को वो बनता देखना चाहते हैं जो हम नहीं बन पाये ओर उनको टाई में देख कर खुश होते हैं. 

इसके दुष्परिणाम वो होते हैं जो हम नहीं सोच प् रहे हैं. टाई की इस अंधी दौड़ में शामिल हमारे बच्चे हमसे ज्यादा इज्जत उनको देते हैं जो टाई पहने हुए नजर आते हैं (विदेशी). यह एक स्वाभाविक परिणाम है - क्योंकि हम ही उनको यह सीखा रहे हैं तथा  टाई को एक बहुत ज्यादा सफल व्यक्ति की निशानी के रूप में हम ही प्रस्तुत कर रहे हैं. बाद में जब ये बच्चे बड़े हो कर साधारण वेश भूषा वाले भारतीय व्यक्ति को इज्जत न देकर विदेशी लोगों (सिर्फ इस लिए की उनके टाई पहनी हुई है) को इज्जत देने की आदत अपना लेते हैं ओर विदेशी संस्कृति ओर सभ्यता को ज्यादा तबज्जु देते हैं तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए. 

हमें यह समझना चाहिए की टाई सिर्फ एक वस्त्र नहीं एक सभ्यता ओर संस्कृति का प्रतिनिधि है ओर हमें किसी भी सूरत में भारतीय सभ्यता ओर संस्कृति को हल्का नहीं आंकना चाहिए ओर जब हम ही अपनी संस्कृति को इज्जत नहीः देंगे तो ओरों से क्या अपेक्षा. आज ही यह संकल्प कर लेवें की अपने लाडलों को उन स्कूलों में भेजेंगे जहाँ पर भारतीय पहनावे ओर भारतीय खानपान को इज्जत के साथ प्रस्तुत किया जाता है ओर जहाँ रह कर हमारे लाडले हमारी अद्भुत भारतीय संस्कृति के रंग में रँगे न की टाई की संस्कृति में . 

शिक्षा और विकास की अवधारणा से जोड़िये विद्यार्थियों को

शिक्षा और विकास की अवधारणा से जोड़िये विद्यार्थियों को 

आज के विद्यालयों और महाविद्यालओं में हमारे देश की नीतियों और कार्यक्रमों पर बहस और चर्चा नहीं होती है. मुझे याद है की जब में जैन कॉलेज में पढता था तब हम जनसँख्या विषय पर और आर्थिक नीतियों पर सेमीनार आयोजित करते थे. एक बार तो उस समय प्रोफेसर विजय शंकर व्यास साहब को भी सुनने का मौका मिला था. यही तो कॉलेज जीवन का  असली मजा होता है. क्या आज कल हमारे महाविद्यालय ऐसा माहोल दे रहे हैं? क्या आजकल हमारे विद्यालयों और महाविद्यालयों में इस प्रकार के कार्यक्रम होते हैं? प्रश्न है की हम प्रजातंत्र का आनंद लेने के लिए विद्यार्थियों को कैसे तैयार करें? प्रजातंत्र एक प्रक्रिया है और इस प्रक्रिया के लिए भी प्रशिक्षण देना पड़ता है. इस प्रक्रिका का प्रशिक्षण शिक्षण संस्थाओं से ही शुरू होना चाहिए. जब विद्यार्थी खुल कर बहस और मंथन करना शुरू कर देंगे तो वो प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के लिए तैयार हो जाएंगे. 
उदाहरण लेते हैं - आज कल नीति आयोग के उपाध्यक्ष श्री अरविन्द पांगरिया यह कह रहे हैं की कृषि से ५०% लोगों को उत्पाद और सेवा क्षेत्र में "शिफ्ट" करना पड़ेगा क्योंकि कृषि में ५९% लोग हैं लेकिन यह क्षेत्र जीडीपी में १४% ही दे पाटा है. इस विषय पर बौद्धिक चिंतन और बहस की भरपूर गुंजायश है. सरकार की नीतियों पर चर्चा करने के लिए विपक्ष तो बचा नहीं है लेकिन बौद्धिक वर्ग तो है. क्या बौद्धिक वर्ग शिक्षण संस्थाओं में यह बहस शुरू नहीं कर सकता की क्या यह उचित है. आप अपने आप को सरकार और आम आदमी की जगह पर रख कर देखिये. 

श्री जगजीत सिंह जी ने कहा था : "अब  मैं  राशन  की  कतारों  में नज़र  आता  हूँ  अपने  खेतों  से  बिछड़ने   की  सजा  पाता  हूँ  इतनी  मंहगाई  के  बाजार  से  कुछ  लाता  हूँ ...." और श्री लाल बहादुर शाश्त्री ने कहा था " जय जवान जय किसान"  लेकिन विदेशों में पढ़े लिखे विद्वान श्री पांघरिया को इनसे क्या. गावों और शहरों दोनों की जिंदगी देखने वाला व्यक्ति ही यह समझ सकता है की गाँव को क्या चाहिए. 

शहरों की ४० करोड़ की जनसंख्या को संभाल नहीं पा रहे हैं और ऐसी योजना बना रहे हैं की गावों से ३० करोड़ और लोगों को शहर बुला लेते हैं - यह नीतियां तो पिछली योजना आयोग की नीतियों की तरह ही है. क्या फर्क है? लेकिन इस चर्चा और बहस में विद्यार्थियों की भागीदारी से ही मजा आएगा. विद्यार्थी बहुत ही सृजनशील और मौलिक होते हैं. लेकिन क्या हमारे शिक्षण संस्थान सिलेबस के पर इन सब मुद्दों पर बहस शुरू कर पाएंगे? 

समृद्ध भाषा अपनाईये और बच्चों को जहर से बचाइये

समृद्ध भाषा अपनाईये और बच्चों को जहर से बचाइये 


छोटी काशी के नाम से मशहूर बीकानेर में भाषा भी बड़ी ही समृद्ध रही है. यहाँ पर लोग अपने से छोटों को भी सा के सम्बोधन से बुलाते हैं. सा और जी बहुत ही आदर सूचक सम्बोधन है. पश्चिमी देशों में आदर सूचक समोधनों का प्रयोग नहीं होता है. अतः वहां आज सभ्यता का उत्कर्ष रुक सा गया है. अमेरिका में रहने वाले मेरे एक मित्र प्रोफेसर श्याम लोढ़ा ने बताया की आजकल अमेरिका में हर व्यक्ति को यह सिखाया जाता है की वह हर कर्मचारी के साथ बड़े ही मिठास से और आदर से बात करे. उन्होंने अपने व्यक्तिगत अनुभवों का जिक्र करते हुए यह बताया की उनको भी बहुत दिक्कत हुई जब उनकी सेक्रेटरी से उनको माफ़ी मांगनी पड़ी. चाहे मार्केटिंग का प्रभाव कहें या नए ज़माने की जरुरत, आज हर कर्मचारी को तभी नियुक्ति मिलती है जब वह सॉफ्ट स्किल में श्रेष्ठ होता है  यानी दूसरे लोगों के साथ शिष्ट्ता से पेश आता है. कुल मिला कर भाषा में सम्मान लाना आज पश्चिम के लिए भी जरुरी हो गया है. 

भारत में हमेशा से एक दूसरे को आदर और सम्मान देने की संस्कृति रही है. यहाँ जिस आदर और सम्मान की संस्कृति को हमने देखा है वो अब अपने आखिरी पड़ाव पर नजर आ रही है. आज के समय में विद्यार्थियों को इस अद्भुत संस्कृति से जोड़ना बहुत जरुरी है. पश्चिमी संस्कृति पर आधारित (ज्यादातर शिक्षण संस्थाएं पश्चिमी संस्कृति को आदर्श मान कर शिक्षण व्यवस्था को संचालित कर रही है). शिक्षण संस्थाओं में पश्चिमी भाषा के साथ साथ पश्चिमी विचारधारा, बोलचाल भी आ रहा है. बच्चे सबसे पहले तो पश्चिमी गालियां सीख रहे हैं. एक बच्चे ने जब "शिट" शब्द इस्तेमाल किया तो मैंने उससे पूछा की इसका क्या मतलब है. वह सकपका गया. ज्यादातर बच्चे पश्चिमी गालियां सीख कर अपनी बोलचाल में अपना रहे हैं. पश्चिमी फ़िल्में भी बहुत लोकप्रिय हो रहीं हैं और उनके साथ पश्चिमी गालियां हमारे घरों में आ रहीं हैं. अतः सभ्यता और संस्कृति को बचने के लिए जरुरी है की हम फिर से आपसी सम्मान पर आधारित हमारी सभ्यता और संस्कृति को फिर से स्थापित करने का प्रयास करें. 

शिक्षण संस्थाओं के लिए जरुरी है की वे अपने शिक्षकों से अनुरोध करें की वे बहुत ही आदर सूचक और समृद्ध और शुद्ध भाषा काम में लेवें और वैसी ही भाषा काम में लेने के लिए विद्यार्थियों को प्रेरित करें. विद्यार्थी अगर सिर्फ अपनी भाषा सुधार लेंगे तो जीवन में सफलता तो पक्की है. 


गरीबी का अर्थशाश्त्र


गरीबी का अर्थशाश्त्र
आपने बहुत सारे अर्थशाश्त्र के बारे में सुना होगा जैसे मौद्रिक अर्थशाश्त्र, उद्योगिक अर्थशाश्त्र आदि. आज में आप को कुछ ऐसे ही विषय के बारे में बताऊंगा  जिसके बारे में आप को जान कर भी कोई नहीं बताएगा. आप सभी को यही बताया जा रहा है की भारत एक गरीब देश था और अब आमिर देश बन रहा है.  सभी इस बात को मान रहे हैं की हमारा देश गरीब है और गरीब रहेगा. हमें भ्रमित करने वाले आंकड़े यह मानने के लिए मजबूर कर देंगे की हाँ भारत गरीब देश था और गरीब रहेगा. 

आजादी से पहले अधिकाँश किसान फसल का अधिकांश हिस्सा घर पर रखते थे और गाव के लोगों में बाँट ते थे.  वस्तुओं का लेनदेन ज्यादा होता था. मंडियों में उपभोग के लिए लाया जाने वाला सामान कम होता था. लोग बाजार में बने सामन की जगह घर में बना सामान प्रयोग में लाते थे.  हर घर में गाय, बकरी या भेंस होती थी जिससे घर का अर्थशाश्त्र चलता था. हर व्यक्ति हुनर जानता था और अपने बच्चों को भी हुनर सिखाता था.  हिंदी और अन्य भाषाओँ में काम करना हर व्यक्ति को आता था. शिक्षा के लिए मार्जा, पोशाला, ज्ञानशाला और अन्य भारतीय परम्परागत संस्थाए थी और शिक्षा में गणित, भारतीय विज्ञानं, आपसी सम्मान की संस्कृति सिखाई जाती थी . 

हम जिस भारत को गरीब कहते थे, उस गरीब भारत में आज हर व्यक्ति नौकरी का मोहताज है, उसके पास अपना कोई हुनर नहीं है और वह हर चीज बाजार से खरीदता है. उसके बच्चे अपना अधिकाँश समय    विदेशी भाषा  और संस्कृति    सीखने  में लगाते  हैं. विकास के आंकड़ों में इजाफा हुआ है क्योंकि जो उत्पाद पहले मंडी में आती ही नहीं  थी वो भी अब मंडी में आ रही है. चूँकि हर वास्तु बाजार से खरीदी जा रही है अतः जीडीपी तो बढ़नी ही है (पहले अधिकाँश सामान घर पर बनता था अतः वह सामान बाजार की बिक्री में नहीं आता था और जीडीपी की गणना में नहीं आता था). 

विकसित देशों की नजर में भारत आज एक इमर्जिंग इकॉनमी है .इस का मतलब क्या है. इसका मतलब है वो देश जहाँ पर उपभोग तेजी से बढ़ रहा हो. आज भारत का आम आदमी विदेशी वस्तुओं का उपभोग कर रहा है. वो हर रोज विदेशी ब्रांड की वस्तुओं को खरीद रहा है. इस का परिणाम यह है की आज भारत एक इमर्जिंग इकॉनमी बन गया है. 

विकास की बात करें तो हर तरफ आज विकास के चर्चे हैं. हम ये मान रहे हैं की शिक्षा में बेहत्तरिन प्रगति हुई है. अधिकांश उच्च शिक्षा संस्थान पूरी तरह से विदेशी पाठ्यक्रमों पर आधारित और पूरी तरह से विदेशी पुस्तकों से ही पढाई करवाते हैं. भारतीय भाषाओँ में कोई भी ज्ञान का सृजन बंद हो गया है सिर्फ विदेशी पुस्तकों का भारतीय भाषाओँ में अनुवाद हो रहा है. हर भारतीय को विदेश में पढ़ने के लिए प्रेरित किया जा रहा है. देश के श्रेस्ठं संस्थान जैसे आईआईएम में प्रोफ़ेसर विदेशी केस स्टडी से ही पढाई करवाता है. मुझ जैसे बिरले ही प्रोफ़ेसर हैं जो भारतीय अद्भुत परम्पराओं पर केस स्टडी लिखने का प्रयास करते है (जिनको कोई भी भारतीय संस्थान लागू नहीं करेंगे). विकास की इस तथाकथित आंधी में हमें लगता है की विकास तभी हो पायेगा जब विदेशी संस्थओां और विदेशी कंपनियों को आमंत्रित किया जाएगा. इस देश में व्यापर करने वाले छोटे छोटे व्यापारी के लिए व्यापर करने मुश्किल बना दिया जाता है लेकिन विदेशी कम्पनी के लिए सिंगल विंडो क्लियरेंस है और इसकी तारीफ विदेशी कंपनियां और पत्रकार कर रहे हैं की यह ही तो विकास है 

गरीबी का भोम्पू बजा कर हम हर साल विदेशी बैंकों से ऋण पर ऋण लिए जा रहे हैं और यह कह रहे हैं की देखो ब्याज की दर बहुत कम है, हर भारतीय विदेशों के आगे झोली फ़ैलाने के लिए तैयार रहता है और विदेशी चंदा पाने के लिए हम कुछ भी कर सकते हैं. गरीब भारतीय पर टैक्स के 100 रूपये     वसूल    करने के लिए हम 120 खर्च   कर देते  हैं. पुलिस ढेले वाले को डंडा मार सकती है लेकिन इस देश पर बिना जरुरत का सामान बेचने वाले विदेशी कंपनियों को स्वागत करने वालों को सम्मान दिया जा रहा है. गरीबी के इस अर्थशास्त्र में काम खा कर खुश रहने वाले भारतीय को ज्यादा से ज्यादा उपभोग के लिए प्रेरित किया जा रहा है. गरीबी का एक ऐसा अस्त्र है हमारे पास की हम किसी भी विदेशी कंपनी के आशीर्वाद के मोहताज बन बाये हैं. अद्भुत भारतीय ज्ञान आज विदेशी कंपनियों के काम आ रहा है और हम विदेशी कंपनियों के गुणगान वाले शाश्त्र अपने बच्चों को पढ़ा रहे हैं. 

ऊर्जा और जोश



जीवन के संग्राम के लिए असली विटामिन:  ऊर्जा और जोश 

जीवन में अगर हम उत्साह, जोश, और ऊर्जा से भरे रहेंगे तो जीवन हमारा है और हमको हर कार्य में सफलता मिलेगी, परन्तु यदि हम हताशा, निराशा, व् हार की मानसिकता से जिएंगे तो ये जीवन भी हमें ठुकरा देगा. आज के दिन हमें हर सांस के साथ अपने अंदर उत्साह और जोश भरने की सीख लेनी है. २२ फरवरी का दिन पूरी दुनिया में बड़ेन पावेल के जन्म दिन के रूप में मनाया जाता है. पूरी दुनिया में स्काउट्स -गाइड्स मूवमेंट के द्वारा उत्साह और जोश से जन सेवा का पैगाम फैलाने वाले पावेल ने देखा की मिलिट्री ट्रेनिंग से लोग जोश और उत्साह से भर जाते हैं और जीवन को एक नए नजरिये से देखते हैं. उन्ही के इस नए नजरिये के लिए ही कई लोग आज के दिन को थिंकिंग डे के रूप में भी मानते हैं यानी अगर हम सभी ज़माने के प्रति अपने नजरिये को बदल लें तो दुनिया का नक्शा बदल सकता है. आज के युवाओं को पावेल के सन्देश की फिर से जरुरत है.
देश सेवा और परिश्रम को जोड़िये युवा शिविरों के द्वारा  
स्काउट्स आंदोलन की तरह ही भारत में नेशनल युथ प्रोजेक्ट है, जिसका सञ्चालन श्री सुब्बा राव करते हैं. श्री राव आज ८५ वर्ष से जयादा की उम्र के हैं लेकिन आज भी वे इतने उत्साहित और जोशीले रहते हैं की वाकई नौजवानों के लिए एक नसीहत है. जब मैं उनसे पिछले और उससे पिछले वर्ष मिला था तो मैं हैरान था ये देख कर कर की वे आज भी कितना शारीरक श्रम करते हैं. उनकी जगह हम हमारे नौजवानों को देखें तो लगता है की हमने इनको  इतना नाजुक बना दिया है की वे लोग कुछ भी नहीं कर सकते हैं (सिवाय फेसबुक और व्हाट्सप्प चलाने के). आज आम शहरी बच्चा न धूप  बर्दास्त कर सकता है, न ठण्ड-गर्म, न रूखी-सुखी खा सकता है न नल का पानी पी सकता है. न वो दौड़ लगा सकता है न वो शारीरिक श्रम कर सकता है, न वो समूह में काम कर सकता है न वो विपत्तियों को झेल सकता है. हमने उनको आराम के नाम पर कमजोरी प्रदान की है. जीवन कोई आराम भरी यात्रा नहीं है. जीवन में कदम कदम पर मुश्किलें आएँगी. जीवन में जो व्यक्ति कठोर परिश्रम और विपरीत परिस्थितियों का सामना करने के लिए तैयार होगा वो ही आगे बढ़ पायेगा. 

आज दिखने में आ रहा है की महानगरों के बच्चे ऑफिस - वर्क के आलावा कोई काम ही नहीं कर सकते हैं. ऐसे बच्चे किस काम आएंगे? ऐसे बच्चों से देश का विकास नहीं हो सकता है. आज फिर से पावेल और सुब्बा राव के रास्ते पर चल कर युवाओं को उत्साह और जोश से भरने की जरुरत है ताकि वे जिंदगी की इस अद्भुत सौगात का पूरा आनंद लेवें और जीवन के हर इन्तिहाँ में सफल हों. मैं हर  विद्यालय - महाविद्यालय से अनुरोध करना चाहता हूँ की विद्यार्थियों को नेशनल युथ प्रोजेक्ट तथा स्काउट्स और गाइड्स मूवमेंट जैसे अवसरों से जोड़ें ताकि विद्यार्थियों का उत्साह और जोश बरकरार रहे और वे समाज को सुधरने और संवारने में अपनी सृजनशील दक्षता का इस्तेमाल करें.  आईआईएम अहमदाबाद के प्रोफेसर अनिल गुप्ता की तरह विद्यार्थियों को  गाव - गाव भ्रमण करवाने और आम लोगों से संवाद करवाने की जरुरत है ताकि वे जीवन की मुश्किलों का समाधान निकालने में दक्ष हो जाएँ और असली भारत (असली भारत अभी भी गावों और छोटे शहरों में बस्ता है) से रूबरू हों. . उत्साह और उमंग हमें फिर से एक नया जीवन देगी ताकि हम अपनी और आने वाली पीढ़ी को एक सकारात्मक कार्य में लगा सकें. 
श्री सेनगुप्ता और श्री अब्दुल कलाम आजाद को नमन 
आज के ही दिन (२२ फरवरी १८८५) को जन्मे श्री यतीन्द्र मोहन सेनगुप्ता को भी याद करना जरुरी है. वे भी जबरदस्त उत्साह और जोश के प्रतिक थे. भारत के बर्मा से विभाजन के विरोध में आवाज उठाने वाले कुछ-एक स्वाधीनता संग्रामियों में से एक श्री सेनगुप्ता ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को एक नयी दिशा देने का प्रयास किया. आज ही श्री अब्दुल कलाम आजाद की पुण्य तिथि भी है. श्री आजाद ने जिस समय और जिस तरह से भारत में कोमी एकता के लिए काम किया, वो सिर्फ एक दिए और तूफ़ान की लड़ाई के सामान है. 

ख़ुशी और बाल-उत्साह का एक अद्भुत त्योंहार



होली  और बसंत ऋतू का स्वागत 


भारतीय संस्कृति में रची बसी अद्भुत गाथाओं में से एक गाथा है प्रह्लाद की. जिस प्रह्लाद की भक्ति के आगे स्वयं ईश्वर  को नरसिम्हा के रूप में अवतार लेना पड़ा और जिस अद्भुत बालक की चेतना के आगे अग्नि को नतमस्तक होना पड़ा. प्रह्लाद एक बालक के रूप में अद्भुत प्रतिभा और अटूट आस्था का प्रतिक है. इस कहानी ने हमें बहुत बड़ी सीख दी है. 
ख़ुशी और बाल-उत्साह का एक अद्भुत त्योंहार 

होली एक ऐसा त्योंहार है जो पुरे भारत में जोश और उत्साह भर देता है. यह एक ऐसा त्योंहार है जब हर व्यक्ति अपने अंदर अपना खोया हुआ बचपन जग लेता है और पुरे उत्साह से सबके साथ रंगों से खेलता है. 

जीवन के प्रति हमारा द्रिस्टीकोण और जीवन जीने का तरीका बहुत महत्वपूर्ण है. करोड़ों कम कर भी लोग भिकारी सा जीवन बिता रहे हैं, और फकीरी में भी लोग आनंद और उत्साह का जीवन जी रहे हैं. ऐसे भी लोग हैं जो विपरीत परिस्थितियों में भी हँसते रहते हैं और ऐसे भी लोग हैं जो सब कुछ होते हुए भी चिंता के भार में दबे जा रहे हैं. आज शारीरिक बीमार लोगों से ज्यादा मानसिक रूप से बीमार लोगों की है. मनो-चिकित्सकों के पास समय ही नहीं है. हर दूसरा व्यक्ति अपने अंदर एक नए जीवन की चाह में मनोवैज्ञानिकों के चक्कर लगा रहा है. आज की बेस्ट-सेलर किताबें वाही हैं जो मनोविज्ञान पर आधारित हैं और उनके नाम भी कुछ ऐसे ही हैं जैसे "सफलता कैसे" "आनंद से कैसे जियें"  "जीवन में उत्साह कैसे भरें". इन सभी किताबों को पढ़ कर भी आप को जीवन में आनद लाने का रास्ता नहीं मिलेगा. मनोविज्ञान के पास भी कोई उपाय नहीं है. आज का मनोविज्ञान यह कहता है की हर व्यक्ति को जीवन के हर पल का आनंद उठाना चाहिए और इस हेतु उसको अपने अंदर बचपन, जवानी और परिपक्वता तीनों एक साथ रखनी चाहिए. परन्तु ये तीनों एक साथ कैसे आएं? मनोविज्ञानिक कहते हैं की उम्र  के साथ कई बार हम अपने बचपन के जोश, उत्साह, उमंग और उल्लास को गवां देते हैं. भारतीय संस्कृति एक ऐसी संस्कृति है जिसमे हर समस्या का समाधान भी है. होली जैसा एक ऐसा त्योंहार है जिसमे लोग एक बार के लिए अपनी उम्र भूल कर खुल कर अपना बचपन फिर से जी सकते हैं और उलास से फिर से मिटटी और पानी से खेल सकते हैं. यह वह त्योंहार है जो हमें हमारे अंदर छुपे हास्य कलाकार, व्यग्ंय कलाकार, बाल कलाकार और हमारे मौलिक स्वरुप को आगे लाने का मौका देता है. होली की रम्मत में आप अच्छे अच्छे फ़िल्मी  कलाकारों को मात देने वाली वेशभूषा, अभिव्यक्ति और अदाकारी देख सकते हैं. होली के गीतों को झूम के गाते हमारे युवा घंटों तक एक साथ नाचते रहते हैं और एक अनोखे आनंद का लुत्फ़ उठाते हैं. सही तो यही है की इस जिंदगी का बेहतरीन आनंद उठाना ही हमारी संस्कृति की हर परंपरा में छुपा है.


शीट ऋतू की जगह पर बसंत ऋतू का आगमन हो रहा है और होली जैसे रंगों के त्योंहार से हम उसका स्वागत करते हैं. बसंत ऋतू का अपना ही अलग आनंद है. जीवन में हम सब लोग आनंद और उल्लास से जियें इस हेतु आनंद के त्योंहार से ही इस ऋतू का स्वागत होना चाहिए. रेगिस्तान में पहले पानी की कमी के कारण लोग सर्दियों में स्नान नहीं किया करते थे. होली के अवसर पर वे मिटटी से खेलते थे और फिर स्नान करते थे. ये एक ऐसी परम्परा थी जिसका कोई मुकाबला नहीं है. मिटटी शरीर को स्पर्श कर उसमे ऊर्जा भर देती है और फिर स्नान करने से एक नयी ताजगी आ जाती है. आज मिटटी का लेप सिर्फ प्राकृतिक चिकित्सा का भाग रह गया है. लेकिन मिटटी के लेप और फिर स्नान की इस परंपरा का अद्भुत महत्त्व वैज्ञानिकता की कसौटी पर भी खरा है. 

आईये कामना करें की हर दिन उत्साह और आनंद से सराबोर रहें और हर बालक प्रह्लाद सा बन जाए. आईये कामना करें की अद्भुत भारतीय परम्पराओं को उनकी जड़ों के साथ संजो कर रखें और हमारे भविस्य में हमारी अगली पीढ़ी को इस अद्भुत ज्ञान का खजाना मिल सके. आईये होली के त्योंहार पर हम सभी अपने अंदर भर गए  अहम भाव, तमो प्रविृत और घमंड  को निकाल बाहर करें और अपने अंदर उत्साह, उमंग, बच्चों के जैसा जोश भर लेवें और मिटटी और पानी से नजदीकी फिर से बढ़ाएं. इस रंगों के त्योंहार से सबक ले कर अपने जीवन में ख़ुशी और आनंद के रंग भर लेवें. 

लुप्त होता परंपरागत ज्ञान

लुप्त होता परंपरागत ज्ञान

भारत ज्ञान और तकनीक का अनोखा भण्डार है जहाँ पर हर घर और हर परिवार किसी  किसी परंपरागत ज्ञान की वर्षों से जमा पूंजी का मालिक हैहिमाचल प्रदेश में वहां के बाशिंदे ७५०० तरह की जड़ी-बूटियों और पेड़ों का उपयोगजानते हैं (शायद थे क्योंकि अब ये ज्ञान लुप्त हो रहा है). लुप्त होते भारत को समझना है तो शहरों को छोड़ियेगावोंमें जाइएआपको आज भी प्राचीन भारतीय परम्पराओं के अवशेष मिल जाएंगेमहिलायें पीपल के पेड़ को परिक्रमालगा कर पानी देती हुई मिल जायेगीयह एक परम्परा है और इस परंपरा का वैज्ञानिक आधार आज समझ  रहाहैकिस प्रकार से भारत में तुलसीपीपलबेलऔर इस प्रकार के अन्य पेड़ों को बचाया गया और उनको सुरक्षितरखने के लिए कितनी समृद्ध परम्पराएँ विकसित की गयीएक पेड़ अपने जीवन काल में लगभग ६० लाख Rs. काफायदा पहुंचता हैऔर आज के महानगरों में पेड़ों को काट कर सड़कें और भवन बनाये जा रहे हैबहुत काम लोगपेड़ों को उतनी अहमियत देते हैं जितनी की भारत की परम्पराएँ देती हैंजब आईआईएम अहमदाबाद का निर्माण होरहा था तो फ़्रांस के आर्किटेक्ट लुइ कान के कहे अनुसार भवन का निर्माण हो रहा था और एक पेड़ को काटा जाना था.श्री विकर्म साराभाई को जब इसका पता चला तो उन्होंने बिल्डिंग का नक्शा बदल दिया पर पेड़ नहीं काटने दिया.पेड़ों के प्रति ऐसी श्रद्धा सिर्फ भारतीय परम्पराओं से ही  सकती है.
मैं ऐसे अनेक बुजुर्ग लोगों से मिल चूका हूँ जो पूरी जिंदगी में कभी भी बीमार नहीं पड़े और कभी भी उनको अंग्रेजीदवाई नहीं लेनी पड़ीमौसम के बदलते ही वे लोग अपने खान पान में आवश्यक संशोधन कर लेते थे और ये संशोधनपरम्पराओं के रूप में उनके जीवन में जुड़े थेजब अमेरिका में भारत के ज्ञान पर आधारित १३१ योग पेटेंट हो चुकेथेनीम और हल्दी के पेटेंट की बात चल रही थी तो भारत सरकार की नींद खोलने के लिए WIPO ने भारत सकरारसे अनुरोध किया और फिर मजबूर हो कर भारत सरकार ने २००१ में भारत्तीय परम्परागत ज्ञान के रजिस्ट्रेशन काकाम शुरू कियाआज तक ८०००० से ज्यादा आयुर्वेदी नुस्खों  का रजिस्ट्रेशन कर के उनका  विदेशी भाषाओं मेंअनुवाद किया गया हैभारत के अद्भुत परम्परागत ज्ञान के आधार पर अब तक . करोड़ पेजों की जानकारीभारत के परम्परागत ज्ञान के कार्यालय में जमा की जा चुकी है और ये भारतीय ज्ञान का सिर्फ एक अंश मात्र है.१५०० से ज्यादा योग और आसनों का ज्ञान भी रजिस्टर किया गया है.
हर परम्परा का वैज्ञानिक आधार
दरअसल भारत में विज्ञान को आम जीवन में उतारने के लिए उसको परम्पराओं में ढाला  गया था और इसी कारणविज्ञान यहाँ आम जीवन में इतना घुल- मिल गया है की विज्ञान को जीवन से अलग कर के देखने का प्रयास नहींकिया गया. . हमारे जीवन में काम आने वाली हर वस्तु को किसी  किसी परम्परारा से जोड़ दिया गयासमय कीआंधियों के बीच परम्पराएँ तो जिन्दा रह गयी पर उनके पीछे का वैज्ञानिक विमर्श लुप्त हो गयाआज हमें यहसमझ  रहा है की सर पर तिलक लगाने और चोटी रखने के एकुप्रेस्सर और अन्य वैज्ञानिक फायदे हैंआज हमको समझ  रहा है की सूर्यास्त से पहले भोजन करने से क्या वैज्ञानिक फायदे हैंलेकिन आज हमने अपनी अनेकपरम्पराओं को गवा दिया है जो की शायद किसी  किसी वैज्ञानिक आधार पर स्थापित की गयी थी.

कृषि की जो समृद्ध परम्परा भारत के किसान जानते थे वो आज भारत में लुप्त हो गयी है लेकिन वही व्यवस्थाविदेशों में आर्गेनिक कृषि के नाम से शुरू हो रही है और अब विदेशों से भारत में आएगी.
देश को तोड़ने का इतिहास और लूट मचाते विदेशी
अंग्रेजों ने भारत में  कर सबसे पहले ऐसे इतिहास विशेषज्ञ तैयार किये जो भारत के लोगों को आपस में लड़ाने केलिए इतिहास लिखने लगे और यह व्यवस्था आज भी जारी हैजातियों को आपस में लड़ाने के लिए ही इतिहासलिखा गयाआज हम आपसी लड़ाई के चक्कर में अपना अद्भुत ज्ञान और परम्पराएँ छोड़ चुके हैंआज हमारे देशके अद्भुत ज्ञान को ले जा कर विदेशी कम्पनियाँ पेटेंट करवा रही है.
भारतीय वैज्ञानिक (लोहार,सोनार आदि)  के लिए बजट में कोई सहायता  नहीं
भारत में लोहारसोनारमोचीआदि अनेक समूह हैं जिनको  आज ‘ दलित’  के रूप में सम्बोधित किया जाता हैयेवो लोग हैं जिनके पास अद्भुत वैज्ञानिक ज्ञान और हुनर था जो अब  धीरे धीरे लुप्त हो रहा है.  यह अफ़सोस की बातहै की भारत सरकार मेटलर्जी शोध के लिए करोड़ों का आबंटन दे सकती है लेकिन भारत के मेटल एक्सपर्ट्स (सोनार,लोहार आदिको कोई सहायता या संरक्षण नहीं प्रदान कर सकतीनतीजा होगा की उनकी सदियों की समृद्धपरम्परा लुप्त हो जायेगी और इस अद्भुत ज्ञान और कला के बारे में हमारी अगली पीढ़ी सिर्फ किताबों में पढ़ेंगी.भारत के अद्भुत कारीगरों और दक्ष वैज्ञानिकों को ‘दलित’ व्  'पिछड़े'  की उपाधि दी गयी और उनको उनकी समृधि  (तकनीकी ज्ञानके लिए नहीं बल्कि उनकी आर्थिक गरीबी के लिए सम्मानित किया गयाउनको कभी भीउनके तकनीकी ज्ञान के लिए प्रोत्साहन नहीं दिया गयाउनको यह लालच दिया गया की वे सरकारी अधिकारी बनजाएंगेअद्भुत ज्ञान धीरे धीरे खत्म हो गयायह प्रक्रिया आज भी जारी हैहर सरकार आई और गयीपर नीतियांनहीं बदलीकोई भी उनको कारीगरया कलाकार या  वैज्ञानिक नहीं मानना चाहताआज भी कोई उनके विज्ञानं कोनहीं स्वीकार कर रहाभारत का लोहार आज से हजारों साल पहले भी बिना जंग का लोहा तैयार कर सकता था,लेकिन उसको कोई प्रोत्साहन नहीं मिला.   जो लोग भारत को विभाजित और विखंडित कर रहे थेवे ही भारत केअद्भुत ज्ञान को बटोर के ले जा रहे थेपछले  दशकों में भारत का अद्भुत ज्ञान हर क्षेत्र में भारत से लुप्त हो रहा हैऔर भारत के नेतृत्व को इसका पता भी नहीं चल रहा है.

थार के अद्भुत कुटीर उद्योगों को जरुरत एक सहारे की

थार के अद्भुत  कुटीर उद्योगों को जरुरत एक सहारे की 

थर के मरुस्थल में सिर्फ मिटटी ही नहीं सृजनशीलता भी बहुत है. उस अद्भुत सृजनशीलता को एक सहारे की जरुरत है. अफ़सोस है की कोई सहारा देने वाला नहीं है. अगर सही सहारा मिले तो ये अद्भुत कुटीर उद्योग न केवल लोगों के लिए रोजगार के साथन बन जाएंगे बल्कि देश के लिए विदेशी मुद्रा कमाने के स्रोत भी बन जाएंगे. थर की मज़बूरी यही है की इस अद्भुत क्षेत्र को संवारने  वाले जोहरी यहाँ नहीं हैं. 

पूरी दुनिया आज बौद्धिक सम्पदा के सहारे चल रही है. दुनिया की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली कंपनियों में से एक एप्पल नामक कम्पनी कोई उत्पादन नहीं करती है. उसके पास इतनी बौद्धिक सम्पदा है की वो उस समपा के सहारे कमाई करती जाती है. यही हाल  अन्य बड़ी कंपनियों का है. जिस जिस प्रदेश के पास बौद्धिक सम्पदा हैं वे निहाल हो गए हैं जैसे की शेम्पेन, स्कॉच व्हिस्की आदि के कारण उन स्थानों की चांदी हो गयी है जहाँ पर ये वस्तुएं बनती हैं. ज्योग्राफिकल इंडिकेशन नामके रजिस्ट्रेशन करवाने के बाद एक वस्तु वहीँ बन सकती है जहाँ के लिए रजिस्टर्ड है और फिर उसकी कीमत दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती जाती है. बीकानेर से अभी तक सिर्फ एक ही उत्पाद रजिस्टर्ड है - भुजिया - जबकि इस प्रदेश में अनेक ऐसे कुटीर उद्योग हैं जो इस प्रकार से रजिस्टर करवाये जा सकते हैं और अगर ऐसा होगा तो फिर रेगिस्तान के कुटीर उद्योगों का कायाकल्प हो जाएगा. प्रश्न है इस हेतु शुरुआत कब और कैसे हो. यह सारी दुनिया जानती है की बीकानेर की लोक कला, लोक संगीत, चित्रकारी, खाद्य और वस्त्रों से सम्बंधित कुटीर उद्योग आदि वाकई अद्भुत हैं. लेकिन उनको रजिस्ट्रेशन करवाने हेतु कोई प्रयास नहीं कर रहा है और इसी कारण बीकानेर के कलाकारों को वो आय और वो सम्मान नहीं मिल पा रहा जिसके वे हकदार हैं. हम सभी  जानते हैं की सरकारी विभाग और राजनेता अपने ढर्रे से काम करते हैं और उनसे सहारे की अपेक्षा करना ज्यादती होगा. लेकिन बीकानेर के स्वयं सेवी संगठन और समाज सेवी लोग काफी सक्रीय हैं और उम्मीद की जानी चाहिए की वे कुछ पहल करेंगे. डर तो यही लगता है की कहीं तब तक ज्यादा देर न हो जाए. 

सांगानेरी प्रिंट का उदहारण प्रासंगिक है. जब २००३ में सांगानेरी प्रिंट उद्योग बंद होने के कगार पे था तब श्री विक्रम जोशी और कुछ साथियों ने मिल कर इस अद्भुत कला को बचाने के लिए प्रयास किया. उन्होंने ६० पेज का प्रतिवेदन तैयार कर के सरकार को सौंपा और उनको २/१२/२००८ को ज्योग्राफिकल इंडिकेशन मिल गया. आज पूरी दुनिया में सांगानेरी प्रिंट की मांग हो रही है और विक्रम जोशी और उनके साथियों को फुर्सत ही नहीं मिल पा रही है. पूरी दुनिया आज उनको सलाम कर रही है. ये तो सिर्फ शुरुआत है, आप कल्पना करिये आने वाले वर्षों में उनको अपने इन प्रयासों का कितना फायदा मिलेगा. श्री विक्रम जोशी का सभी ने सहयोग किया और वो एक अद्भुत काम करने में कामयाब रहे और हजारों लोगों को कलापूर्ण रोजगार और नाम दिलवाने में समर्थ हुए (श्री विक्रम जोशी को बीकानेर में स्थित आर्काइव्स से भी सहयोग मिला था, लेकिन बीकानेर में से कोई भी विक्रम जोशी जैसा  व्यक्ति निकल के नहीं आया है). 


प्रतापगढ़ (राजस्थान) में ६ परिवार थावा कला नामक अद्भुत कला में दक्ष हैं. ये लोग सोने के गहने बनाते हैं जिनमे कांच पर सोने की कलाकारी की जाती है. सही मार्गदर्शन और सहारा मिलने से आज यह कला एक रजिस्टर्ड ज्योग्राफिकल इंडिकेशन है और इस रजिस्ट्रेशन के कारण इसकी पूरी दुनिया में मांग है. इसकी कीमत भी बहुत बढ़ गयी है. कहने का मतलब है की इस कला को इसका वजूद मिल गया. थर में थावा जैसी अनेक कलाएं हैं  जैसे मीनाकारी आदि. उनको सहारा कब और कैसे मिलेगा - सिर्फ भविस्य ही बताएगा. 

बीकानेर में कोटा डोरिया नाम से साड़ियां बनती है. जबकि कोटा डोरिया साड़ियां सिर्फ कोटा में ही बन सकती है और उनकी पूरी दुनिया में मांग है. बीकानेर में अद्भुत कला में दक्ष डोरिया साडी बाने वाले लोगों को कब एक पहचान मिलेगी - भविष्य ही जाने. इसी प्रकार से बीकानेर की बंधेज, मांडना और इस क्षेत्र की अन्य कला भी अपना रजिस्ट्रेशन करवा के अमर हो सकती है. 

बीकानेर में बानी सुखी सब्जियों  (जैसे की खेलरे ) आदि  में अद्भुत स्वाद होता है और उनको अगर रजिस्टर करवा कर उनको ज्योग्राफिकल इंडिकेशन दिलाया जाएगा तो उनकी पूरी दुनिया में मांग शुरू हो जायेगी और फिर तो इस क्षेत्र में जुडी महिलाओं की आय बहुत बढ़ जायेगी. इसी प्रकार यहाँ की महिलाओं द्वारा बनाया जाने वाला खिचिया, गुनिया आदि अपने आप में अद्भुत हैं. ये सभी उत्पाद अपनी अलग पहचान पा  सकते हैं अगर इस दिशा में कोई प्रयास शुरू हों. 

बीकानेर में मिश्री बनाने वाले लोग अद्भुत हैं और इस मिश्री के स्वास्थ्य लाभ भी अद्भुत हैं. चिड़ावा और डूंगरगढ़ के पेड़े अद्भुत हैं. बीकानेर के पंधारी और सूरसाहि लड्डू अद्भुत होते हैं, बीकानेर की सुखी सब्जियों  और सूखे फलों का अद्भुत स्वाद होता है (जैसे सांगरी , भूंगड़ी आदि). बीकानेर की मिनिएचर पेंटिंग, उस्ता कला, पत्थर की नक्काशी आदि अद्भुत हैं प्रश्न है की इनको पहचान कैसे दिलवाएं. जल्दी जागिये, नहीं तो एक दिन  बीकानेर के लोक गीत, लोक कलाएं, और यहाँ के लोगों के हुनर किसी विदेशी कम्पनी के नाम रजिस्टर हो जाएंगे.