Saturday, April 30, 2016

बजट पूर्व दरख्वास्त


बजट आने वाला है. गुलाम भारत में अंग्रेजों ने अपनी सुविधा से वित्त वर्ष १ अप्रेल से ३१ मार्च बनाया और बजट की तारीख और समय भी अपनी सुविधा से तय किया. आजाद भारत में आज तक उसको लगभग वैसे ही पालन किया जा रहा है (बजट प्रस्तुत करने का समय बदला गया है  मात्र). अंग्रेजों के बनाये हुए कानून भी लगभग वैसे ही हैं (या और ज्यादा मुश्किल कर दिए गए हैं). जैसे उस समय में नमक सहित ११ वस्तुओं पर एक्साइज टैक्स लगाया जाता था जिसका हम विरोध करते थे. आज वो टैक्स हमारी सरकार ने कई गुना जयादा बढ़ा कर हर उत्पाद पर लागू कर दिया है. आजादी से पहले हम सोचते थे की नमक जैसी वस्तुओं पर टैक्स हटा दिया जाएगा लेकिन आजादी के बाद ऐसा नहीं हुआ है. अब तो हर वस्तु पर टैक्स लगा दिया गया है. और टैक्स के कानून भी बड़े ही भयावह बना दिए गए हैं. लेकिन अफ़सोस है की जितनी राशि टैक्स के रूप में संकलित की जाती है उसकी अधिकाँश राशि टैक्स से सम्बंधित अलग अलग विभागों के प्रशाशनिक खर्च पर खर्च हो जाती है और कहा ये जाता है की आम आदमी की भलाई  के लिए टैक्स लगाया जाता है. इन टैक्सेज के कारण हमारा उत्पाद महंगा हो रहा है और हमारा निर्यात कम हो रहा है लेकिन तर्क ये है की चीन के कारण हमारा निर्यात नहीं हो रहा है. 

बजट देश के विकास के लिए  सबसे  महत्वपूर्ण औजार  बजट ही होता है. आइये हम सब मिल कर मन मन में ये दुआ करें की बजट आम जनता के लिए कुछ फायदा ले कर आये. आइये हम सब मिल कर प्रार्थना करें की : - 

बजट में शिक्षा, स्वास्थ्य, व् सामजिक सुरक्षा के लिए प्रस्तावित राशि कुछ बढे. विकसित देश शिक्षा के लिए हमसे कई गुना ज्यादा राशि खर्च करते हैं और इसी लिए उनका विकास हो रहा है. 

बजट में ग्रामीण विकास, ग्रामीण संसाधनों के विकास, व् लोग व् कुटीर उद्योगों के लिए कुछ प्रावधान बढे व् कुछ ढोस संसाधन बनाने के लिए सम्बल बने. हर सरकार शहरी क्षेत्रों के विकास के लिए तो प्रावधान करती है लेकिन गावों की टूटी फूटी सड़कें और खस्ता हाल स्कुल किसी को नहीं दिखाई देते हैं. उम्मीद करनी चाहिए की ये सरकार गावों के लिए कुछ करे. 

बजट में अलग अलग तरह के टैक्स के मकड़ जाल से छुटकारा दिलवाने का कुछ प्रावधान होना चाहिए. आम भारतीय अपनी आय का आधे से ज्यादा हिस्सा टैक्स में दे देता है. (लगभग ११  से २६ प्रतिशत एक्साइज, व् अन्य प्रकार के टैक्स के रूप में, लगभग १४% सर्विस टैक्स के रूप में व् लगभग ३०% इनकम टैक्स व् अन्य चार्जेज व् सेस्स के रूप में). हमारे देश में लगभग ३०००  कानून हैं जो किसी न किसी रूप में आम आदमी को अपनी जकड में जकड़े हुए हैं. हर कानून (प्रावधान व् रूल्स को मिला कर ) १००  से १००० पेज के बीच का है. लगभग हर कानून पूरी दुनिया का सबसे बड़ा कानून है. हर कानून मुश्किल भाषा में तैयार किया हुआ है जिसको समझना आम आदमी के लिए मुश्किल और उबाऊ है. ऐसा माना जाता है की हर व्यक्ति को कानून की जानकारी होनी चाहिए (ताकि वो कानून का पूरी तरह से पालन कर सके). लेकिन इस के लिए जरुरी है की कानून सरल और संक्षिप्त हों जिसको हर व्यक्ति समझ सके और पालन कर सके. हर व्यक्ति से अपेक्षा है की वो अलग अलग कानूनों का पूरी तरह से पालन करे और इस हेतु खुद सजग रहे. तरह तरह के टैक्स होने से उनके लिए अलग अलग कर्मचारी रखने पड़ते हैं और इस प्रकार टैक्स की वसूली के लिए प्रशाशनिक व्यय भी बहुत ज्यादा हो जाता है. इस लिए इस बात की जरुरत है की सभी तरह के टैक्स के लिए एक ही विभाग हो और अगर सारे तरह के टैक्स के लिए एक ही दस्तावेज हो तो और अच्छा हो जाएगा. हर व्यक्ति टैक्स चुकाना चाहता है लेकिन टैक्स की प्रक्रिया आटे में नमक की तरह हो न की नमक में आटे की तरह. यानी टैक्स की दर कम हो ताकि किसी व्यक्ति को टैक्स का भुगतान अखरे नहीं और टैक्स की वसूली गयी राशि का उचित  उपयोग भी हो न की सारी राशि प्रशाशनिक व्यय पर खर्च हो जाए. 

कई लोगों का तर्क है की टैक्स की डर कम कर देंगे तो सरकार अपने प्रशाशनिक खर्च को कैसे करेगी. हर दिन प्रशाशनिक खर्च बढ़ रहा है. ७ व वेतन आयोग आने वाला है और वो तक्खवाह बढ़ा देगा तो फिर उसका भुगतान सरकार कैसे करेगी. हर सरकारी दफ्तर आज ऐरकण्डीशनड है उसका खर्च कैसे चलेगा? प्रश्न उचित हैं. मैं अनुरोध करूँगा  की इस प्रकार  के बढ़ते  खर्च के लिए घाटे  का बजट ही लागू  किया जाए. लेकिन आम आदमी पर टैक्स का भार न बढ़ाया जाए. मैं शिक्षक हूँ लेकिन फिर भी अनुरोध करूंगा की उच्च शिक्षा पर खर्च कम कर दिया जाये. उच्च शिक्षा के क्षेत्र में आज हमारे देश में अनेक विकसित संस्थाएं हैं जो सेल्फ-फाइनेंसिंग के द्वारा सफलता पूर्वक काम कर रही हैं और अन्य शिक्षण संस्थओां को भी उनसे सीख ले कर सेल्फ फाइनेंसिंग पर काम करना चाहिए. लेकिंग प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा पर सरकार को खर्च करना ही पड़ेगा और वोकेशनल शिक्षा और उद्यमिता को बढ़ावा देना ही पड़ेगा. सरकार को अब उच्च शिक्षण संस्थाओं (प्रोफेसनल शिक्षण संस्थाओं जैसे आईआईएम आदि को शामिल करते हुए ) से कहना ही पड़ेगा की वो सेल्फ फाइनेंसिंग के लिए तैयार हो जाए. ताकि ग्रामीण शिक्षण संस्थाओं के विकास के लिए अधिक से अधिक राशि खर्च की जा सकै. 

बजट से छोटे उद्योगों के लिए भी कुछ मदद की गुजारिश करनी चाहिए. बड़े उद्योगों को सरकारी मदद की जरुरत नहीं होती है क्योंकि वो शेयर मार्किट और विदेशी पूंजी से सक्षम हो जाते हैं लेकिन छोटे उद्योग कहाँ जाए ? प्रश्न है की सरकार छोटे उद्योग, कुटीर उद्योग, सूक्ष्म उद्योग, घरेलु उद्योगों के लिए क्या कर रही है? प्रश्न है की बजट के द्वारा सरकार सबसे छोटे व्यापारियों  (जैसे ठेला चलने वालों) की मदद करने के लिए क्या कर सकती है. आज हम सबको मिल कर ये अनुरोध करना चाहिए की हमारी आवाज सरकार तक पहुंचे और वो छोटे से छोटे व्यापारियों की मदद करने के लिए सोचे. बड़े उद्योग समूह तो अपनी मांगे वित्त मंत्री को सीधे ही भेज देते हैं. छोटे व्यापारी क्या करें? उनकी कौन सुनता है? आईये हम सब उनके लिए कुछ प्रार्थना करें ताकि सरकार उनके लिए भी सोचे. ये सरकार स्मार्ट सिटी की बात करती है. काश ये सरकार हर गाव को स्मार्ट गाव बनाने की बात करे ताकि आम भारतीय खुशियों का पिटारा पा सके. (खुशियां तो तब ही हो सकती है जब आम आदमी को मज़बूरी के कारण अपना गाव छोड़ कर शहर नहीं जाना पड़े). 

दुआ में बड़ी ताकत हैं दोस्तों. आइये मिल कर दुआ करते हैं. कोई तो हमारी सुनने वाला भी है. 

क्यों जरुरी है जीव जंतुओं पर करुणा ?



पुरे देश में आज ऐसी कंपनियों का जाल बिछ रहा है जो बालकों और युवाओं की चहेती बनती जा रही हैस्वादिष्ट खाना हर कोई खाना चाहता है फिर विदेशी ब्रांड्स के तोभारतीय हमेशा से गुलाम रहे हैंकभी सबवे तो कभी मेक्डी.... युवा वर्ग इन विदेशी कम्पनियों के उत्पादों पर लट्टू हो रहे हैंइन कंपनियों ने सिर्फ फ़ास्ट फ़ूड ही प्रचारितनहीं किया है भारत की संस्कृति को भी तोड़ फोड़ दिया हैवो भारत जहाँ पर हर बालक प्राणी मात्र पर करुणा और जीव दया की दृस्टि रखता था उसी भारत में अब वो बालक आज हर जीवन कोएक उपभोग की वस्तु के रूप में देखने लगा हैनॉन वेज फ़ूड लोकप्रिय हो रहा हैकरोड़ों लोग इसी प्रकार नॉन-वेज खाने लगेंगे तोजंगल के जंगल साफ़ हो जाएंगे और अन्य  जीवों का अस्तित्व समाप्त हो जाएगाकिसान की मेहनत से तैयार अनाज पड़ा सड़ेगा और इंसान हैवान बन जाएगाबड़ीबड़ी होटलों में नॉन-वेज खाने को तैयार करने के लिए जंगल से निरीह पशुओं (सिर्फ शाकाहारी पशुओें जैसे को ही खाया जाता हैको पकड़ के लाया जाता हैवो पशु अबसिर्फ गिने चुने हैंउन पशुओं की संख्या कम होते ही जंगल में रहने वाले माँसाहारी पशुओं को उनका भोजन नहीं मिलता हैवो हिंसक हो कर शहरों की तरफ आते हैं औरआदमखोर बन जाते हैंइस प्रकार से हम पुरे जीवन चक्र के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं.
बड़ी बड़ी होटलों और बहु राष्ट्रीय कंपनियों में होड़ मची है की अधिक से तरह के पशु पक्षियों को खाद्य पदार्ध के रूप में प्रस्तुत किया जाएजहाँ कहीं भी सुन्दर निरीहपक्षी दिखाई देते हैं वहां बटोही उनका शिकार करने लग जाते हैं और क्यों  करें-  उनको होटल व् रेस्टोरेंट के मालिक इस काम केलिए अच्छी धन राशि देते हैंआजसाइबेरियन सारसगुलाबी मुह वाली बतखफ्लोरिकोंसेंडपाइपरक्वेलजैसे पक्षी तो लुप्त हो गए /रहे  हैं और हर दिन कोई  कोई प्रजाति लुप्त हो रही है.

बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपने शानदार मार्केटिंग और प्रचार तंत्र की मदद से हर युवा का ध्यान खींच लेती हैंउनकी प्रभावी मार्केटिंग किसी भी युवा को दिग्भ्रमित करसकती हैवे हर युवा को मांसाहारी बना कर छोड़ेंगेअब प्रश्न है की आप जैसे पर्यावरण प्रेमी के लिए ये एक चुनौती है की क्या करेंगे आप सरकार से कुछ उम्मीदरखिये  बड़बोले  नेताओं से और  ही विदेशी दान दाताओं से .... किसी को इस मुद्दे की परवाह नहीं हैफिर क्या होगा समाधान ?  विद्यार्थियों में करुणा के संस्कारफैलाने पड़ेंगेपहले दादा दादी व् बुजुर्ग बच्चों में अन्य प्राणियों के लिए करुणा के संस्कार फैलाते थेसुबह सुबह गाय को गो=ग्रास खिलाते थे और बच्चों को गाय के हाथफेरने के लिए कहते थेअबतो विद्यार्थी जीवन से ही प्रतिस्पर्धा जीवन का मकसद बन गया है.

मेरे विचारों को किसी धर्म के दायरे में  रखेंये प्रश्न आप हम सब की सांझी संस्कृति और विरासत का हैजब सब पशु- पक्षी लुप्त हो जाएंगे तो कौन जीवन काउल्लास देख पायेगाप्रश्न है की जिस जीवन के उल्लास का हम आनंद ले रहे हैं उस को बढ़ने और पल्लवित करने की जिम्मेदारी भी हमारी ही हैआईये आप और हममिल कर छोटे छोटे प्रयास शुरू करेंदेर कर देंगे तो आप पाएंगे की आपके बच्चे ही घर में मांसाहार अपना रहे हैं और फिर एक दिन  आप के घर में रहने वाली चिड़िया -मैना भी सुरक्षित नहीं रहेगी - कब उनका काल  जाएआईये आप हम मिल कर छोटे छोटे प्रयास शुरू करेंशिक्षण संस्थाओं को अनुरोध करें की वो हमारी मदद करें.आज जरुरत है की हर शिक्षण संस्थान में पशु पक्षियों के प्रति करुणा के संस्कार पैदा करने और शाकाहारी भोजन को बढ़ावा देने के लिए प्रयास होने चाहिएशाकाहारीव्यंजनों को बनाने का प्रशिक्षण होना चाहिए और उन कंपनियों (व् उन शिक्षण संस्थाओं का भी जो मांसाहार को बढ़ावा दे रहीं हैंका बहिष्कार होना चाहिए जो मांसाहारीभोजन को प्रचारित कर रही हैं.

संरक्षण की बात जोहती अद्भुत कलाएं




क्या आप को पता है की भारत में अद्भुत कलाकार हैं जिनकी कला को कद्रदान की जरुरत है. ऐसे ऐसे कलाकार की उनकी कला के आधार पर पूरी दुनिया में भारत की अलग छाप बन सकती है और पूरी दुनिया को भारत की कलाकृतियों का एक्सपोर्ट शुरू हो सकता है. यानी रोजगार सृजन, क्षमता वृद्धि और आयोपार्जन का अद्भुत संगम. पर उन अद्भुत कलाकृतियों को जरुरत है संरक्षण की. संकीर्ण राजनीति से ऊपर उठ कर उन कलाकारों को सम्बल प्रदान करने की जरुरत है. 

जहाँ जहा पर भी कलाकार संगठित हो कर अपने आपको एक संगठन में पिरोकर काम करने में सफल हुए और जीआई लेने में कामयाब हुए वहां वहां पर आर्थिक प्रगति शुरू हो गयी. मोरादाबाद में मेटल कला, कल्लू में शाल, सहारनपुर में लकड़ी की कला और इस प्रकार की तमाम कलाकृतियों से जुड़े लोगों की तरक्की की कहानी इसी प्रकार शुरू हुई. भागलपुर साड़ी, फर्रुखाबाद, लखनऊ, चेट्टीनाद, पाटन आदि छोटे छोटे शहर भी अपनी अद्भुत कला के कारण पूरी दुनिया में अपनी अलग पहचान बनाने में सफल हुए. आज वहां के कलाकार सफलता की कहानियां है. लेकिन उनकी सफलता इसलिए संभव हुई क्योंकि उनको कोई सहारा देने वाला था और उनको संगठित कर के उनको जीआई के रूप में रजिस्टर्ड करवा कर के मदद करने वाला था. जरुरत है की कोई बीकानेर और इस प्रकार के शहरों के कलाकारों की आवाज को सहारा देवे और उनको उस मुकाम पर ले जाए जिसके वो हकदार हैं. 

चित्तौड़गढ़ की ठेवा कला के बारे में आप ने सुना होगा. जब से ये कला जीआई के तहत रजिस्टर्ड हुई है इसकी कीमत बहुत बढ़ गयी है. सिर्फ ३-४ परिवार इस कला को जानते हैं लेकिन आज इस कला के कद्रदान पूरी दुनिया में है. लुप्त होती इस कला को इसका कद्रदान मिल गया है. काश अन्य कलाकारों को भी उनका कद्रदान मिल जाए. 

कश्मीर पश्मीना के बारे में आपने सुना होगा. आज कश्मीर पश्मीना को सबसे महंगे उत्पाद में माना जाता है और पूरी दुनिया में उनकी मांग है. कलाकारों को उनका उचित दाम मिल रहा है. चंदेरी, मैसूर, पोचमपल्ली, तंजावुर, कोटा, बनारस आदि वो स्थान हैं जिनकी अलग पहचान बन गयी है यहाँ पर बानी साड़ियों और वस्त्र परिधान के कारण. वर्षों की परम्परा को आज पूरी दुनिया सलाम कर रही है. इन साड़ियों को बनाने वाले कलाकार आज रोजगार पा रहे हैं और इज्जत भी. पूरी दुनिया उनके हुनर को सलाम कर रही है. 
भारत में सिर्फ २१८ ही जीआई रजिस्टर्ड है जबकि यहाँ तो हर शहर में कलाकार हैं और कलाकारों की कला को सलाम करने की जरुरत है. प्रश्न हैं की खुर्जा पॉटरी, आगरा पेठा और मथुरा के पेड़े जीआई ले सकते हैं तो सरदारशहर की फीणी, बीकानेर की उस्ता कला, बीकानेर की मिनिएचर पेंटिंग कला, और बीकानेर की भजन मंडलियों को भी जीआई मिलनी चाहिए. प्रश्न है की ऐसा क्यों नहीं हो सकता है. यहाँ जरुरत है की किसी एम पी या एम एल ऐ को अपने फण्ड से एक शुरुआत करवानी चाहिए ताकि इन अद्भुत कलाकारों को उनका हक मिले. इसके लिए जरुरत है की उस कला से जुड़े लोग एक संगठन बना कर सरकार पर दबाव डाले और जीआई रजिस्ट्रार को  अपना आवेदन प्रस्तुत करें. एक बार जीआई मिलने के बाद कीमत में इजाफा हो जाएगा और पूरी दुनिया में खरीददार मिल जाएंगे. इस प्रकार उन कलाकारों को ज्यादा मेहनताना मिल पायेगा यानी उनको अपनी मेहनत का फायदा मिल सकेगा. 

एक समय आएगा जब हमें अपनी अगली पीढ़ी को कहानियों में बताना पड़ेगा की एक समय बीकानेर में बेहतरीन उस्ता कलाकार हुआ करते थे. एक समय में यहाँ पर शंख बजने की कला जानने वाले लोग हुआ करते थे. एक समय यहाँ पर बेहतरीन चित्रकार हुआ करते थे. इससे पहले की सब कुछ हम से छीन जाए - समय निकालिये - खुद भी अधम्बित होइए और अगली पीढ़ी को भी इन लुप्त होती कलाओं से रूबरू करिये. कभी फुर्सत निकालिये और बीकानेर के उस्ता कलाकारों की कला को देखिये और आप देखते रह जाएंगे. कभी महावीर स्वामी की चित्रकारी को देखिये, कभी बारह बॉस में रात्रि के समय में भजन मंडलियों को भजन करते देखिये और आप अवाक रह जाएंगे. कभी ये सोचिये की इस अद्भुत पीढ़ी के बाद ये कला किस के पास रहेगी? इनकी अगली पीढ़ी ये कला क्यों अपनाएगी? क्यों सरकार इन कलाकारों की अनदेखी कर रही है.  कभी ये सोचिये की इन कलाकारों को इनकी अद्भुत कला का कद्रदान क्यों नहीं मिला? इनकी कला अगर पूरी दुनिया में फैलाई जाए तो बीकानेर में विदेशी मुद्रा की बरसात होने लग जायेगी. लेकिन इस केलिए कोई सोचता क्यों नहीं है? 

खुशिओं का अर्थशास्त्र


तथाकथित अर्थशास्त्री (जो कि पश्चिमी ज्ञान से लवरेज हैंहमेशा दिवा स्वप्न दिखाते रहेंगे और आप को ये दिलाशा देते रहेंगे की भारत एक महाशक्ति बन कर उभरेगाक्योंकि भारत की जीडीपी दुनिया में जल्द ही दूसरे नंबर पर  जायेगीयह एक ग़लतफ़हमी है की जीडीपी बढ़ने से देश में लोगों को अधिक खुशियां मिलती हैयह एकअफ़सोस है की देश के नीति निर्माता इस ग़लतफ़हमी के साथ अपनी नीतियां बनाते हैं कि देश की तरक्की तभी होगी जब जीडीपी बढ़ेगीमेरी बात को सिर्फ भारतीयसोच रखने वाले लोग ही समझ पाएंगे - क्योंकि अमेरिका में अर्थशास्त्र पढ़ा व्यक्ति तो जीडीपी बढ़ाने की ही रट लगाता रहेगाअतः मेरी ये बात नीति निर्माताओं कोहजम नहीं होगीलेकिन इस लेख को पढ़ने वाले लोग मेरी बात को समझ पाएंगे इसी लिए में ये लेख लिख रहा हूँचूँकि आप मेरी बात समझ सकते हैं अतः मैं आपजैसेलोगों से ही गुजारिश करूंगा.
इस जीडीपी बढ़ाने के लालच ने देश के नीति निर्माताओं का क्या हाल किया हैपूछिए आम व्यक्ति से और आपको खुद ही जवाब मिल जाएंगेएक व्यक्ति मुझसेकहता है की जब सिगरेट ख़राब हैतम्बाखू ख़राब है तो सरकार उसको बिकने क्यों देती है - फिर वो ही बोलने लगा - सरकार भी अपनी आय की तरफ देख रही है -उसको भी अपनी आम्दानी की चिंता है.
जीडीपी बढ़ाने के लिए हर कोई प्रयास कर रहा हैकोई खेतों में फ़र्टिलाइज़र का उपयोग बढ़ा रहा है तो कोई गायों को केमिकल दे रहा है कोई फैक्ट्रियों को तीन शिफ्ट मेंचला रहा हैकुल मिला कर हर तरफ उत्पादन बढ़ाने पर जोर हैलोगों को जरुरत किस चीज की है इसकी परवाह नहीं है - उत्पादन बढ़ना चाहिएसरकार खुद मिल करउत्पादनउपभोग और विज्ञापन की संस्कृति को बढ़ावा दे रही है ताकि जीडीपी बढेउत्पाद होइ भी हो - बस उससे जीडीपी बढ़नी चाहिए - जितना महंगा उत्पाद होगाउतना ही अच्छा हैजितना बड़ा प्रोजेक्ट होगा उतना ही अच्छा हैजितना ज्यादा उपभोग होगा उतना ही ज्यादा अच्छा है - क्योंकि जीडीपी बढ़ेगीप्रश्न है की इस तरहजीडीपी बढ़ाने से क्या नतीजा निकलता है - पूरी दुनिया में भारत का नाम हो जाएगा की ये दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हैपर क्या इससे लोगों को खुशियांमिलेगी - शायद कभी नहींजीडीपी वाले अर्थशास्त्रियों को फिजूलखर्ची लोग बहुत पसंद हैं क्योंकि वो जीडीपी को बढ़ा रहे हैंइन लोगों को सरकारी सब्सिडीसरकारी तामजहां भी बहुत पसंद है क्योंकि वे जीडीपी बढ़ा देते हैं.
बड़ा उद्योग लगाएं -सरकार से सब्सिडी पाएंघरेलु उद्योग चलाएं सरकार से फटकार खाएंमेगा प्रोजेक्ट लाएं सरकार से सहायता पाएंछोटे प्रोजेक्ट्स चलाएं औरइंस्पेकटर राज से दुखी हो जाएँअगर आप करोड़ों के प्रोजेक्ट लगा सकते हों तो सरकारें आप के आगे पीछे घूमेगीसिंगल विंडो से इजाजत मिलेगीअगर आप अपनाठेला चलाना चाहते हों तो पुलिस इंस्पेक्टर भी आपको नहीं बख्शेगाआज सरकार हर महँगी वस्तु के उपभोग को बढ़ावा देने में लगी है ताकि देश की जीडीपी बढेभारतकी वर्षों पुरानी वस्तु विनिमय व्यवस्था को आज कोई बढ़ावा देने वाला नहीं है क्योंकि उससे जीडीपी की बढ़ोतरी की कोई उम्मीद नहीं नजर आतीभारत में वर्षों से चली रही ठेला व्यवस्था और परचून की दूकान खतरे में हैं क्योंकि सरकारी अधिकारी नहीं चाहते की ये चल पायेउनको तो बड़े बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर और मॉल्स चाहिएजो खूब टैक्स दे सकें और जीडीपी बढ़ा सकें.
क्या है खुशियों का अर्थशास्त्र?
गांधी जी ने जिस ग्राम  स्वराज्य की कल्पना की थी या महाप्रज्ञ जी ने जिस रिलेटिव इकोनॉमिक्स की बात की थी या चाणक्य ने जिस अर्थव्यवस्था की बात की थी -उसका आज कही भी कोई नामो निशान तक नहीं नजर आता है क्योंकि हर सरकार जीडीपी बढ़ा कर विश्व मंच पर अपनी वाह वाही लूटना चाहती हैपरन्तु जनताखुशियां चाहती हैखुशियों को बढ़ावा देने के लिए एक ऐसी व्यवस्था चाहिए जहाँ पर लोगों को सहज होकर जीने का मौका मिले और अपना पन और सम्मानमिलेकुटीरउद्योगकृषिघरेलु धंधेछोटे छोटे सूक्ष्म उद्योगों को प्रोत्साहन मिले तब खुशियों का अर्थशास्त्र शुरू होगाफिर से लोगों को इंस्पेकटर राज से मुक्त करवाने के लिएपहल करनी पड़ेगीफिर से लोगों को अपनी जड़ों से जोड़ने के लिए पहल करनी पड़ेगी.
आम जन में आपसी प्रेममृदुतामधुर व्यवहारआपसी मेलजोल को बढ़ावा देने के लिए एक अलग आर्थिक सोच चाहिएजो अर्थशास्त्री सिर्फ बहुराष्ट्रीय पूंजीपतियों केहितों के रखवाले होंजो सरकारें सिर्फ विदेशी कम्पनियों के लिए देश के द्वार खोल कर दुनिया में वाहवाही लूटना चाहती हों उनसे खुशियों के  अर्थशास्त्र की उम्मीदरखना गलत हैउसके लिए आप हम जैसे आम लोगों को फिर से पहल कर के देश को एक जड़ों से जुड़ी हुई सोच देनी पड़ेगी और जिस दिन हमारी समझ सरकार जमझपाएगी उस दिन निश्चित रूप से सरकार अपने अधिकाँश नौकरशाहों को सेवामुक्त कर देगी.
भारत की अद्भुत संस्कृति के पीछे विविधता भरी संस्कृति रही है जिसमे जहाँ जो साधन मिल गए उन का उपयोग कर के लोगों की सामर्थ्य के अनुसार विकास के साधनशुरू किये गएहर जगह पर आम आदमी को पूरी स्वतंत्रता मिलीकृषिव्यापारउद्योगऔर कला को सरकारी सम्मान और संरक्षण मिला तो ठीक नहीं मिला तो भीकोई बात नहीं पर इंस्पेकटर राज का सामना नहीं करना पड़ाजब जब सरकारें शोषण करती थी तब तब कोई आवाज उड़ाता था कोई कहता "चौथ वसूली नहीं चलेगीतोकोई कहता "नमक पर टैक्स नहीं देंगे". हर समय जब आम आदमी की खुशियां संकट में थी तब कोई  कोई रखवाला जरूर आयादेखते हैं आज कौन आगे आता है?
सरकार को ये बात समझ लेनी चाहिए की लोगों को सरकार से मिलने वाली खैरातसब्सिडीऔर चंद टुकड़े खुशियां नहीं दे सकते हैंलेकिन जिस दिन लोग अपनीमेहनत की कमाई से दो जून की कमाई कर के अपने व् अपने परिवार का पेट भर के परिवार के साथ परिश्रम से खुद अपनी रोटियां कमाएगा उसको जरूर खुशियांमिलेगीलोगों का जज्बा और जुझारूपन सरकार की जीडीपी में नहीं आता है लेकिन देश की असली अर्थव्यवस्था तो वो ही है  की कितने रूपये किस किस ने उड़ाए(चाहे वो फिजूलखर्ची ही क्यों  हो).
आइये फिर से वस्तु विनिमय व्यवस्था को नमन करेंआइये मिल कर उन उत्पादों का बहिस्कार करें जो लोगों की जिंदगी ख़राब करने के लिए बनाए जाते हैंआइयेमिल कर  एक नयी अर्थव्यवस्था की शुरुआत करें जहाँ पर इंसानी रिश्तोंआपसी मेलजोलभाईचारेऔर हिलने मिलने को प्रोत्साहन होआइये लोगों को छोटे छोटे औरसूक्ष्म उद्योग लगने को प्रेरित करें.  आइए फिर से लोगों को आपस में हंस मिल कर एक दूसरे की मदद करने के लिए प्रेरित करें (भले ही इनसे जीडीपी को नुक्सान हो).उपभोग नहीं उल्लासउमंग और अध्यात्म को समर्पित हो हमारे हर प्रयासआइए खुशियों की अर्थव्यवस्था की शुरुआत करें.