Sunday, March 13, 2016

जश्न मनाईये आप आाजद हैं, सुरक्षित हैं और एक मजबूत देश में रहते हैं

जश्न मनाईये आप आाजद हैंसुरक्षित हैं  और एक मजबूत देश में रहते हैं

(कारगिल विजय दिवस विशेष)

क्या है विजय दिवस?
आधुनिक भारत में अनेक संग्राम और अनेक संघर्ष हुए हैंये सभी संग्राम हमारे देश के वीरों के खून से लिखे गए और इन संघर्षों की परिणति हमारे जीवंत मूल्यों कीविजय के साथ हुईहमारे देश ने शांतिभाईचारे और प्रेम के अद्भुत आदर्श प्रस्तुत किये और सहनशीलता की मिसाल प्रस्तुत कीअनेक अवसरों पर हमारे देश नेविपरीत परिस्थितियों में भी शान्ति और संघर्ष विराम की स्थिति बनाये रखी जो की कोई अन्य देश नहीं कर सकता था२६ जुलाई का दिन आधुनिक भारत के इतिहासमें एक अनूठा दिन हैइस दिन को हम विजय दिवस के रूप में मनाते हैंकारगिल युद्ध २६ जुलाई १९९९ को विजय के रूप में सम्पूर्ण हुआ और इसी लिए इस दिन कोमनाया जाता हैविश्व के इतिहास में बहुत कम देश ऐसे मिलेंगे जो शक्तिशाली होते हुए भी अपने से कमजोर देशों के अत्याचार सहते रहे होंविश्व में शायद ही कोई देशमिले जिसकी अपनी भूमि पर पडोसी देश कब्जा कर के उसके लिए परेशानी पैदा कर रहे होंभारत ही ऐसा देश हैलेकिन नमन करो उन देशप्रेमी सैनिकों को जिन्होंनेअपनी जान की बाजी लगा कर फिर से हमारी भूमि को आजाद करवाया.

कैसे मनाएं ये विजय दिवस?
आज के दिन लेफ्टिनेंट कर्नल विस्वनाथनंलेफ्टिनेंट कर्नल विजयराघवनलेफ्टिनेंट कर्नल सचिन कुमार और उनके अनेक जांबाज साथियों को नमन करने का हैजिन्होंने अपनी जान कुर्बान करके हमें एक सुकून और आराम की जिंदगी बक्शीआज का दिन कारगिल के उन शहीदों को याद करने का है जिन्होंने वतन के लिएअपना सब कुछ कुर्बान कर दियाआज का दिन अपने देश के सैनिकों को नमन करने का है.
कारगिल के कुछ  हीरो हमारे बीच मौजूद हैं और ये सही होगा की हम उनके मुख से उनकी जीवंत कहानी सुने और उस को रिकॉर्ड कर के हमेशा के लिए एक अमिट यादमें तब्दील कर देंहमारे ही जांबाज वीरों के अद्भुत बलिदान को हमेशा के लिए हमारे नौजवानों तक पहुंचाने की जरुरत है.

कारगिल युद्ध पर कई  फ़िल्में बनी हैं और उनको फिल्मों को हर स्कुल और कॉलेज में दिखाया जाना चाहिएसरकार को चाहिए की कारगिल के वीरों पर बानी फिल्मों कोप्रोत्साहन देवे और इस दिवस को धूम धाम से मनाया जाएइससे देश भक्ति का जूनून पैदा होगा और आतंकवाद पर अंकुश लगाने में मदद मिलेगी.

दोस्त बनाना भी एक कला है

दोस्त बनाना भी एक कला है 

(फ्रेंडशिप दिवस  विशेष)




डैल कार्नेगी की पुस्तक पूरी दुनिया में बिकती है क्योंकि वो दोस्त बनाने की कला की बात करते हैं. हर व्यक्ति, खास कर युवा वर्ग दोस्त बनाने और दोस्ती बनाये रखने की कला में पारंगत होना चाहते हैं. आज हम सब जानते हैं की हमारी दुनिया की खूबसूरती हमारे दोस्तों के कारण हैं. जिसके अच्छे दोस्त हैं उसको मुश्किल से मुश्किल वक्त में भी हंसने और खिलखिलाने का बहाना  मिल जाता है. अच्छे दोस्तों के होने से हमारी आधी से ज्यादा समस्याएं दूर हो जाती हैं. 

दोस्त बनाना कहाँ मुस्किल  है. आप अपने व्यवहार को अधिक से अधिक मिलनसार बनाइये और आपके दोस्तों की एक लबमी लिस्ट होगी. जिससे आपको भी फायदा मिलेगा और आपके दोस्तों को भी फायदा मिलेगा. 

अपने चहरे को थोड़ा कसरत करवाईये और थोड़ा मुस्कुराना सीखिये. 
अपने अंदर जोश, उत्साह, ऊर्जा और उमंग भर लीजिये और हर वक्त उत्साह और उमंग से भरे रहिये. हर व्यक्ति एक ऐसे व्यक्ति से दोस्ती करना चाहता है जो उत्साह और उमंग से भरा हो. 
आशावादी और प्रोत्साहित करने वाले व्यक्ति से सब दोस्ती करना चाहते हैं और निराशावादी व्यक्ति से सब दूर रहना चाहते हैं. अगर आपने व्यवहार में आपको दूसरों की कमी निकालने की आदत नजर आ रही है तो उसको दूर करने का प्रयास करें. 
अपने व्यवहार में विनम्रता लाईये 
दूसरों के हित को तबज्जु दीजिये और उनके हित के लिए सोचिये 
आपके प्रयासों से दूसरों को फायदा हो सकता हो (बिना किसी को नुक्सान पहुचाये) तो उसके लिए प्रयास करिये 
अपने ईगो (घमंड) को थोड़ा कम करिये और थोड़ा झुकना भी सीखिये 
बहस और तू तू में में से बचिए और दूसरों के विचारों का सम्मान कीजिये 
कोई आपसे मदद मांगे और आप दे सकें तो उस के लिए प्रयास करिये 
प्रयास करिये की आप किसी की मदद कर सकें और उस को उसकी जरुरत के समय आप का साथ मिले सके 


दोस्त बनाने की कला एक ऐसी कला है जिसको सीखने के लिए पूरी दुनिया के लोग लालायित हैं. दोस्त बनाना आसान भी है. लेकिन दोस्ती निभाना बहुत मुश्किल है. कृष्ण - सुदामा की कहानी पढ़ना तो आसान है लेकिन जीवन में उतारना बहुत मुश्किल है. यह कहानी हमको एक प्रेरणा देती है की हम भी कृष्ण की तरह सुदामा से अनुराग कर सकें और उसको गले लगा सकें और जरुरत के समय उसके काम आ सकें. 

सावधानियां भी जरुरी है 
सिर्फ दोस्ती के लिए दोस्ती मत करिये. सिर्फ संख्या बढ़ाने पर मत जाइए. हर व्यक्ति से दोस्ती आप को नुक्सान भी पहुंचा सकती है. आप अपने लक्ष्य से भी भटक सकते हैं. दोस्ती करने में भी  सावधानी बरतीये. आज हर दूसरे युवक को हम नशे की गिरफ्त में पाते हैं. ये नशे की गिरफ्त इतनी भयानक है की हमारी अगली पीढ़ी को तबाह कर सकती है. दोस्ती की चाहत में अगर एक व्यक्ति  से संपर्क हो गया जो नशे की गिरफ्त में है तो समझो की जीवन का सत्यानाश हो गया. आज दोस्ती करने से पहले ये तहकीकात करना जरुरी है की दूसरे व्यक्ति की क्या आदतें हैं और क्या क्या आचार - विचार हैं. एक कटटरवादी व्यक्ति से दोस्ती करके आप अपने भविष्य के साथ खिलवाड़ कर सकते हैं. आपको पता ही नहीं चलेगा कब आप कट्टरवादियों के चंगुल में फंस जाएंगे और कब आप अपने लक्ष्य से भटक जाएंगे. 

आदिवासियों के अधिकार स्वीकार करें

आदिवासियों के अधिकार स्वीकार करें 

विश्व आदिवासी समुदाय दिवस ९ अगस्त को विशेष 

विकास की आज की रफ़्तार में हमारी नीव की भूमिका निभाने वाले आदिवासियों को नमन करना जरुरी हैं. ये वो ही लोग हैं जिन्होंने खतरनाक जंगली जानवरों से मुकाबला कर के विकास की शुरुआत की और एक सभ्य समाज की नीव राखी. लेकिन आज अफ़सोस ये है की जिस सभ्य समाज की नीव इन्होने राखी वो ही भस्मासुर बन कर आदिवासियों के अधिकारों को खत्म कर रहा है. जिन जंगलों के आदिवासियों ने सदियों से मुसीबतों का सामना कर मानव सभ्यता को बचाये रखा है उन्ही जंगलों का आज उनको कोई अधिकार नहीं है. जिन प्राकृतिक संसाधनों के वे रखवाले रहे हैं उन्ही संसाधनों के अधकारों के लिए आज उनको तरसना पड़ रहा है. पूरी दुनिया आज आदिवासियों को सभ्य समाज का हिस्सा बनाने के नाम पर उनसे उनके सभी संसाधन छीन लेने के प्रयास कर रही है. 

अमेरिका, अफ्रीका, दक्षिणी अमेरिका, एशिया के अनेक भू-भागों में आज भी कई आदिवासी कबीले रहते हैं जो वर्षों से चली आ रही परम्पराओं और व्यवस्थाओं के तहत अपने जीवन को चलते हैं. ये कबीले आज भी प्राचीन जीवन शैली को अपनाये हुए हैं. लेकिन ये ही वो लोग हैं जो प्रकृति के सबसे नजदीक हैं. ये ही वो लोग हैं जिनको जंगलों और प्राकृतिक घटनाओं की पूरी जानकारी होती है. ये वो लोग हैं जो हकीकत में प्रकृति के अनुकूल जीवन बिता कर पर्यावरण के अनुकूल जीवन शैली अपनाये हुए हैं. हम सब लोग पर्यवरण को नुक्सान पहुंचा रहे हैं लेकिन ये लोग आज भी पर्यावरण के हितेषी हैं. पूरी दुनिया में तथाकथित सभ्य समाज ने आदिवासी समाज को हासिये पर खड़ा कर उसके अधिकारों का हनन किया है. आदिवासियों को उनके अपने जंगलों से बेदखल किया गया है. उनको असभ्य और जंगली बता कर उनकी अद्भुत संस्कृति को अपमानित किया गया है. आदिवासी लोग जंगल, प्रकृति और वन्य जीवों के साथ में एक तादात्म्य से रहते हैं और उनको प्रकृति की अद्भुत समझ होती है. उनकी वेशभूषा, उनके रहने के तरीके को देख कर हम उनके ज्ञान और उनकी समझ का अंदाजा नहीं लगा सकते हैं. उनको अपने ढंग से रहने और अपने जंगलों को अपने ढंग से उपयोग करने का अधिकार मिलना चाहिए. हम लोगों का आदिवासियों के क्षेत्रों में अत्यधिक जाना उनके व्यक्तिगत जीवन को बाधित कर सकता है अतः उनके जीवन का सम्मान कर हमें उनके जीवन में किसी प्रकार का अतिक्रमण  नहीं करना चाहिए. 

कई देशों में इन आदिवासियों को शिक्षित और प्रशिक्षित करने के नाम पर इनका शोषण हो रहा है. इन लोगों की मदद करना तो अच्छी बात है लेकिन मदद के नाम पर इनको इनकी संस्कृति से वंचित करना और शिक्षित करने के नाम पर इनको इनके ज्ञान और समझ से दूर करना  उचित नहीं है. जहाँ तक संभव हो इन के ज्ञान और समझ को लिख कर भविष्य के लिए संजोना जरुरी  है. इन लोगों की जीवन शैली आज नहीं तो कल हमारे लिए एक समाधान ले कर उपस्थित होगी जब हम हमारी आज की विनाशकालीन नीतियों के दुष्परिणाम भुगत रहे होंगे. 

क्लाइमेट चेंज, बढ़ते तापमान, बढ़ती प्राकृतिक आपदाओं और घटते वन्य संसाधनों का सबसे ज्यादा नुक्सान आदिवासियों को हो रहा है. आज ये लोग हासिये पर आ गए हैं. न तो ये प्रकृति के अनुकूल जीवन बिता पा रहे हे हैं और न ही सभ्य समाज का भाग बन पा रहे हैं. न तो इनकी पुरानी परम्पराओं के लिए जगह बची हैं न ये नयी व्यवस्थाओं का फायदा उठा पा रहे हैं. आज विषम परिस्थितियों के कारण ये लोग आधुनिक स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य सुविधाओं के लिए तरस रहे हैं तो वहीँ अपनी संस्कृति को बचाये रखने के लिए भी इनको संघर्ष करना पड़ रहा है. 

ये लोग हमारा सिर्फ भूतकाल ही नहीं हमारा भविष्य भी हैं क्योंकि इनके पास से ही हमें वापस प्रकृति प्रेम का पाठ मिलेगा और ये समझ आएगा की कैसे हम एक प्रकृति अनुकूल विकास की व्यवस्था को अपनाएँ. आईये इनको इनके मौलिक स्वरुप में रहने दें और आधुनिक तकनीक के द्वारा स्वास्थ्य और जरुरी सुविधाएं प्रदान कर इनको एक बेहतर जीवन में मदद करें. इनके द्रिस्टीकोण को समझें 

बीकानेर की सांस्कृतिक राजनीतिक और सामाजिक पृष्टभूमि

बीकानेर की सांस्कृतिक राजनीतिक और सामाजिक पृष्टभूमि 

संस्कृति, राजनीति और समाज ये तीन चीजें आप स्वयं बाटे हैं या फिर आप इनको नजरअंदाज कर के अपने पतन की सामग्री तैयार करते हैं. जब आप अपने आस पास के बच्चों को अश्लील फिल्म या TV देख कर बर्बाद होते देखते हैं और सोचते हैं की मुझे इससे क्या है - तो निश्चित मानिए आपकी बर्बादी भी तय है और फिर दूसरे लोग कहेंगे "मुझे इससे क्या है". समय बदलता है और बदलते समय के साथ जो आज का राजा है वो की कल का रैंक बन जाता है. सही कहा है किसी ने "माटी कहे कुम्हार से - इक दिन ऐसा आएगा - मैं रौंदूगी तोय. सौभाग्य से बीकानेर इतिहास में ऐसा शहर रहा है जिससे लोगों को अपनापन रहा है और लोग एक दूसरे को सांस्कृतिक और सामजिक स्तर पर झकझोरने में नहीं कतराते. बीकानेर एक ऐसा शहर है जहाँ पर हमेशा से ऐसी संस्कृति रही है की गली में कोई अपरिचत भी दिख जाए तो लोग पूछ लेते थे की भाई तुम कौन हो और क्यों आये हो. शहर बाने के लिए ईंट और चौबारे नहीं चाहिए - शहर बनाने के लिए ऐसे लोग चाहिए जो उस शहर को उतने ही जतन से संवारते हैं जैसे अपने परिवार को संवार रहे हों. शहर का हर शक्श उस शहर की संस्कृति को अपने परिवार की तरह हिफाजत करता है तभी वो शहर असली शहर बन पाटा है. कोई भी शहर और संस्कृति बनने में सदियाँ लग जाती हैं लेकिन उस शहर की उस संस्कृति की थाह लेना तो नामुमकिन है. हमारे पास वो शब्द कहाँ की हम किसी भी उत्कृष्ट संस्कृति की गहराई को बयान कर सकें.  बीकानेर की अद्भुत पहचान को बहुत बहुत सलाम 
पहनावा 
कपड़ों से संस्कृति नहीं बनती पर संस्कृति कपड़ों से अपने आप को प्रदर्शित करती है. बीकानेर हमेश से एक सुसंस्कृत प्रदेश रहा है. इसी कारण यहाँ पर लोगों का पहनावे के बारे में हमेशा ही स्पस्ट पहचान रही है. ७-८  दशक पहले यहाँ पर कोई भी पुरुष बिना किसी पगड़ी या टोपी के घर से भाहर नहीं निकलता था. यानी वो एक सभ्य और सुसंस्कृत पहनावे के प्रति समर्पित था. सफ़ेद चोला या सफ़ेद कुरता और सफ़ेद धोती या सफ़ेद पजामा और सर पर पगड़ी या टोपी - बीकानेर के पुरुषों का पहनावा था तो महिलायें भी सर को ढक कर लाल-पीले चटक रंग के कपडे पहनती थी. पिछले कुछ वर्षों में बीकानेर के लोगों का वस्त्र-बोध कुछ कम हुआ है लेकिन इतिहास में हम देखें तो ये पाएंगे की यहाँ के लोगों ने हमेशा ही पहनावे को प्राथमिकता दी है. 

राजनीति 
बीकानेर हमेशा से लोक चेतना की भूमि रहा है. भले ही बीकानेर को राष्ट्रीय स्तर के नेता न मिले हों लेकिन चेतना, सोच और समझ में बीकानेर हमेशा से आगे रहा है. राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त व्यक्ति भी यहाँ आ कर यहाँ के लोगों से चर्चा कर के अपने आप को लाभान्वित महसूस करते थे. सोच में प्रगाढ़ता के कारण ही यहाँ के लोग एक स्पस्ट और तार्किक विचारधारा प्रचारित कर पाते थे. छात्र राजनीति दूषित या संकीर्ण नहीं थी. श्री उपध्यान चन्द्र कोचर आज से ७ दशक पुरानी छात्र राजनीति के बारे में मुझे बताते थे की उस समय सभी छात्र आपस में मिल कर प्रदेश के विकास की बात सोचते थे और सभी लोगों में आपसी सामंजस्य् था. संकीर्ण सोच नहीं होने के कारण उस समय के सभी छात्र नेता बाद में देश में अग्रणी भूमिका निभाने में कामयाब रहे. उनमे से कुछ लोगों को हम आज भी देख सकते हैं जैसे श्री माणिक चाँद सुराणा जी, श्री विजय शंकर व्यास जी आदि - जो आज पुरे देश में अपने सुलझे हुए विचारों के लिए जाने जाते हैं. मैं आज जब अपने आस पास देखता हूँ तो पाटा हूँ की आज जो भी बीकानेर में समाज को नेतृत्व दे रहा है वो सभी वो लोग हैं जिन्होंने अपने समय में छात्र राजनीति में भाग लिया और वो लोग सौभाग्यशाली थे की उस समय पर छात्र राजनीति बहुत ही शालीन और बौद्धिक चिंतन पर आधारित थी. शायद इसी कारण हम को श्री उपधायण चन्द्र कोचर, श्री माणिक चद सुराणा, श्री बुलाकी दास कल्ला, श्री जनार्दन कल्ला, श्री लूणकरण छाजेड़ जैसे लोगों का नेतृत्व मिल पाया (ये सभी अपने समय में छात्र नेता रहे हैं). काश हम इस बात को समझें की विद्यार्थियों को छात्र राजनीति में जरुरी मार्गदर्शन देना भी हमारे लिए उतना ही जरुरी है जितना अपने लिए लाइफ इन्सुरेंस करवाना है. 

सामजिक पृष्ठभूमि 
कोई भी हामत्व्पूर्ण बात हो आपको साथियों और सामज के अन्य लोगों के साथ ही चलना पड़ेगा. छोटी छोटी रीति रिवाजों के द्वारा आपको समाज के साथ बाँध दिया जाता है. चाहे छोटे से बच्चे का मुंडन हो या मृत्यु की दुखद बात हो - आपको परिवार और समाज के साथ तो जुड़ना ही पड़ेगा. जब आप बहुत दुखी होते हैं तो पूरा समाज आप को संतों के पास ले जाता है जो आप को ज्ञान की दो बात सुनाते हैं. जब आप बहुत खुश हैं तो समाज आप के साथ कोडमदेसर चलता है जहाँ आप खुशियां भी मानते हैं, भेरू जी की पूजा भी करते हैं, देवी का पूजन भी करते हैं,  तो तालाब के पास अपने आप को ख़ुशी से आह्लादित महसूस करते हैं. बीकानेर में सामाजिक व्यवस्थाएं कुछ इस प्रकार की बानी हुई है की हर समाज एक दूसरे से जुड़ा महसूस करता है. हर समाज आपसी मेलजोल से ही अपने काम निपटा सकता है. कोई भी पारिवारिक रिवाज बिना दूसरे समाज के सहयोग के पुरे नहीं हो सकते हैं. वर्षों से आपसी सहयोग और तालमेल का माहौल बना हुआ है. बीकानेर में हमेशा से आपसी सहयोग और मेलजोल की संस्कृति रही है जो यहाँ की सामाजिक व्यवस्थाओं में भी साफ़ दीखता था. पशु  पक्षियों और जानवरों के प्रति भी लोगों में करुणा का भाव रहा है इसी कारण यहाँ पर गाय -गोधों को भी अलमस्त हो कर शहर के मुख्य रास्तों पर आराम करते देखा जा सकता है. लोगों की भावनाओं के अनुरूप ही यहाँ के राजा श्री गंगा सिंह ने आजादी से काफी पहले ही यहाँ पर पशु चिकित्सालय स्थापित करवा दिया था और उसके बढ़िया विकास के लिए दक्षिण भारत से डॉक्टर सिवाकमू (SIVAKAMU)  को ले कर आये. जानवरों की चिकित्सा के लिए इतना सोचना भी बहुत बड़ी बात है. आज से ७-८  दशक पहले बीकानेर में देश के सबसे बढ़िया चिकित्सकों को लाने का प्रयास करना भी अपने आप में अद्वितीय प्रयास था. 

पदयात्रा की अनूठी परम्पराएँ और प्रशाशनिक अनदेखी

पदयात्रा की अनूठी परम्पराएँ और प्रशाशनिक अनदेखी 

एक समय बीकानेर में पदयात्रा आम लोगों की बीच बहुत लोगप्रिय थी. लोग सभी जगह पैदल ही जाना पसंद करते थे. पैदल चलने के कारण लोग स्वस्थ भी रहते थे और समाज से जुड़े भी रहते थे. लोगों को पदयात्रा के दौरान आपस में बातचीत का मौका मिल जाता है और लोग एक दूसरे की मदद भी कर पाते हैं. तीन दशक पहले तक स्कुल और कॉलेज के लिए भी विद्यार्थी पैदल जाना पसंद करते थे. वक्त गुजर गया और पैदल यात्रा का प्रचलन कम हो गया. साथ में सामाजिक समरसता और आपसी मेलजोल भी कम हो गया. आज फिर से जरुरत है की हम समाज में पैदल यात्रा को फिर से प्रचलित करने के लिए प्रयास करें. 

पश्चिमी राजस्थान में खास कर बीकानेर क्षेत्र में पदयात्रा की अनूठी परम्पराएँ समाज के लिए एक महत्वपूर्ण सेतु के रूप में समाज को जोड़ने के लिए बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती आई हैं. हरवर्ष भादवा में बाबा रामदेव के मेले के लिए हजारों पदयात्री जाते हैं. इसी प्रकार पूनरासर बालाजी, उदरामसर दादाबाड़ी, शिवबाड़ी आदि के मेले भरते हैं. इन सभी मेलों के लिए बड़ी संख्या में लोग उत्साह से भाग लेते हैं. इन मेलों के लिए जाने वाले पदयात्रियों के लिए आम जनता ही कुछ व्यवस्था करती है. प्रशाशन की तरफ से कोई भी इंतजाम नहीं होता है. इतने वर्ष हो गए हैं लेकिन आज दिन तक पदयात्रियों के लिए अलग सड़क तक नहीं है. आप सब जानते हैं की राष्ट्रीय राजमार्गों से पदयात्रा करना बहुत मुश्किल है और  जान का भी खतरा रहता है. पदयात्रा के लिए पगडण्डी होनी चाहिए जिस पर ट्रकऔर दूसरे बड़े वाहन न चढ़ पाएं. लेकिन अफ़सोस है की किसी भी पदयात्रा के लिए कभी भी प्रशाशन ने पदयात्रा को सुगम बनाने के लिए पगडण्डी नहीं बनवायी है. 

बीकानेर से रुणिचा की दुरी १८० किलोमीटर है जिसको पदयात्री १० - १२ दिन में तय करते हैं. इस दौरान ज्यादातर यात्रा हाईवे की सड़क पर करनी पड़ती है जिसपर बहुत ज्यादा ट्रक, और अन्य बड़े वाहन चलते हैं. इस कारण कई पदयात्रियों को दुर्घटना का सामना भी करना पड़ता है. यात्रियों को जगह जगह पर रात्रि विश्राम करना पड़ता है लेकिन उसके लिए भी प्रशाशन की तरफ से कोई सहयोग नहीं है - न ही सड़कों पर कोई सुलभ सोचालय या विश्राम-गृह की व्यवस्था है. १०-१२ दिन की ये पदयात्रा यात्रियों को बड़े ही कष्ट से पूरी करनी पड़ती है. बीकानेर शहर के नागरिक आगे आ आ कर पड़्याटिर्यों के लिए सुविधा व्यवस्था करते हैं लेकिन प्रशाशन की तरफ से कोई व्यवस्था नहीं होती है. 

बीकानेर से पूनरासर बालाजी के मंदिर की वर्तमान दुरी ६०  किोमेटेर है जो जयपुर रोड से है.जयपुर रोड पर ट्रैफिक बहुत ज्यादा होने के कारण पड़्याटिर्यों को भी परेशानी होती है और भरी वाहनों की कतार लग जाती है.  अगर उदासर बामब्लू से जाने वाले रास्ते को दुरस्त कर देते हैं तो बीकानेर - पूनरासर की दुरी सिर्फ ५० किलोमीटर हो जायेगी और उस रास्ते पर भारी ट्रैफिक और भरी ट्रकों से भी निजात मिलेगी. इसके आलावा पैदल यात्रियों  को पेड़ों की ठंडी छाया भी नसीब हो पाएगी क्योंकि राष्ट्रीय राजमार्गों के विस्तार के कारण वहां तो पेड़ अब बचते ही नहीं है (राष्ट्रीय राजमार्ग को चोडा करने के लिए आस पास लगे पेड़ों को काट दिया जाता है). 

पदयात्रा स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़ी ओषधि है. पदयात्रा समाज को जोड़ने के लिए सबसे बड़ी ताकत है. पदयात्रा करने वाले लोग हजारों लोगों को हंसी ख़ुशी भक्ति और उत्साह का सकारत्मक सन्देश देते हैं. फिर भी अफ़सोस है की हमारे देश में कॉमनवेल्थ खेलों के लिए ६६००० करोड़ रूपये खर्च कर सकते हैं लेकिन सदियों पुरानी अद्भुत परम्परा के लिए हमारे पास कोई बजट नहीं है. अफ़सोस  है की राष्ट्रीय राजमार्ग में तेज दौड़ती ट्रकों के लिए एक्सप्रेसवे बनाने के लिए हम सोच सकते हैं लेकिन पैदल यात्रियों के लिए हम नहीं सोचते. अफ़सोस है की समाज के विकास के हर काम के लिए हमारे प्रशाशन के पास बजट है लेकिन पदयात्रियों के लिए कोई बजट नहीं है. 

स्वाद और अध्यात्म का अद्भुत संगम : बीकानेर

स्वाद और अध्यात्म का अद्भुत संगम : बीकानेर 

एक से बढ़ कर एक स्वादिस्ट व्यंजनों और आध्यात्मिक भजनों का शहर बीकानेर अपने आप में अनूठा  शहर है.आपका स्वागत है, आईये  एक ऐसे शहर में जो रेगिस्तान के केंद्र में हो फिर भी स्वाद की दुनिया में सरताज हो,  एक  ऐसे शहर में जहाँ पर कोई भी फल, सब्जी, नहीं होती थी पर लोगों ने अपनी सूझ बुझ से स्वादिस्ट व्यंजनों की एक लम्बी लिस्ट बनली. एक ऐसे शहर में जहाँ पर हर शक्श अपनी मस्ती के लिए जाना जाता है. चाहे होली हो या दिवाली - हर व्यक्ति एक अलग मस्ती में रहता है. किसी के चहरे पर शिकन या तनाव नहीं बल्कि एक संतोष भरी मस्ती है. हर व्यक्ति खुश है - चाहे उसके पास कितनी भी जिम्मेदारी हो, चाहे उसके पास कितनी भी मज़बूरी हो, पर ख़ुशी और संतोष यहाँ के लोगों के पास भरपूर है इसी के कारण ये शहर अपनी अलग पहचान रखता है. आपसी तालमेल और मेलजोल के लिए यहाँ के लोग जाने जाते हैं. आप बीकानेर से जाने वाली किसी भी बस या ट्रैन में बैठिये - लोग बुजुर्गों और महिलाओं के लिए बड़े ही अदब से पेश आते हैं और उनके लिए अपनी जगह छोड़ देते हैं. तहजीब और तमीज यहाँ की आबो हवा में बसी है. 

अध्यात्म और दुनियावी जीवन का एक ऐसा अद्भुत  संगम बिरला ही मिलता है. यहाँ लगभग हर गुवाड़ (मोहल्लों) में लोगों ने अपनी भजन मंडली बनायीं हुई है. कहीं पर रात्रि जागरण होते हैं तो कहीं पर भजन संध्या होती है तो कहीं पर मंदिरों में पुरे दिन भजन मंडली का कार्यक्रम चलता रहता है. ये एक ऐसा शहर है जहाँ पर मंदिरों की संख्या अभी भी शराब और नशे की दुकानों से ज्यादा है और इसी कारण भक्ति का नशा किसी भी अन्य नशे से जयादा है. शायद इसी कारण आधुनिकता के नाम पर फैलता भोंडापन अभी भी इस शहर में विरोध का सामना कर रहा है. हर सुबह महिलायें पीपल को पानी देती हैं, मंदिर के दर्शन करती हैं और गोमाता को रोटी देती  है. हर शाम को लोग बुजुर्गों के पास बैठ कर दिन भर की घटनाओं पर चर्चा करते हैं. हर त्योंहार या उत्सव की शुरुआत गणेश जी के पूजन से होती है और हर उत्सव को लोग आध्यात्मिक आनंद से मानते हैं. गली मोहल्लों में पाते पर बैठे किसी भी व्यक्ति के पास आपको इतने भजन सुनने को मिल जायेंगे जितने किसी भी अन्य शहर के आम आदमी के पास नहीं मिल सकते. जहाँ पर जीवन की आपाधापी के बीच लोग आज भी अपनेपन के लिए समय निकल सकते हैं वो शहर यहीं पर है. चाहे कोई भी अवसर हो उल्लास और आनंद का मौका चाहिए. जरा सी बारिश आते है लोग गौठ मानाने निकल पड़ते हैं. जरा सी छोटी सी ख़ुशी पर मिढ़ाईयों का दौर शुरू हो जाता है और लोग जबरदस्ती एक दूसरे को कवे देते हैं. कवे देने और मिल कर एक थाली में साथ में भोजन करने की वर्षों पुरानी परम्परा आज भी कायम है.   विरक्ति और आसक्ति का अद्भुत संगम है ये. 

वर्षों पहले से यहाँ पर चाय पट्टी जैसे मंच बने हुए हैं जहाँ पर आम लोग इकठा हो कर चाय पर चर्चा करते हैं और स्वादिस्ट कचोरी और समोसों का आनंद लेते हैं. एक ऐसा शहर जहाँ पर अनजान व्यक्ति को भी लोग भायला कह कर प्यार से अपना बना लेते हैं और कुछ मिनटों में ही उसका दिल जीत लेते हैं. एक तरफ अस्पताल है जहाँ पर लोग एक दूसरे की मदद के लिए टूट पड़ते हैं तो दूसरी तरफ आज भी २ रूपये में स्वादिस्ट कचोरी का आनंद लेते एक दूसरे को स्वाद से अस्वादित करते लोग नजर आते हैं. यहाँ की प्रशाशनिक लापरवाही का भी फायदा मिला है की लोगों को समझ में आ गया है की प्रशाशन से नहीं एक दूसरे की मदद से ही काम होता है. अतः कोई भी मौका हो लोग मिल कर ही समस्या का समाधान करने का प्रयास करते हैं. 

क्या यही है "विकास"?

क्या यही है "विकास"?

पुरे भारत में अभी ७वे वेतन आयोग और दिल्ली में आप सरकार द्वारा प्रस्तावित वृद्धि खुशियों की बहार ले कर आई हैवेतन आयोग सरकारी कर्मचारियों की तनख्वाहको सवाया कर देगा तो केजरीवाल ने तो विधायकों की तनख्वाह दुगुनी से भी ज्यादा बढ़ा दीऐसे समय में जब सरकारी कर्मचारी और विधायक खुशियां मना रहें हैं तोकोई मजदूरों और निजी क्षेत्र के कर्मचारियों की भी सोच रहा है क्याशायद नहींआज का भारत तो दो लोगों का ही है : सरकारी अफसरों का और राजनेताओं का..असली भारत तो वो है जो खेतों में मेहनत करता हैफैक्ट्रियों में मजदूरी करता हैछोटे - मोटे काम कर के पेट भरता हैउस भारत का क्याउस भारत के लिए कोन सोच रहा हैउस भारत को तो तभी राहत मिलेगी - जब मेह्गाई कम होटैक्स कम होसरकारी महकमों में काम काज आसानी से होऔर आम आदमी की आय बढे.लेकिन सरकार भी तो कम थोड़े ही हैतर्क है की तनख्वाह बढ़ाने से भ्रस्टाचार कम हो जाएगाचलिए उम्मीद करते हैंतर्क है की तनख्वाह बढ़ने से काम ज्यादा होगा.देखते हैंतनख्वाहइनामअवार्ड्सतोहफेसरकारी सुविधाएं ये सब कहीं बन्दर बाँट की चीजें तो नहीं हैक्या कोई यह सोच रहा है की इस तरह से सरकारी तनख्वाहबढ़ाने से बढ़ने वाली महगाई से गाव के आम किसान का जिन दुश्वार हो जाएगा और गावों से शहरों की और पलायन और ज्यादा बढ़ जाएगाक्या कोई यह सोच रहा हैकी इस प्रकार से तनख्वाह बढ़ाने से आम व्यापारीमजदूरऔर निजी क्षेत्र के कर्मचारी के लिए जिन मुश्किल जो जाएगा और भारत के परम्परागत उद्योगकृषि,पशुपालन आदि पर संकट  जाएगासिर्फ भू-माफिया और बड़े शहरों में रहने वाले उद्योगपति ही नहीं है इस देश में - और भी तो बहुत है जो अलग सोच रखते हैंक्याहम उनके बारे में भी सोच रहे हैंबढ़ते अमीर - गरीब के फासले से देश कहाँ जाएगा?
एक तरफ सरकार स्मार्ट सिटी की बात कर रही है तो कुछ लोग ये भी कह रहे हैं की क्यों  हम गावों में आधारभूत सुविधाएं बढाएक्यों  हम आम लोगों की जरूरतोंपर ध्यान देवेंक्यों  हम भ्रस्ट सरकारी विभागों को बंद करने के लिए मुहीम चलायेंक्यों  हम उन की मदद करें जो भ्रस्ट तंत्र से जूझ रहे हैंराजस्थान में प्रोफ़ेसरवरुण  आर्य एक ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने कई वर्षों तक सरकारी तंत्र के भ्रस्टाचार का डट कर मुकाबला कियाऐसा हिम्मत वाला आदमी बिरला ही मिलेगाजो कामउन्होंने किया वो सभी करें तो कमाल हो जाए - पर ऐसा सब के लिए संभव नहीं हैउस समय सभी ये कह रहे थे की जितने सरकारी अधिकारी कंट्रोल करने के लिएलगाए गए हैं उनकी तनख्वाह में कही गुना ज्यादा प्राइमरी टीचर नियुक्त कर के सरकार देश का भला कर सकती है और उन अधिकारियों रूपी दीमक से देश को बचासकती हैप्रोफ़ेसर वरुण आर्य के संगर्ष ने ये बात साफ़ कर दी थी की सरकारी तंत्र - ख़ास कर उच्च अधिकारी वर्ग और राजनेता जो अनुमति देने के लिए दुनिया भर कीकागजी कार्यवाही करते हैं - वाकई में देश का भला नहीं कर रहे हैंये बात देख कर कई लोग ये कहने लगे थे की देश को अब आईएएस जैसे अधिकारियों की नहीं कर्मठकार्यकर्ताओं की जरुरत हैऐसे लोगों की जरुरत है जो गावों में जाए - मदद करने का काम करें -  की कंट्रोल करने काश्रीमान नरेंद्र मोदी ने जब कहा की वो सिर्फ प्रमुखसेवक है तो बड़ा अच्छा लगा और उम्मीद जगी की शायद देश का कायाकल्प हो जाए.
प्रश्न है की आज जब सरकार हर कम्पनीहर कॉलेजहर संस्था की रेटिंग करना अनिवार्य बना रही है तो स्वयं अपने विभिन्न विभागों का भ्रस्टाचार के स्तर के आधारपर रैंकिंग क्यों नहीं करवातीट्रांसपरेन्सी को बढ़ावा देने की बात करने वाले मंत्री क्यों नहीं अपनी कार्यप्रणाली को पारदर्शी बनातेक्यों नहीं भ्रस्टाचार के आधार पररैंकिंग में शिक्षार पर आये हुए - सरकारी विभागों की तनख्वाह बढ़ोतरी रोक दी जाएक्यों नहीं भ्रस्ट सरकारी महकमों पर कोई लगाम लगा दी जाएभ्रस्ट और श्रेष्ठसभी को बराबर तनख्वाह बढ़ोतरी का फायदा क्यों मिलेएक ग्रामीण विकास या शिक्षा को फैलाने वाले सरकारी विभाग की तनख्वाह भी उतनी ही बढे जितनी भ्रस्टविभाग की तो फिर कार्य करने के लिए प्रोत्साहन कहाँ हैं?
२०११ में जब पूरा देश भ्रस्टाचार के खिलाफ मुहीम शुरू कर रहा था तो उस वक्त किसी ने नहीं सोचा था छोटे छोटे मुद्दों से लोगों का ध्यान बदल दिया जाएगा. अवाम की ताकत गजब की होती है. १९१७ में रूस की क्रान्ति, १७७५ की अमेरिका की क्रान्ति और १७८९ की फ्रांस की क्रांति के बारे में सब ने सुना होगा. जहाँ जहाँ भी अवाम ठान ले तो जो चाहे वो संभव है. आज फिर अन्ना हजारे की जरुरत  गयी हैआज फिर एक और आंदोलन की जरुरत हैक्यों नहीं हमहर स्तर पर फ़ैल रहे भ्रस्टाचार पर लगाम लगाने की बात करेंआम भारतीय रोटी चाहता हैरोजगार चाहता हैसरकारी विभागों से रहम चाहता है और हम उसको धर्म,असहिष्णुताऔर पता नहीं क्या क्या कह कर गुमराह कर रहे हैंक्या वो असंतुष्ट नहीं होगानतीजा क्या निकलेगा साल का इन्तजारकेन्या के मवांगी नामकएक कलाकार अपनी पेंटिंग से हर व्यक्ति को यही सन्देश देता है की वोट की ताकत से आप सरकार बदल दो और जो आप चाहते हो उसको प्राप्त करोपर क्या ऐसाहोता है.
राजधानी में अच्छी भली सड़कों को तोड़ कर दुबारा बनाया जा रहा है तो गावों में सड़को के लिए बजट नहीं हैराजधानी में सौन्दर्यकरण के नाम पर पैसा पानी की तरहबहाया जा रहा है तो गावों में बिजली और पानी की व्यवस्था भी नहीं हैस्मार्ट सिटी के नाम पर विकसित शहरों को और ज्यादा विकसित किया जाएगा पर जहाँ पर कुछभी नहीं है उस क्षेत्रों की विकास की कोई बात ही नहीं कर रहा हैहम सभी जानते हैं की बहुराष्ट्रीय कंपनियों की फैक्ट्रियां खुल जाने से जीडीपी बढ़ जाएगा और हमविकसित देशों में  जाएंगे  - पर क्या इससे विकास हो जाएगाखेती योग्य साड़ी भूमि पर फैक्ट्रियां बन जायेगी तो फिर अनाज कहाँ पर होगाआज गुजरात में आपको खेत और खलिहान देखने के लिए तरसना पड़ेगा क्योंकि विकास के इस मॉडल में फैक्ट्रियां ही फैक्ट्रियां खुलेंगी गाव और खेत तो खत्म हो जाएंगेभारतियों के जीवनका उद्देश्य कारों की सैर सपाटे करना है या अपने गाव में परिवार के साथ आत्मिक आनंद में स्वरोजगार में अपने आपको जीवन के अंतिम उद्देश्य की तरफ ले जाना है?प्रश्न है की सरकार को करोड़ों रूपये के बजट की आई आई टी जैसी संस्थाएं खोलनी चाहिए या गाव गाव में स्वास्थ्यशिक्षाऔर स्वरोजगार के लिए सोचना चाहिए?संसाधन सीमित है लेकिन हमारी चाहते और हमारे विकल्प असीमित हैइन मुद्दों पर बहस करने और सोचने के लिए आप और हम जैसे साधारण लोग और हमारे शहरके पाटे कोई कम नहीं है - चलिए शुरुआत करते हैहमें अपनी सोच पर भरोसा होना चाइये - हमारी आवाज भी अपनी गूंज से पुरे देश को हिला सकती है.