Thursday, August 31, 2017
Wednesday, August 30, 2017
Tuesday, August 29, 2017
सपने सुहाने मेरे मुल्क के
(नए भारत को जरुरत है नए संगठन व् नयी व्यवस्था की)
एक समय था जब इस देश में कुछ अंग्रेज लोगों के हितों के लिए ही सारे निर्णय लिए जाते थे और बाकी जनता को नजरअंदाज किया जाता था. गरीबों की कमाई से विदेशी लोग गुलछर्री उड़ाते थे और मजबूर भारतियों को रौंदा जाता था. तभी लोग सपने देखने लगे - एक ऐसे देश की जो हर भारतीय के लिए सोचे - जहाँ पर ऐसी नीतियां हो जो इस देश की भलाई के लिए हो न की विदेशों के हितों के लिए. क्या ये वही देश है जिसके लिए अनगिनत देशप्रेमियों ने अपनी जिंदगी न्योछावर कर दी थी? क्या ये वो ही देश है जहाँ पर हर देश वासी को सम्मान मिलता है और देश की विरासत को गर्व से देखा जाता है?
संगठन की व्यवस्थाएं और प्रारूप तय करते हैं भविष्य. जब राजतंत्र था तब लोग लोकतंत्र के सपने देखते थे - और उन सपनों का आज फायदा मिल रहा है की हम लोकतंत्र में जी रहे हैं. लेकिन आप सपने देखना मत छोड़िये. आज सपने देखिये भविष्य के लिए बेहतर संगठन व्यवस्थाओं की - संगठन की ताकत ही हमारे विकास की चाबी है. मुझे नजर आ रहे हैं आपकी आँखों में कुछ टिमटिमाते से सपने - जो फिर से इस मुल्क को जन्नत में तब्दील कर देंगे.
बांग्लादेश में मोहम्मद यूनुस ने सपने देखे और गरीब लोगों को संगठित कर "स्वयं सहायता समूह" और "सूक्ष्म वित्त" की शुरुआत की जिसने वहां के ७६ लाख से ज्यादा लोगों की मदद की और २ लाख से ज्यादा भिखारियों को रोजगार और स्वरोजगार प्रदान किया. कमाल का काम किया उन्होंने. भारत में इलाबेन भट्ट ने सेवा नामक संस्था शुरू की जिसमे महिलाओं ने संगठित हो कर दुनिया के सामने एक बेमिसाल संगठन स्थापित किया - जिससे ५ लाख से ज्यादा महिलायें लाभान्वित हुई. महिलाओं की आवाज उठाने के लिए इलाबेन पाठक ने "आवाज" नामक संस्था बनाई और उस संस्था ने हजारों महिलाओं को आवाज दी. संगठन का एक अद्भुत स्वरुप सामने आया.
बांग्लादेश में श्री मोहम्मद यूनुस ने ग्रामीण बैंक की शुरुआत की जहाँ पर गरीबों को आसानी से ऋण प्रदान किया जाता है. गरीब लोग छोटे छोटे ऋण के द्वारा अपने हुनर पर आधारित कार्य शुरू करते हैं और जैसे जैसे कमाते जाते हैं वैसे वैसे लौटते जाते हैं. हर महीने १००-२०० रूपये जमा करते जाते हैं और इस प्रकार छोटी छोटी बचत से एक दिन स्वावलम्बी बन जाते हैं. ये ही है असली विकास का मॉडल. बैंक ऋण देते समय न बॅलन्स शीट मांगती है न चार्टर्ड अकाउंटेंट का सर्टिफिकेट, न दुनिया भर के हस्ताक्षर करवाती है. गरीब लोगों का समूह मिल कर एक दूसरे की मदद करता है और अपने समूह को बैंक से जोड़ लेता है और बैंक लोगों को उनके हुनर के लिए जरुरी ऋण देती जाती है. लोगों को उनकी व्यक्तिगत जरूरतों के लिए भी ऋण दिया जाता है. ब्याजदर बहुत काम होती है और लोगों को अपनी बचत के अनुसार भुगतान करने की छूट होती है.
आज भी हमारे पास ७० साल की स्व-व्यवस्था में ऐसे संगठन के प्रारूप और उनके लिए व्यवस्था बनाने के लिए समय नहीं निकल पाया है. पश्चिमी देशों से देखा- देखि कम्पनी, सोसाइटी व् कुछ इस प्रकार के प्रारूप ही हमारे पास हैं. हमने अपने देश के लोगों की जरूरतों के अनुसार नए प्रारूप नहीं ईजाद किये हैं. इन संगठनों के लिए जिन सरकारी कार्यालओं को जिम्मेदारी दी गयी है वो स्वयं "नौकरशाही" नामक बिमारी से ग्रसित है. धन्यवाद देना चाहिए वर्तमान प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी का जिन्होंने कहा है की सिर्फ २ दिन में कम्पनी बनायीं जा सकेगी. अन्यथा सरकारी रजिस्ट्रार और इस प्रकार के अन्य अधिकारी तो इन प्रक्रियाओं को इतना धीमा और मुश्किल करने पर तुले थे की हमारी सारी उद्यमिता यहीं पर रुक जाती थी.
देश में ४० करोड़ लोग गरीबी की मार झेल रहे हैं. ये वो लोग हैं जो हुनर रखते हैं, दक्ष है, अपना काम कर सकते हैं और करना भी चाहते हैं लेकिन साधनों की कमी के कारण अपनी क्षमता से कम कमा पाते हैं और जितना काम करना चाहते हैं उसका आधा ही कर पाते हैं. जरुरत है आज इन लोगों को आसान और कम ब्याज पर ऋण प्रदान करने की व्यवस्था का . बांग्लादेश के श्री मोहम्मद यूनुस ने जो व्यवस्था शुरू की उसमे सभी लोग अपना ऋण चूका देते हैं. उस व्यवस्था में गरीब और अंगूठा छाप व्यक्ति भी आसानी से ऋण प्राप्त कर सकता है और लोग संगठित को कर प्रयास करते हैं. उस तरह की कुछ व्यवस्थाएं हमारी सरकार को भी शुरू करनी चाहिए. निजी क्षेत्र में हालांकि "सूक्ष्म बैंकिंग" की शुरुआत हुई है लेकिन लाभ कमाने की मानसिकता के कारण निजी क्षेत्र ज्यादा मदद नहीं कर पायेगा. इस क्षेत्र में सरकारी बैंकों और सरकार को ही पहल करनी पड़ेगी. हमारे देश में सरकारी बैंकों का ही वर्चस्व है. लोगों को उन्ही पर विश्वास है और वे ही सरकारी उद्देश्यों के लिए "घाटा उठा कर भी" काम कर सकते हैं. तो फिर क्यों नहीं होती कोई ठोस शुरुआत. लोगों को दान की जरुरत नहीं है लोग अपने आप अपना भविष्य लिख सकते हैं अगर उनको आसान ऋण और आसान व्यवस्था मिले.
क्या आप जानते हैं की हमारे देश में सालाना ५ लाख करोड़ के ऋण डूब जाते हैं. ये ऋण बड़े और सक्षम उद्योगों को दिए जाते हैं और छोटे श्रमिकों और कारीगरों को नहीं दिए जाते हैं. जिनको ९००० करोड़ के ऋण दिए वो तो देश छोड़ के चले गए. लेकिन जो लोग अधिक परिश्रम करते हैं, काबिल हैं, हुनरबक्ष हैं, और अपने परिश्रम से अपना भाग्य लिख रहे हैं उनको ऋण नहीं दिए जाते हैं. इन व्यवस्थाओं में बदलाव की जरुरत है. कम से कम इस मामले में तो हमें बांग्लादेश के ग्रामीण बैंक से सीख लेनी चाहिए.
देश की २० करोड़ गरीब कारीगरों को ५०००० का ऋण भी दिया जाता है तो ये राशि बैंकों द्वारा वर्तमान में बांटे जाने वाले ऋण की राशि का बहुत छोटा हिस्सा होगा. जिन धनाढ्य लोगों को बैंकें ऋण बाँट रहीं है उनका पता नहीं परन्तु ये २० करोड़ लोग अपने ऋण का भुगतान अवश्य करेंगे. सबसे बड़ी बात की ये २० करोड़ लोग सफल हो जाएंगे और गरीबी रेखा के ऊपर उठ जाएंगे. अगर सरकार गरीबी की वाकई में मिटाना चाहती है (या सिर्फ गरीबी हटावो का नारा लगाना चाहती है) तो उसको इस दिशा में सोचना पड़ेगा.
देश के पिछड़े और गरीब क्षेत्रों में बढ़ रहे असंतोष के कारण को समझना पड़ेगा. जिस देश की रीढ़ की हड्डी ही किसान है और जहां पर हर रोज २१ किसान आत्महत्या कर रहे हों उस देश को किसाओं और पशुपालकों को ध्यान में रख के ही नीतियां बनानी चाहिए. आज ये लोग बैंकों के चक्कर लगा लगा कर थक जाते हैं - आप के साथ मैं भी सपने देखता हूँ ऐसे भारत की जहा पर ऐसी व्यवस्थाएं हो की इनको अपनी जरूरत का ऋण आसान किस्तों पर और कम ब्याज पर घर बैठे मिले और ये अपना पूरा ध्यान सिर्फ अपने काम पर लगा सकें. मैं सपने देखता हूँ उस भारत का जहाँ पर हर भारतीय हुनर सीखे और अपने हुनर के बल पर अपने ही गांव में आत्मविश्वास से जीवन बिताये (न की झूठे आश्वासनों और सपनों से गुमराह हो और अपने गाँव से उजाड़ जाए). मैं सपने देखता हूँ एक ऐसे भारत का जहाँ पर लोगों को भारतीय संस्कृति पर इतना गर्व हो की फिर से पूरी दुनिया के लोग भारत की संस्कृति को सीखने और समझने के लिए भारत आना शुरू कर देवें. ये सपने हमें सोने नहीं देंगे और अगर हम ये सपने नहीं देखेंगे तो खो जाएंगे.
कहाँ ढूंढूं मेरे बाग़ का माली?
सहनशील और संतोषी बीकानेर में भी आज कल लोग झगड़ पड़ते हैं. कभी हंसी-ख़ुशी
की पर्याय मानी जाने वाली गलियों में आज कल सन्नाटा है. छोटी - छोटी
बातों पर भी लोग तनाव में आजाते हैं. नए ज़माने (युवाओं के) के तो मानो
"ये खतरा है" का बोर्ड लगा देना चाहिए - क्योंकि पता नहीं उसको कब गुस्सा
आ जाए? क्या हो रहा है? कहाँ गया हमारा अल्हड पन? शहर में तरक्की जो हो
रही है वो कुछ अनचाहे क्षेत्रों में हो रही है - जैसे तलाक बढ़ रहे हैं -
तनाव बढ़ रहा है - तम्बाकू , सिगरेट और शराब का प्रचलन बढ़ रहा है -
मनोरोगी बढ़ रहे हैं. खैर हम तो ये ही सोच के खुश हो जाते हैं की ये शहर
आज भी उन तथाकथित विकसित शहरों से अच्छा है जहाँ रोज कोई न कोई आत्मह्ता
कर रहा है. परन्तु बिना कारण कुछ नहीं होता है? क्या कारण है? आज ये
जरुरी है की हम विकास (या विनाश) की इस राह का अच्छे से चिंतन और
मूल्यांकन करें. विज्ञापन - प्रचार प्रसार - और मीडिया - किसी उद्योग और
किसी व्यवसाय को बढ़ा सकती है लेकिन उसके साथ ही सामाज का भी कायाकल्प कर
देती है - जो जरुरी नहीं की अच्छा ही हो. विज्ञापन और देखा - देखि में हम
कहीं अपने पावों पर कुल्हाड़ी तो नहीं मार रहे हैं? विकास के नाम पर कहीं
हम मीठा जहर तो नहीं पी रहे हैं? प्रश्न पूछिए - विश्लेषण करिये - हम तो
इंसान हैं - भेड़-चाल क्यों चलें? आज हम बात करते हैं की हम बच्चों के
विकास के लिए क्या कर रहे हैं? क्या कारण है की अत्यधिक प्रतिभावान
विद्यार्थी बहुत ही ज्यादा तादाद में तनाव, कुंठा, हताशा, आक्रोश के
शिकार हो जाते हैं? क्या कारण है की उच्च शिक्षा प्राप्त आज के
विद्यार्थी अपने ही बुजुर्गों को वांछित सम्मान नहीं दे पाते हैं?
आज कल एक नया दौर चल रहा है. २-३ साल के बच्चों को "डे
बोर्डिंग" स्कुल में दाखिल करवा दिया जाता है. माता पिता अपने आपको मुक्त
महसूस करते हैं और सोचते हैं उन्होंने अपने कर्तव्य का निर्वाह किया. कई
"प्ले स्कुल" है जो आकर्षक विज्ञापन और प्रचार के जरिये ये साबित करने की
कोशिश करते हैं की वे बच्चों को भविष्य का महान वैज्ञानिक या गणितज्ञ बना
देंगे. आज कल ये प्रचलन भी बढ़ गया है की माता - पिता बच्चों को आवासीय
विद्यालयों को दाखिला करवा देते हैं - और फिर ३-४ साल का अबोध मासूम
अपना पूरा बचपन उस आवासीय विद्यालय में बिताता है. एक और प्रकार के माता
- पिता है - जो अपने घर पर टीवी के आगे अपने बच्चों को छोड़ देते हैं और
बड़े आराम से पुरे समय टीवी का आनंद लेते हैं. इस तरह के कई प्रकार और भी
है - शायद आप अपने आस पास देख कर उन प्रकारों को भी इस सूचि में जोड़ सकते
हैं. बच्चों के विकास में कोई त्रुटि रह जाती है तो उसका खामियाजा अगली
पीढ़ी को भुगतना पड़ता है.
मुझे बड़ा अफ़सोस होता है जब मैं छोटे छोटे बच्चों को गोद में उठाये उनके
माता - पिता को एडमिशन के लिए स्कूलों के धक्के खाते देखता हूँ. वे ये
मान लेते हैं की फलां स्कुल में मेरे बच्चों का एडमिशन नहीं हुआ तो उनका
तो भविष्य ही बर्बाद हो जाएगा. मुझे बड़ा अफ़सोस होता है ये देख कर की
दुनिया की सबसे अच्छी प्रशिक्षिका अपने जिगर के टुकड़े को प्रशिक्षित करने
की जिम्मेदारी से मुक्त हो किसी स्कुल को ये जिम्मेदारी देना चाहती है. ३
साल के अबोध लाडलों को मन मार कर स्कुल भेजा जाता है और बुजुर्गों / बड़े
लोगों से दूर रखा जाता है ताकि बच्चों का उच्चारण खराब न हो. क्या लगता
है आपको ऐसी सोच पर? बच्चो के विकास में सबसे ज्यादा जरुरी क्या है?
इंसान अपने जीवन के पहले सात वर्षों में मूल संस्कार ग्रहण करता है. उसकी
अपने बारे में, अपने आसपास के बारे में धारणा बनती है और आदतें बनने लग
जाती है. पहले सात वर्षों में हम जिस प्रकार की बात कहेंगे - वो पूरी
जिंदगी हमारी चेतना में रहेगी - और हमारी जिंदगी भर की तरक्की उन सात
वर्षों पर निर्भर है. हमें याद रहे या न रहे - ये बातें जो हम सात वर्ष
तक सुनते हैं - हमारे हर निर्णय का आधार होती है. हमारा विकास इस बात पर
निर्भर है की हमें हमारे बचपन मैं कैसे विचार, कैसा प्रोत्साहन, और कैसा
दुलार मिला है? बच्चों में चेतना के विकास में माता - पिता और बड़ों का
प्यार भरा स्पर्श बहुत महत्त्व रखता है. आज तो विज्ञान भी इस बात को मान
रहा है की भारतीय व्यवस्था जिसमे बच्चों को सर पर हाथ फेर कर आशीर्वाद
दिया जाता है - वाकई बहुत असरदार है. परम्परागत भारतीय परिवारों में
बच्चे बड़ों को प्रणाम करते हैं और बदले में बड़े उनके सर पर हाथ फेर कर
आशीर्वाद देते हैं. एक छोटे बच्चे को दिन में कम से कम ३० बार प्यार भरा
स्पर्श चाहिए ताकि उसकी चेतना का विकास हो. जब बड़े लोग उसके सर पर हाथ
फेरते हैं तो उसकी बौद्धिक चेतना का विकास होता है. जैसे ही छोटे बच्चे
बड़ों को प्रणाम करते हैं - बड़े व्यक्ति उस को आशीर्वाद में कुछ न कुछ
जरूर कहते हैं - "जैसे खूब तरक्की करो" आदि. ये शब्द बहुत असरदार होते
हैं. बच्चे दिन भर में कम से कम ३०-४० इस प्रकार के वाक्य सुन लेते हैं
जो उनकी अन्तः चेतना में जाते हैं और पूरी जिंदगी उनकी तरक्की में योगदान
देते हैं. शुरू के सात वर्षों तक बच्चों को नकारात्मक वाक्यों और
नकारात्मक माहौल से दूर रखने की जरुरत है ताकि उसके अंदर एक सकारात्मक
दृश्टिकोण का विकास हो और उसके अन्तः मन में सकारात्मकता भर जाए.
मेरे मित्र प्रोफ़ेसर भारत भूषण वर्मा मलेशिया में रहते हैं. अपने बच्चों
को उन्होंने अभी तक किसी भी स्कुल में दाखिला नहीं दिलाया है. वो दोनों
अपने बच्चों को खुद पढ़ाते हैं - और ये कहूंगा की बच्चों को उनकी रूचि के
अनुसार कार्य करने देते हैं और पूरा मार्गदर्शन देते हैं. उनका ७ वर्षीय
लड़का पाइथन प्रोग्रामिंग का शौक रखता है और वो पाइथन प्रोग्रामिंग के
इंजीनियरिंग के प्रथम वर्ष के विद्यार्थी से अच्छी प्रोग्रामिंग कर सकता
है. प्रोफ़ेसर वर्मा हर सप्ताह २ दिन पूरी तरह से बच्चों के विकास के लिए
समर्पित करते हैं और उनकी पत्नी तो पूरी तरह से बच्चों पर ही अपना सारा
समय लगाती है. वे बच्चों को हर कर्म शौक से करने के लिए प्रेरित करते हैं
और बच्चों के साथ हर पल आनंद से बिताते हैं. बच्चों के साथ तैराकी में
उनको बड़ा आनंद आता है.उनकी छोटी बेटी को नृत्य का शौक है. उन्होंने एक
नृत्य प्रशिक्षक से अनुरोध किया और रोज अपनी बेटी को उसके पास एक घंटे के
लिए ले जाते हैं. उनकी ५ वर्षीय बेटी कत्थक नृत्यांगना है और उसके साथ वे
भी तल्लीन हो कर कत्थक नृत्य का आनंद लेते हैं. वे हर महीने बच्चों को
किसी नयी जगह पर ले जाते हैं जहाँ पर बच्चों के साथ वे भी ज्ञान हासिल
करते हैं और हर पल का आनंद लेते हैं. उनके बच्चों ने शेर - भालू को पहली
बार किताबों में नहीं देखा बल्कि जंगल में आँखों के सामने देखा. उनके
बच्चे अक्षर ज्ञान को रटते नहीं हैं बल्कि उसको आनंद के साथ जीते हैं.
अभी उनके बच्चे रोज १ घंटे का समय चीनी लोगों के साथ बिताते हैं और इस
प्रकार उनको चीन की भाषा का ज्ञान हो रहा है. प्रोफ़ेसर वर्मा बच्चों के
शौक के अनुसार पुस्तकें लाते हैं और उन पुस्तकों को वे बड़े शौक से बच्चों
के साथ पढ़ते हैं और खुद भी ज्ञान अर्जित करते हैं. प्रोफ़ेसर वर्मा के
बच्चों की आदतें और उनके संस्कार देख कर हम अचंभित तो हो सकते हैं लेकिन
इससे हम क्या सीख लेते हैं ये महत्वपूर्ण है.
आज ये वक्त आ गया है की हम अपने आप से पूछें की बच्चों को प्यार भरा
स्पर्श कितनी बार किया? अपना ध्यान टीवी या मोबाइल से हटा कर के बच्चों
की तरफ करने से हमें जो आनंद आएगा वो अकल्पनीय होगा - इससे भी ज्यादा
महत्वपूर्ण ये बात है की बच्चों के अन्तः मन में हमारे प्रति इतना प्यार
और आदर होगा की हमारा बुढ़ापा उनके कन्धों के सहारे आराम से कट जाएगा. आज
से ही घर - परिवार में इस प्रकार से रहना शुरू करना है की बच्चों को दिन
भर में कम से कम ३० लोगों से आशीर्वाद मिले और वो भी इतने प्यार से की
बच्चों का रोम रोम आत्मविश्वास से भर जाए. अगर ७ साल तक हम बच्चों के
अंदर आत्मविश्वास और सुकृत्य का दृढ़संकल्प कूट कूट कर भर देंगे तो दुनिया
की कोई ताकत उनको डिगा नहीं पाएगी. एक जीवंत उदाहरण देना चाहूंगा. श्री
जगदीश भाई पटेल अंधे और लकवा ग्रस्त थे. उनका बचपन अपनी मा की छत्र छाया
में ही बीता. अपनी असहाय अवस्था में वे व्याकुल हो कर माँ से पूछते थे -
मैं क्या करूँगा इस दुनिया में जिसमे न तो चल पाता हूँ न ही देख पाता हूँ
- उनकी माँ उनको आत्मविश्वास से भर देती थी. वो कहती थी की जब तुम बड़े
होवोगे तो बहुत बड़ा काम करोगे - ये विश्वास रखो. वक्त गुजरता गया.विकलांग
होने के बावजूद श्री पटेल ने अद्भुत काम किये. उनके असाधारण कार्यों के
कारण उनको पाढ़म श्री और पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया. उनके द्वारा
स्थापित "ब्लाइंड पीपल एसोसिएशन" आज पूरी दुनिया के सामने एक आदर्श
संस्था है जिससे हर वर्ष हजारों विकलांग लोग प्रशिक्षित हो आत्मविश्वास
और दक्षता से भर जाते हैं. आईये श्री पटेल की माँ को सलाम करें जिन्होंने
अपने लाडले को पलकों पर बिठाये रखा और अनगिनत आशीर्वाद दिए.
यकीन मानिये आपके एक एक शब्द में ताकत होती है. सदा सकारात्मक बात करिये
- सदा प्रोत्साहन दीजिये - अपने दुश्मन के बुरे के लिए भी मत सोचिये.
भारतीय दर्शन का तो आधार ही ये ही है "सबका मंगल हो" तो फिर आप क्यों
पीछे रहिये - हर व्यक्ति को मंगल-कारी होने के लिए प्रेरित करिये.
एक बार जोर से कहो - मुट्ठी है तकदीर हमारी...
आज पूरी दुनिया में युवाओं में बढ़ती हिंसा, घृणा, द्वेष, आवेश, आवेग, और हताशा एक चुनौती है. युवाओं में आत्महत्या की प्रवृति बढ़ रही है तो साथ ही उनमे आवेश और उन्माद भी बढ़ रहा है. नशा, जुवा, और चरित्रहीन आचरण बढ़ रहा है. हम खुश है की हमारे पास वो विरासत है जो हमें इन से बचाये हुए है.
क्या कभी आपने अपने आप को असहाय, बेबस, हताश, निराश महसूस किया है? क्या कभी आपने आपने आपको बहुत छोटा और अक्षम व्यक्ति के रूप में महसूस किया है? हम सबके सामने ऐसे क्षण आ जाते हैं जब हम को अपनी जिंदगी के महत्त्व पर संदेह होने लग जाता है. वो समय बड़ा महत्वपूर्ण निर्णय का है. उस समय हम को दृढ शक्ति के साथ अपने आप से पूछना है की किस मकसद से आये हैं जनाब यहाँ? फिर पक्के विश्वास से कहना होगा की इस लक्ष्य को तो हासिल करना ही पड़ेगा - आज नहीं तो कल. जिस क्षण हमें ये लगे की हम अक्षम हैं - उसी क्षण हमें आपने आपसे कहना होगा की हम जो हैं वो अद्भुत है - और हम जो चाहते हैं वो कर के रहेंगे - और इस दुनिया को हमारी क्षमता को सलाम करना ही पड़ेगा.
भारतीय दर्शन और परंपरा में एक बहुत अच्छी बात है की हम जो भी पाते हैं उसको ईश्वर को समर्पित करते हैं और जो खोते हैं उसके लिए भी ईश्वर को जिम्मेदार मानते हैं. हम चाहे जिस धर्म में भी विश्वास करें - इस संसार की अदृश्य शक्तियों को नमन करते हुए अपने आप को उसको समर्पित कर देते हैं और उसको ये ही निवेदन करते हैं की वो हमको सुख, समृद्धि और विवेक प्रदान करे. जो कुछ भी होता है उसके ही नाम लिख देते हैं. चलो कोई तो है जो हमारे भाग्य - दुर्भाग्य के लिए जिम्मेदार है. कोई तो है जिसको हम हमारे सारे कर्म समर्पित कर देते हैं - और स्वयं तनाव मुक्त और अहम् मुक्त रहते हैं
मुझे हाल ही मैं एक मौका मिला प्रतिभाओं को देखने और सुनने का. एक विद्यार्थी मिला. वो गोटन से १८ किलोमीटर दूर एक गांव से आया था. दस साल पहले उसके पिता का एक सड़क दुर्घटना में स्वर्गवास हो गया. उसके पिता एक निजी कम्पनी में ड्राइवर थे. आज घर की जिम्मेदारी वो बालक संभाल रहा है. अपनी पढ़ाई के साथ वो बालक मार्बल तराशने का काम भी करता है और उससे उसको ६००० रूपये महीने की आमदनी होती है. इस काम के बावजूद वो बालक पढ़ाई में अव्वल है और १२ की पढ़ाई में उसने डिस्टिंक्शन हासिल की. जिंदगी की कटु सच्चाई ने उसकी चेतना और जागृति को एक नई ऊंचाई दी. मैंने उसको पूछा की तुम क्या करना चाहते हो - तो उसका जवाब था शिक्षा को फैलाना - क्योंकि इससे गरीब लोग भी तरक्की कर सकते हैं.
बाड़मेर से ७० किलोमीटर दूर के एक गांव जो भारत - पाक सीमा पर है वहां से एक विद्यार्थी से मुलाकात हुई. लालटेन से पढ़ कर उस बालक ने डिस्टिंक्शन हासिल की. जिस गांव में अखबार तक नहीं आता उस गांव का बालक आईएएस बनने के सपने देखे तो सुखद लगता है. मैंने उससे पूछा की तुम आईएएस क्यों बनना चाहते हो - तो उसका जवाब था - अधिकारी बन कर मैं गावों में बिजली पानी और जरुरी दवाइयां जैसी जरुरी चीजें भिजवाऊंगा. मैंने उससे उसका शौक पूछा तो उसका जवाब था "पढ़ाना और पढ़ने के लिए प्रेरित करना" मैंने पूछा की तुमने क्या किया - तो उसने कहा की अपने गांव में नन्हे बच्चों को पढ़ने के लिए प्रेरित किया और उसके कहने से ४-५ बच्चों ने पढ़ाई शुरू कर दी.
डूंगरपुर के एक बालक से मुलाकात हुई. डिस्टिंक्शन पाने वाले इस बालक ने गणित जैसे मुश्किल विषय को अपनेआप पढ़ा क्योंकि उसके विद्यालय में गणित का शिक्षक ही नहीं है.
एक बालिका की माताजी का दस साल पहले स्वर्गवास हो गया. उसके बाद उसको घर की सारी जिम्मेदारी उठानी पड़ी. अपने छोटे भाई - बहनों के लिए वो ही माँ के सारे काम करने लग गयी. घर के सारे काम करने के बावजूद भी उसका पढ़ाई में भी उतना ही वर्चस्व रहा और हर साल डिस्टिंक्शन लाती रही.
इन सभी में एक खासियत है - नियति की क्रूरता को इन विद्यार्थियों ने बहुत ही सकारात्मक सोच के साथ लिया और ईश्वरीय कृत्य का सम्मान कर जीवन की चुनौती को स्वीकार किया . बिना किसी हताशा के इन विद्यार्थियों ने लगन, मेहनत और दृढ संकल्प से मुश्किल से मुश्किल लख्य को हासिल किया. प्रतिभा हर शहर हर गांव में है. जहाँ जहाँ इंसान चुनौती को सकारत्मक रूप में लेता है वहां वहां इंसान अपनी अद्भुत प्रतिभा का विकास कर लेता है. मेरा विश्वास है की ये सभी विद्यार्थी जीवन में अद्भुत तरक्की करेंगे. इन विद्यार्थियों को जिंदगी की चुनौतियों का सामना करना पड़ा लेकिन इन सब ने वो सोच, विश्वास, चरित्र, और दर्शन विक्सित कर लिया है की अब इनको जिंदगी की कोई परीक्षा में असफलता नहीं मिलेगी. मुझे याद आरहें हैं श्री जगदीश भाई पटेल - जो न देख सकते थे - न चल सकते थे (क्योंकि आधे शरीर में लकवा था) लेकिन उनमे वो बात थी जो हम सब को सीखनी है - अद्भुत सकारात्मक सोच. १९९४ में वो कम्प्यूटर सीख कर अंधे लोगों को कम्प्यूटर सिखाने की योजना बना रहे थे (जब कम्प्यूटर विंडोज पर आधारित नहीं बल्कि बड़े मुश्किल और कम विकसित सॉफ्टवेयर से चलता था). उनका आत्मविश्वास, सकल्प शक्ति और दुनिया को आगे ले जाने का जज्बा ही उनको बाकी लोगों से अलग करता था.
जीवन में सुख-दुःख आते ही रहते हैं. कई कई लोग तो जीवन में आते ही मुसीबतों को झेलने के लिए हैं. उनका पूरा जीवन ही मुसीबतों के बीच गुजर जाता है. लेकिन जिस तरह से वो मुश्किलों का सामना करते हैं और जिस तरह वो विपरीत परिस्थितियों में भी अपना लक्ष्य नहीं छोड़ते और सही रास्ते पर चलते रहते हैं वो ही इस दुनिया के लिए रह जाता है. उनके रास्ते को देखना और उनसे प्रेरणा लेना ही हम दुनिया वालों का फर्ज है.
जीवन की विपरीत परिस्थितियों को झेलने वाले इन विद्यार्थियों के अलावा भी मैं ऐसे भी विद्यार्थियों से भी मिला हूँ जो जीवन में सब कुछ सौभाग्यवश प्राप्त कर चुके हैं. ऐसे भी विद्यार्थिओं से मिला हूँ जिनके चारों तरफ धन दौलत और ऐसो - आराम की बरसात होती रहती है. लेकिन जब उन लोगों को ये पूछता हूँ की तुम्हारा मकसद क्या है - तुम जिंदगी में क्या करना चाहते हो - तो मुझ को बड़ी हैरानी होती है की उनके पास वाकई में कोई ठोस मकसद नहीं होता है. ये देख कर मुझे अक्सर ये विचार आता है की जिंदगी की असली पाढशाला तो जिंदगी है और जो लोग जिंदगी से सीखने और उसको सम्मान देने में महारत हासिल कर लेते हैं वो ही इस जिंदगी को फतह कर लेते हैं.
धर्म और अध्यात्म ने हमको जीवन के मर्म बहुत बारीकी से समझा दिए हैं या यो कहें की हमारी आदत में डाल दिए हैं. अध्यात्म को अपने आपको खोजने का रास्ता मानते हुए हमें अपने चारो तरफ खुशियों और उत्साह को फैलाने का मकसद बनना है.
कहीं वो चिराग बुझ न जाए
अगले १०० वर्षों में इंसानी कुकृत्यों के कारण धरती माता का तापमान काफी बढ़ जाएगा और उससे विनाश आ जाएगा. उससे पहले ही बढ़ते खून खराबे से दुनिया के कई देशों में लोगों का जीना मुश्किल हो जाएगा. दुनिया संकट में हैं, इंसानियत खतरे में है. कहीं आतंकवाद का खतरा है, कहीं वैचारिक संकीर्णता का जहर फ़ैल रहा है तो कहीं प्रकृति के प्रति इंसान की क्रूरता के दुष्परिणाम नजर आ रहे हैं. इन सब के बीच भी एक चिराग है जिस पर हम उम्मीद कर सकते हैं. क्या है वो चिराग?
जो लोग दुआओं में अमन मांगते हैं - उनके हम ऋणी हैं क्योंकि हममे से ज्यादातर लोग तो सिर्फ भौतिक विकास की बात करते हैं और ये भूल जाते हैं की दुनिया में विकास के साथ ही विनाश की शुरुआत हो जाती है. जो लोग सिर्फ और सिर्फ सद्बुद्धि और विवेक की वकालत करते हैं उनके हम ऋणी हैं क्योंकि इंसान और इंसानी समूहों को ईश्वर ने विवेक की अद्भुत ताकत दी है जो हर प्रगति के साथ लुप्त होता जाता है.
इंसान क्या इस पूरी सभ्यता का वजूद किस बात पर निर्भर है? "दुनिया चलती है और चलती रहेगी" ये कहने से पार नहीं पड़ेगा - इस दुनिया के अद्भुत रहस्यों को अनदेखा नहीं किया जा सकता है. इंसानियत और कर्मवाद का रिश्ता टूटना नहीं चाहिए - वरना इस दुनिया का वजूद भी नहीं रहेगा. हर दिन इस दुनिया के लिए खतरे बढ़ रहे हैं. कई देश तो ये ही मान कर बैठे हैं की इस दुनिया को बचाने की जिम्मेदारी हमारी नहीं है. असहिष्णुता बढ़ रही है. पर्यावरण को खतरा बढ़ रहा है. मानवीय कृत्यों के कारण धरती का तापमान बढ़ रहा है जिससे विनाशकारी परिणाम सामने आ रहे हैं. धरती की हालत "चार मामों का भांजा" जैसी हो गयी है - जहाँ कोई भी धरती की सुरक्षा और विकास की जम्मेदारी नहीं लेना चाहता है. दुनिया का सबसे बड़ा देश भी अब तो कह रहा है "पेरिस एग्रीमेंट" को मैं नहीं मानता.
अजीब रहस्य है दुनिया के - चाहे इंसान हो या मुल्क - जैसे जैसे तरक्की करते हैं अपनी बर्बादी का सामान इकठ्ठा करना शुरू कर देते हैं. जो जो मुल्क तरक्की कर रहे हैं - उन सब पर आप नजर डालिये - जैसे ही तरक्की की रफ़्तार तेज होती है वैसे ही कुछ न कुछ ऐसे काम कर देते हैं की तरक्की रुक जाए. दुनिया के सबसे बड़े देशों को लीजिये - तरक्की का कारण था उनकी खुली विचारधारा, वैचारिक सोच, सहष्णुता, प्रतिभा का सम्मान - और आज वो ही मुल्क अपनी चारदीवारी बनाने में लग गया है. तरक्की का कारण था शिक्षा, स्वास्थ्य और विकास पर खर्च - आज वो ही देश हथियारों की होड़ में उलझ गया है. विकास का सारा श्रेय गलतफहमियां ले रही है और विनाश की तैयारी शुरू हो गयी है. लोगों को देखिये - जब गरीबी के कुचक्र से बहार निकल कर अमीरी की तरफ रुख करते हैं तो साथ ही बहुत कुछ छोड़ देते हैं और बहु कुछ अपना लेते हैं. वे अपना पहनावा, आदतें, शिष्टाचार और खान पान सब बदल देते हैं. एक एक विशेषता की बात करते हैं - मितव्यविता - जिसके कारण वे गरीबी के चक्र को तोड़ पाते हैं - सबसे पहले तो उसी मितव्यविता को लात मार कर फेंक देते हैं. मटकी के पानी की जगह फ्रिज का पानी आ जाता है और दूध मलाई की जगह महंगी विदेशी शराब. लो शुरू हो गयी विनाश की तैयारी.
इंसानी जूनून भी गजब है. जहाँ भीषण रेगिस्तान होता है - वहां लोग हरियाली ला देते हैं लेकिन जहाँ हरियाली होती है उसे रेगिस्तान बना डालते हैं. जिन्हें सड़क बनाने के लिए सरकार नियुक्त करती है - वो सड़क के दुश्मन बन जाते हैं और दशरथ मांझी जैसे लोग बिन सरकारी सहयोग के ही पूरा पहाड़ काट कर सड़क बना डालते हैं. समझना चाहे तो भी नहीं समझ सकते की कैसे सिर्फ एक हथोड़ी से एक गरीब किसान २२ साल की तपस्या कर के सड़क बना डालता है और कहाँ वो लोग हैं जिनको इसी बात की तनख्वाह मिलती है और वो बिना सड़क बनाये ही बजट खत्म कर देते हैं. जो लोग कठोर अनुशाशन में तप कर तैयार हुए और सफलता की चरम उंचाईयों को पा चुके हैं वो ही लोग आज अनुशाशन को नकार रहे हैं और नई पीढ़ी को दिशाविहीन कर रहे हैं. मतलब साफ़ है की इंसान की सोच और उसका जूनून ही उसको महान बनाता है.
साधन संपन्न लोगों के बच्चे ऐयाशी में ही अपने कॉलेज के दिन बिता देते हैं वहीँ साधन हीन साईकिल रिक्शा चलाने वाले नारायण जैसवाल का बेटा गोविन्द जैस्वाल आईएएस बन जाता है. क्या करें की हर माँ बाप को गोविन्द जैस्वाल जैसे बच्चे हों? विल्मा रुडोल्फ के लिए डॉक्टर ने कहा की वो चल भी नहीं पाएगी - लेकिन वो तो ओलंपिक्स में दौड़ में तीन तीन गोल्ड मैडल जीत गयी. स्पर्श शाह ऐसी बिमारी से ग्रसित है की खड़ा भी नहीं हो सकता - लेकिन १३ साल की उम्र में ही उसने ज्ञान प्रतिभा का वो कमाल दिखाया की हर कोई हैरान रह जाए. इथियोपिया के अबेबे बिकिला के पास जुटे खरीदने के लिए भी पैसे नहीं थे - तो क्या हुआ - उन्होंने फिर भी ओलंपिक्स में मेराथन जीत लिया. निक यूजीविक के न हाथ हैं न पैर - लेकिन आज वो पूरी दुनिया को जिंदगी कैसे जीनी चाहिए इसका सन्देश देते हैं. मतलब साफ़ है - इंसान ईश्वरी शक्तियों के साथ ही इस दुनिया में आता है और जब वो ठान लेता है तो जो चाहे वो कर के दिखा सकता है.
ईश्वर ने अपनी अद्भुत ईस्वरीय शक्ति से हम इंसानों को ही इतना सक्षम बना दिया है की हम चाहें तो विकास कर सकते हैं और चाहे तो विनाश. ईश्वर ने हमारे ही हाथों में हमारे भविष्य को लिखने की अद्भुत शक्ति दे दी है. लेकिन जिस दिन हम लोग अपनी इस जिम्मेदारी को भूल कर अपने ही हाथों अपने भविष्य को मिटाना शुरू कर देंगे उस दिन क्या होगा?
चलिए छोड़िये विनाश की सामग्री - फिर से मूल बात पर आतेहैं - कही वो चिराग बुझ न जाए. जिस चिराग को बुद्ध, महावीर, और ईसा मसीह ने जलाया - जिस चिराग ने हमको शताब्दियों तक बचाया - कहीं वो चिराग बुझ न जाए. ये चिराग क्या है? ये क्या है जिसने हमारी सभ्यताओं को बचाया और हमको इंसान से फरिश्ता बनाया? सत्य, अहिंसा, आपसी प्रेम, प्रकृति के प्रति कृतज्ञता, सहिष्णुता, आपसी सम्मान, इस भ्रह्मांड के प्रति सम्मान और कर्मवाद.
उड़ान फिर से स्वर्णिम भारत के लिए
कोई भी देश या कोई भी संगठन लोगों के मिल कर काम करने की क्षमता पर निर्भर करता है. अकेला तो हर व्यक्ति असाधारण हो सकता है या ये हो सकता है की अपने आप के लिए हर व्यक्ति असाधारण काम कर के दिखा दे. लेकिन इससे न तो देश महान बनता है न ही कोई संगठन महान बनता है. संगठन को महान बनाने वाले तत्व क्या हैं? कैसे कोई देश और कोई समूह महान बन जाता है? ये कोई बहुत बड़े रहस्य नहीं हैं लेकिन जब ये हमारे जीवन में समा जाते हैं तो हमको भी आनंद आता है और पुरे संगठन का कायाकल्प कर देते हैं.
२३ जून एक बार फिर हम सब के लिए एक खुशियों भरी खबर ले कर आया. इसरो का रॉकेट एक साथ ३१ सॅटॅलाइट ले कर उन्हें अलग अलग कक्षा में स्थापित करने में कामयाब हुआ. इसरो आज पुरे देश के लिए एक गर्व है. इसरो के कर्मचारी जूनून के साथ कार्य करते हैं और अपने हर काम को बेहद संजीदा तरीके से अंजाम देते हैं. आज देश के बाकी सरकारी दफ्तरों को इसरो से प्रेरणा लेने की जरुरत है. इसरो जिस प्रकार हमारे सामने आदर्श स्थापित कर रहा है उससे लगता है की हम फिर से स्वर्णिम भारत के युग को प्राप्त कर लेंगे. स्वर्णिम भारत क्या है? - एक समय भारत पूरी दुनिया में हर क्षेत्र में आगे था और उस समय भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था. आज अनेक लोग भारत को फिर से स्वर्णिम भारत बनाने के सपने देख रहे हैं. मेरे मित्र श्री संजीव सबलोक ने एक राजनीतिक दल इसी नाम से शुरू किया है - स्वर्ण भारत पार्टी. श्री सबलोक को व् उनके साथियों को ये लगता है की अगर देश की नीतियों में बदलाव लाया जाए तो ये देश फिर से स्वर्ण-भारत बन सकता है. उनको ये लगता है की देश की प्रगति रुकने का बड़ा कारण सरकार की अड़ंगेबाजी वाली नीतियां और नौकरशाही है. उनकी पार्टी की मांग है की सरकारी नीतियों का हस्तक्षेप नहीं के बराबर हो - हर चीज पारदर्शी हो - हर नीति स्पस्ट हो और नीतियों के दायरे में लोगों और संस्थाओं को कार्य करने की इजाजत हो. सरकारी हस्तक्षेप कम से कम हो.
इसरो ने २००८ में चंद्रयान (चन्द्रमा का चन्द्रमा), २०१४ में मंगल का चन्द्रमा, २०१६ में २० सॅटॅलाइट, २०१७ में १०४ सॅटॅलाइट, और अपने स्वयं के द्वारा विकसित क्रायोजेनिक रॉकेट बनाये हैं. विकसित देश इसरो के लिए जितनी भी चुनौती खड़ी करते हैं - इसरो उतना ही ज्यादा सक्षम हो जाता है. हर दूसरे दिन इसरो अपनी क्षमता को साबित करता जाता है. ये इसरो नहीं भारत की भारतीयता बोल रही है. ये इसरो नहीं स्वर्णिम भारत को लौटाने की शुरुआत है.
इसरो की सफलता ने एक बात साबित कर दी है की जो लोग ये सोचते हैं की भारत में अच्छे संगठन नहीं है या यहाँ पर कार्य करने के लिए अच्छे संगठन बनाना मुश्किल है - वो गलत हैं तथा जो लोग भारत को छोड़ कर विदेश जाने के लिए ये तर्क देते हैं की भारत में कार्य करने का माहौल नहीं है - वो गलत हैं. इसरो देश के कर्तव्यनिष्ठ लोगों के लिए एक आदर्श संगठन है और बाकी संगठनों के लिए एक चेतावनी - या तो इसरो की तरह महान बनने का प्रयास करो - नहीं तो बंद हो जाओ.
इसरो की सफलता के पीछे इसमें काम करने वाले लोगों की मानसिकता को देखना जरुरी है. भूतपूर्व राष्ट्रपति श्री अब्दुल कलाम जी बताया करते थे की श्री सतीश धवन ने एक बार असफलता होने पर उसकी पूरी जिम्मेदारी अपने सर पे ले ली और अगले साल जब सफलता मिली तो वो सारी सफलता अपनी टीम के नाम कर दी. ऐसा अक्सर नहीं होता है - अधिकाँश संगठनों में इसका उलटा ही होता है. इसी कारण कर्मचारियों में काम करने की लगन नहीं पैदा होती है. लोग काम करने से जी चुराने लग जाते हैं. इसरो में काम करने की ललक पैदा हो जाती है क्योंकि हर कर्मचारी को पूरी क्रेडिट मिलती है और उसको काम करने के लिए उत्साह, सहारा और समर्पण का माहौल मिल जाता है. ये छोटी छोटी बातें ही किसी कम्पनी को महान बना देती है तो किसी कंपनी को बर्बाद कर देती है.
इसरो में हर कर्मचारी उच्चतम आदर्श की कल्पना करता है और उन ऊंचाइयों को छूने की सोचता है जिनसे उसको फक्र हो. जब संगठन का हर कर्मचारी अपने कार्यक्षेत्र के उच्चतम आदर्शों को पाने के लिए प्रतिबद्ध हो जाता है तो उस संगठन में कार्य करने का अनुभव हर व्यक्ति के लिए एक संस्मरण होता है. हर व्यक्ति रोज अपने ही रिकार्ड तोड़ता जाता है. लक्ष्य तो उस मंजिल पर होता है जो हर दृस्टि से श्रेष्ठ हो. सीखने और सिखाने का यहाँ पर एक माहौल तैयार हो जाता है. जो आज इसरो में हो रहा है वो कल हर भारतीय संगठन में होना चाहिए और फिर पुरे देश को इस तरह तरक्की मिलेगी की हम सब को फक्र होगा.
लोगों को फिर से संगठन में काम करने के लिए और संगठन को महान बनाने के लिए समर्पण भाव पैदा करने के लिए प्रेरित करना पड़ेगा. शिक्षण संस्थाओं को विद्यार्थियों को उनके व्यक्तिगत कार्य नहीं बल्कि समूह कार्य के आधार पर मूल्याङ्कन शुरू करना पड़ेगा. परिवारों और सामजिक संगठनों को फिर से लोगों को जोड़ने का कार्य करना पड़ेगा. हर उस विचार को नकारना पड़ेगा जो लोगों को तोड़ता है और हर उस विचार को सशक्त बनाना पड़ेगा जो लोगों को जोड़ता है और उनमे संगठन और देश के प्रति समर्पण का भाव पैदा करना है. सरकारी पहल नहीं सामूहिक पहल की जरुरत है जिसमे सिर्फ और सिर्फ कार्य और संगठन के उद्देश्यों के प्रति समर्पण को तबज्जु मिले.
जीएसटी नहीं केएसटी - हमारी जरुरत
गावों के गट्टों और शहर के पाटों पर बैठे लोगों से पूछिए की लोगों को ख़ुशी कैसे मिलेगी और लोगों की ख़ुशी के लिए सरकार को क्या करना चाहिए? कैसा माहौल बनाना चाहिए? कैसी व्यवस्थाएं स्थापित करनी चाहिए?
पिछले २५ वर्षों से चीन में लोगों में खुशहाली में कमी आ रही है. रिचर्ड इस्टेरलीन नामक विख्यात अर्थशाष्त्री के अनुसार पिछले २५ वर्षों में जीडीपी लगातार बढ़ रही है लेकिन लोगों की खुशियां कम हो रही है. अमेरिका पिछले १० सालों से लगातार खुशहाली के क्षेत्र में पिछड़ रहा है - और उसका बड़ा कारण है लोगों का बढ़ता मानसिक असंतुलन. मनोरोगी बढ़ रहे है, तनाव बढ़ रहा है, आपसी मन-मुटाव बढ़ रहा है. प्रश्न है फिर इतनी ताबड़तोड़ किस लिए? कुछ तो सोचना चाहिए चीन और अमेरिका जैसे देशों के नीतिनिर्माताओं को. नॉर्वे जैसे देशों में हर व्यक्ति को बचत के लिए प्रेरित किया जाता है और हर व्यक्ति की शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा की जिम्मेदारी सरकार की है. नॉर्वे, डेनमार्क, आइसलैंड, स्विट्ज़रलैंड जैसे देश दुनिया में सबसे ज्यादा खुशहाली वाले देश हैं - आखिर क्यों? उन्होंने किस चीज को प्राथमिकता दी? दुनिया में कैसी भी मंदी आये - इन देशों ने अपने नागरिकों की खुशहाली के लिए ऐसी व्यवस्थाएं की हुई है की उस मंदी का लोगों पर कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ेगा. अपने पडोसी मुल्क भूटान को ही देखिये. पूरी दुनिया में भूटान पहला देश था जिसने जीडीपी की जगह पर खुशहाली को अपने देश की प्रगति का आधार बनाया. उन्होंने दुनिया के सामने ये साबित कर दिया की एक छोटा सा देश भी पूरी दुनिया की बेवकूफियों का डट कर सामना कर सकता है और पूरी दुनिया को अपने आगे झुका सकता है. मजबूर हो कर २०१२ से यूनाइटेड नेशंस ने भी खुशहाली को प्रगति का आधार बनाया. भूटान की ये पहल पूरी दुनिया के सामने एक नयी रौशनी ले कर आयी. जीडीपी के पीछे अंधे हो कर भाग रहे नीति-निर्माताओं को अक्ल आयी की असल में वे लोगों को खुशहाली नहीं बदहाली की तरफ धकेल रहे थे. भूटान आज भी हमारे देश से खुशहाली के पायदान पर बहुत आगे है और इस दिशा में लगातार प्रयास कर रहा है. वहां हर विद्यार्थी को निशुल्क शिक्षा, प्रशिक्षण और तकनीकी हुनर प्रदान किया जाता है - बेरोजगार को रोजगार के सक्षम बनाना सरकार की जिम्मेदारी है. सरकार लोगोंकी खुशहाली बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध है. नतीजे सामने नजर आ रहे हैं.
अपने देश पर नजर डालें तो पाते हैं की देश की नीतियां किसी प्रकार से जीडीपी बढ़ाने पर केंद्रित हैं. सरकार का पूरा ध्यान टैक्स बढ़ाने पर है - इसकी जगह सरकार को नॉर्वे जैसे देशों की तरह बचत बढ़ाने पर जोर देना चाहिए. सरकार का पूरा ध्यान छोटे छोटे उद्यमियों को टैक्स की सीमा में लाने पर है - इससे ज्यादा ध्यान करोड़ों बेरोजगारों को उद्यमी बनाने पर देना चाहिए. सरकार का पूरा ध्यान मुट्ठी भर राजनेताओं और अधिकारियों की तनख्वाह व् भत्ते बढ़ाने पर है - इससे ज्यादा ध्यान करोड़ों लोगों को स्वास्थ्य, और सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने पर होना चाहिए. सरकार का पूरा ध्यान विदेशी कंपनियों को भारत में निवेश करने के लिए आमंत्रित करने पर है - इससे जयदादा ध्यान देश में स्वदेशी आंदोलन को पुनः स्थापित करने और लोगों में आपसी विश्वास को बढ़ावा देने पर होना चाहिए. उत्तर पूर्व के राज्यों में शिक्षा और स्वास्थ्य पर प्राथमिकता दी जाती है और वहां के हर विद्यार्थी की शिक्षा और तकनीकी प्रशिक्षण का व्यय सरकार उठाती है - ऐसे ही कश्मीर के विद्यार्थियों की शिक्षा व् तकनीकी प्रशिक्षण का व्यय सरकार उठाती है - वहां के विद्यार्थियों की प्रगति साफ़ नजर आती है. गुजरात में लड़कियों की पढ़ाई (उच्च शिक्षा भी ) की जिम्मेदारी सरकार उठाती है - इससे वहां लड़कियों की शिक्षा में बहुत सुधार हुआ. जहाँ जहाँ पर इस प्रकार के प्रयास हुए हैं विकास नजर आ रहा है.
पुरे देश में आज भी इस बात का अफ़सोस है की देश के करोड़ों युवाओं के विकास और प्रशिक्षण पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा रहा है. १२५ करोड़ के इस मुल्क में सरकार सिर्फ मुट्ठी भर लोगों के भत्ते व् तनख्वाह बढ़ा कर ये सोच लेती है की उसने अपने कर्तव्य का निर्वाह कर लिया है.सरकार द्वारा छप्पर फाड़ तनख्वाह बढ़ाने के बाद भी कई लोगों के चेहरों पर ख़ुशी नजर नहीं आयी. कई लोग इस लिए दुखी थे क्योंकि उनको लग रहा था की अगर वो निजी क्षेत्र में होते तो शायद क्या कर डालते. कई इस लिए दुखी थे क्योंकि वो सरकारी नौकरी नहीं हासिल कर पाए. मैंने एक ठेला चालाने वाले व्यक्ति से पूछ लिया - आपको नहीं लगता की सरकार के इस फैसले से देश में ज्यादा पैसा आएगा ज्यादा तरक्की होगी? वो कुछ उदास हो मेरी तरफ देखने लगा. बोला : "हम तो कम पढ़े लिखे हैं साहिब - इतना ही जानते हैं की जैसे ही आम्दानी बढ़ेगी लोग विदेशी माल खरीदेंगे - मेरी दुकानदारी चौपट हो जायेगी. " कही उसकी बात में सच्चाई तो नहीं है? मुझे नहीं पता पर ये लगता है की जैसे जैसे लोगों का जीवन स्तर ऊपर उठ रहा है उनकी दृस्टि विदेशी सामान की तरफ बढ़ रही है और वो पड़ोसियों से कट रहे हैं. अगर वाकई में ऐसा होता है तो ये एक खतरनाक संकेत है.
आजादी से पहले देश में स्वदेशी आंदोलन का आधार सिर्फ ये बात थी की हमें अपने प्रदेश के उद्यमी को सम्बल प्रदान करना है और विदेश के सामान को नहीं खरीदना है. उस विचार के पीछे ये ही सच्चाई है की अगर हर व्यक्ति अपने क्षेत्र के लोगों को सहारा देने की सोचेगा तो एक स्वस्थ समाज की आधारशिला बनेगी और अगर हर व्यक्ति विदेशी सामान के पीछे भागेगा तो देश की अर्थव्यवस्था और देश के उद्यमी लोग तबाह हो जाएंगे. स्वदेशी आंदोलन से हमको एक बात समझ में आ गयी की किसी भी देश और किसी भी अर्थव्यवस्था को कमजोर करने का सबसे सशक्त उपाय है की उस देश के उत्पादों का बहिष्कार कर दिया जाए. हम ये भी समझ गए की देश की तरक्की के लिए एक ऐसी विचारधारा चाहिए जो देश के उद्यमियों को सर्वोपरि स्थान देती है तथा उनके उत्पाद को प्रथम प्राथमिकता देती है. देश की जनता को सशक्त बनाने के लिए स्वदेशी आंदोलन बहुत ही प्रभावी आंदोलन साबित हुआ. उस समय लोग ख़ुशी ख़ुशी देश में बने उत्पाद खरीदते थे भले ही कम गुणवत्ता का या ज्यादा महंगा हो - लेकिन ख़ुशी होती थी ये देख कर की "किसी न किसी रूप में अपने देश की तरक्की में मदद कर रहा हूँ".
एक गरीब व्यक्ति जब १००० रुपए खर्च करता है तो ये रूपये उसके आस-पास के लोगों तक ही जाते हैं और इन रुपयों से उसके आस पास कुछ खुशहाली आ जाती है. जैसे वो इन रुपयों से अनाज, तेल, घर के अन्य जरुरी सामान, और आस-पड़ोस से कोई जरुरी सामान खरीदता है. एक बहुत ही अमीर व्यक्ति अगर १००० रूपये खर्च करता है तो वो इन रुपयों को किसी पार्टी, पांचसितारा होटल, या किसी विदेशी ब्रांड के सामान या किसी लग्ज़री सामान को खरीदने पर खर्च करता है. मतलब सरकार को ये प्रयास करने चाहिए की गरीब व्यक्ति की आम्दानी और बढे और अमीरों की आम्दानी का एक बड़ा हिस्सा देश के विकास पर खर्च हो. देश में ऐसे आर्थिक ढाँचे का निर्माण हो जिसमे गरीब से गरीब व्यक्ति के लिए परिश्रम से अर्थोपार्जन आसान हो और अमीर से टैक्स वसूल किया जाए. पूरी आर्थिक नीति का ये ही आधार होना चाहिए.
कुछ देशों ने "मुक्त व्यापार" की नीति को अपनाया और अपने देश में लोगों को व्यापार करने के लिए बिना रोकटोक के नियम बनाये जिससे ज्यादा से ज्यादा लोग व्यापार और उदम कर सकें. उन देशों में लोगों ने कमाल की तरक्की की. सिंगापुर का उदहारण लीजिये - ली कुआं येव सरकार ने वहां पर उद्यमिता की बहार ला दी. वहां हर व्यक्ति उद्यमी बनने के सपने देखता है और उद्यमिता हर बालक के सपनो में है. वहीँ हमारे जैसे कुछ देश हैं जिन्होंने उद्यमिता का रास्ता ही मुश्किलों भरा बना दिया, मुश्किल कानून और कानूनी प्रक्रियाएं बना दी, सरकारी नौकरी को बहुत आकर्षक बना दिया और नतीजा ये निकला की हर उद्यमी अपने बच्चों को सरकारी नौकरी करने के लिए प्रेरित करने लगा और देश में उद्यमिता चौपट हो गयी. देश की आर्थिक तरक्की रुक गयी. जीएसटी लागू करने से जीडीपी तो निश्चित रूप से बढ़ जायेगी. पर क्या इससे लोगों की खुशहाली में बढ़ोतरी होगी? क्या लोगों में ज्यादा आत्मविश्वास और उद्यमिता की भावना होगी - वक्त ही बताएगा.
तो क्या अब सरकार की प्राथमिकता लोगों की खुशहाली और उनमे बढ़ता अपनापन होगा? लोगों में आपसी विश्वास, प्रेम, सामाजिक संरचना, सौहार्द और स्वदेशी की भावना को बढ़ावा देने के लिए क्या योजना आएगी? ये अफ़सोस की बात है की हर उद्यमी आज नवाचार और हुनर की बात भूल गया है सिर्फ और सिर्फ जीएसटी और सरकारी नियमों के बारे में सोच रहा है - होना ये चाहिए की वो अपने हुनर पर ध्यान देवे, अपने उद्यम में नवाचार लाने पर अपनी पूरी ऊर्जा और संसाधन लगाए - और सरकार ये सुनिश्चित करे की उसकी सृजनशीलता और उद्यमिता के रास्ते में कोई बाधा नहीं आये. लोगों की खुशहाली में सरकार अपने सारे मकसद हासिल कर लेगी लेकिन लोगों को जटिल सरकारी प्रक्रियाओं में फंसा देने से न वो उद्यमी बन पाएंगे और न खुस रह पाएंगे. के यानी खुशहाली, ऐस यानी स्वदेशी और टी यानी तकनीकी नवाचार - ये ही देश की प्राथमिकता होनी चाहिए अब तो.
दुनिया कर लो मुट्ठी में
दुनिया कर लो मुट्ठी में
एक जमाना वो था की अपने शहर से बाहर की हमें कोई खबर ही नहीं होती थी -
एक आज का जमाना है की पूरी दुनिया की ख़बरें मोबाइल में समां जाती है. एक
वो जमाना था की छोटे छोटे शहरों के बच्चों के सामने अवसर नहीं होते थे -
आज पूरी दुनिया की सारी संभावनाएं मोबाइल के जरिये हर व्यक्ति के पास है.
भारत में ६१ करोड़ से ज्यादा लोग मोबाइल का इस्तेमाल कर रहे हैं और १००
करोड़ मोबाइल कनेक्शन हैं. ४५ करोड़ लोगों के पास मोबाइल में इंटरनेट की
सुविधा है. ये संख्या लगातार बढ़ रही है. मोबाइल के साथ ही नए प्रारूप के
व्यापार की शुरुआत हो गयी है जिसमे नयी पीढ़ी के लोगो को महारत हासिल है.
तकनीक के क्षेत्र में नए ज़माने के तरीके हमारी दुनिया बदल कर रख देंगे.
आज दुनिया के श्रेश्ठतम शिक्षण संस्थान इंटरनेट से अपनी पढ़ाई करवा रहे
हैं. गावों और छोटे छोटे शहरों में बैठे लोग दुनिया की सबसे बेहतरीन
शिक्षण संस्थाओं से ऑनलाइन पढ़ाई कर रहे हैं - ये पढ़ाई सस्ती भी है और
श्रेश्ठतम शिक्षकों के द्वारा प्रदान की जा रही है.
रोजगार के नए अवसर आ रहे हैं. डिजिटल मार्केटिंग, सोशल मीडिया
एडवरटाइजिंग, सोशल मीडिया पब्लिसिटी प्रचार - प्रसार के नए साधन के रूप
में उभर कर आ रहे हैं. नयी पीढ़ी के युवा इस क्षेत्र में बहुत आगे हैं. वो
कॉलेज के दिनों में अपनी वेबसाइट खोल कर अपने व्यापार की शुरुआत कर लेते
हैं और फिर उनकी तरक्की का कोई आदि-अंत नहीं है. मार्क जकरबर्ग भी ऐसे ही
एक वेबसाइट बना कर दुनिया भर के करोड़ों लोगो के अजीज हो गए और आज पूरी
दुनिया के सबसे ज्यादा प्रभावशाली व्यक्तियों में उनका नाम है. महज ३३
वर्ष की अल्पायु में वे आज कराबपति उद्यमी और करोड़ों लोगों को जोड़ने वाले
व्यक्ति बन गए हैं.
तकनीक लोगों की मदद करने के लिए है लेकिन इस तकनीक का सही इस्तेमाल हमारे
ऊपर निर्भर है. लोगों को आपस में जोड़ने में तकनीक बहुत मददगार हो सकती है
और आज इसकी बड़ी जरुरत भी है. आस पास जहाँ भी नजर दौड़ाता हूँ, भीड़ में
घिरे अकेलों को पाता हूँ. हर व्यक्ति इस कोशिश में है की किसी तरह उसको
चाहने वाले मिल जाएँ - पर किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता. लोग मिलते
हैं - पर हमज़ुबाँ नहीं मिलता. लोग ढूंढते रहते हैं हर तरफ - कही कोई ऐसा
मिल जाए की उनको एक सहारा और जीने का मकसद मिल जाए. हर व्यक्ति सोशल
मीडिया के जरिये कुछ अपनों को ढूंढने में लगा है - जिसको भी देखो वो
मोबाइल पर अंगुलिया मारने में व्यस्त है - क्या पता कब किस को अपना महबूब
मिल जाए?
तकनीक, मोबाइल, इंटरनेट, लोगों को आबाद भी कर सकते हैं तो बर्बाद भी कर
सकते हैं. लोग इस के बेहतरीन इस्तेमाल से दुनिया में सफलता के अप्रतिम
शिखर को छू सकते हैं तो वो बर्बाद भी हो सकते हैं. आज इस का गलत इस्तेमाल
बहुत बढ़ रहा है (शायद हर नई तकनीक का शुरू में दुरूपयोग ही होता है लेकिन
बाद में उसके बेहतर इस्तेमाल का रास्ता निकलता है). आज सोशल मीडिया के
कारण लोग आपस में लड़ पड़ते हैं, धर्म और जातिगत समूह बना लेते हैं और बिना
बात के बतंगड़ शुरू कर लेते हैं. सोशल मीडिया के कारण लोग अपना सारा काम -
काज छोड़ कर सिर्फ चैटिंग करने में अपने समय को बर्बाद कर देते हैं. नयी
पीढ़ी हालांकि इस तकनीक को अच्छी तरह जानती है लेकिन इसके इस्तेमाल से
शिक्षा - प्रशिक्षण हासिल करने की जगह पर वो अपना सारा समय फिजूल में
बर्बाद कर देते हैं.
असल में हर तकनीक को इस्तेमाल करने से पहले उसके बारे में समुचित जानकारी
और प्रशिक्षणं जरुरी होता है. प्रशिक्षण के बिना व्यक्ति तकनीक का
इस्तेमाल आपसी रंजिशों में कर सकता है लेकिन प्रशिक्षण से वह व्यक्ति ये
जान सकता है की तकनीक से वो अपने भविष्य को कैसे सुधार सकता है.
अपने से छोटों को मोबाइल पर चिपके हुए जब भी देखें तो उनसे पूछे की वो
क्या करते हैं? किस प्रकार के एप्प्स का इस्तेमाल करते हैं? उनसे पूछें
की वो मोबाइल से अपने विकास के लिए क्या कर रहे हैं या सिर्फ इसका
इस्तेमाल मनोरंजन के लिए करते हैं?
आज का युवा अपनी पढ़ाई और शिक्षा के लिए १०० रूपये भी खर्च करने से पहले
चार बार सोचता है लेकिन मोबाइल और इंटरनेट पर हर साल हजारों रूपये उड़ा
देता है. ये एक भेड़-चाल है, एक फैशन है, एक नशा है और एक खतरे की घंटी
है. मैं आपको पिछले ज़माने की और जाने के लिए नहीं कह रहा हूँ - क्योंकि
मैं भी जानता हूँ की आज का युवा मोबाइल और इंटरनेट के बिना नहीं रह सकता
है. लेकिन जरुरी है की युवाओं को मोबाइल और इंटरनेट के इस्तेमाल का ज्ञान
और समझ प्रदान की जाए. युवाओं को ही आगे आना पड़ेगा और नयी पीढ़ी को ये
समझाना पड़ेगा की मोबाइल और इंटरनेट के इस्तेमाल में संयम कैसे बरते और
किस प्रकार के कार्य सीखें.
मोबाइल और इंटरनेट के जरिये नयी पीढ़ी कमाल कर रही है. रोज कोई न कोई नया
सॉफ्टवेयर या नया पैकेज आ रहा है जो लोगों की जिंदगी आसान कर रहा है. नयी
पीढ़ी अपनी तकनीकी कुशलता के कारण इंटरनेट और मोबाइल क्रांति का लाभ उठा
पा रही है. नयी पीढ़ी इस कला में दक्ष है.
मोबाइल और इंटरनेट ने व्यापार की दिशा और दशा को पूरी तरह से बदल दिया
है. नए ढंग से व्यापार हो रहा है. गावों में बैठे लोग इंटरनेट से अपने
सामान को पूरी दुनिया में बेच रहे हैं. भारत में इस प्रकार के व्यापार की
प्रचुर संभावनाएं है. आज -कल
विद्यार्थी अपने खाली समय में कोई नयी वेबसाइट बना लेते हैं और देखते ही
देखते वो वेबसाइट उन के लिए आज का जरिया बन जाता है. जो काम एक शौक के
रूप में शुरू होता है वो काम एक व्यवसाय के रूप में पल्लवित हो जाता है.
मार्क जकरबर्ग को देखिये - कॉलेज दिनों में पढाई के साथ वेबसाइट बनाने का
काम शुरू किया - और आज दुनिया के २५ करोड़ लोगों की पसंदीदा वेबसाइट बना
कर धनकुबेर बन गए हैं.
भारत में युवाओं को सिर्फ इतना सा सहारा चाहिए की कोई उनको उनकी राह दिखा
सके - उनको प्रोत्साहित कर सके, उनको इस नयी दुनिया में अपना पैर ज़माने
में मदद कर सके. सपनो को भी सहारा चाहिए. युवाओं को कदम कदम पर
मार्गदर्शन चाहिए. आज मार्क जकरबर्ग जैसे लोगों की कहानियां आज बहुत
लोकप्रिय है और आज का युवा उनकी तरह सफल उद्यमी बनना चाहता है. परन्तु
ये वो रास्ता है जिसमे फिसल जाने की सम्भावना भी बहुत ज्यादा है. हमें
अपने लाडलों को सफल बनाना है और नई तकनीक का मालिक भी बनाना है लेकिन
लगातार उसकी तरक्की को भी देखना और समझना है. नयी पीढ़ी को आजादी भी देनी
है तो उसको इस योग्य भी बनाना है की तकनीक का इस्तेमाल वो दुनिया में अमन
और खुशियां फैलाने में करे. मोबाइल और इंटरनेट की ये दुनिया हमारा भविष्य
बदल देगी - लेकिन हमारे युवाओं को एक मजबूत मकसद दे दिया तो वे पूरी
दुनिया के लिए अमन और भाईचारे की दुनिया बना देंगे और मोबाइल - इंटरनेट
की इस दुनिया से न केवल धन-कुबेर बन जाएंगे बल्कि दुनिया के लिए एक
उम्मीद की किरण, एक नई तकनीक, एक बेहतर सुबह लाएंगे.
एक जमाना वो था की अपने शहर से बाहर की हमें कोई खबर ही नहीं होती थी -
एक आज का जमाना है की पूरी दुनिया की ख़बरें मोबाइल में समां जाती है. एक
वो जमाना था की छोटे छोटे शहरों के बच्चों के सामने अवसर नहीं होते थे -
आज पूरी दुनिया की सारी संभावनाएं मोबाइल के जरिये हर व्यक्ति के पास है.
भारत में ६१ करोड़ से ज्यादा लोग मोबाइल का इस्तेमाल कर रहे हैं और १००
करोड़ मोबाइल कनेक्शन हैं. ४५ करोड़ लोगों के पास मोबाइल में इंटरनेट की
सुविधा है. ये संख्या लगातार बढ़ रही है. मोबाइल के साथ ही नए प्रारूप के
व्यापार की शुरुआत हो गयी है जिसमे नयी पीढ़ी के लोगो को महारत हासिल है.
तकनीक के क्षेत्र में नए ज़माने के तरीके हमारी दुनिया बदल कर रख देंगे.
आज दुनिया के श्रेश्ठतम शिक्षण संस्थान इंटरनेट से अपनी पढ़ाई करवा रहे
हैं. गावों और छोटे छोटे शहरों में बैठे लोग दुनिया की सबसे बेहतरीन
शिक्षण संस्थाओं से ऑनलाइन पढ़ाई कर रहे हैं - ये पढ़ाई सस्ती भी है और
श्रेश्ठतम शिक्षकों के द्वारा प्रदान की जा रही है.
रोजगार के नए अवसर आ रहे हैं. डिजिटल मार्केटिंग, सोशल मीडिया
एडवरटाइजिंग, सोशल मीडिया पब्लिसिटी प्रचार - प्रसार के नए साधन के रूप
में उभर कर आ रहे हैं. नयी पीढ़ी के युवा इस क्षेत्र में बहुत आगे हैं. वो
कॉलेज के दिनों में अपनी वेबसाइट खोल कर अपने व्यापार की शुरुआत कर लेते
हैं और फिर उनकी तरक्की का कोई आदि-अंत नहीं है. मार्क जकरबर्ग भी ऐसे ही
एक वेबसाइट बना कर दुनिया भर के करोड़ों लोगो के अजीज हो गए और आज पूरी
दुनिया के सबसे ज्यादा प्रभावशाली व्यक्तियों में उनका नाम है. महज ३३
वर्ष की अल्पायु में वे आज कराबपति उद्यमी और करोड़ों लोगों को जोड़ने वाले
व्यक्ति बन गए हैं.
तकनीक लोगों की मदद करने के लिए है लेकिन इस तकनीक का सही इस्तेमाल हमारे
ऊपर निर्भर है. लोगों को आपस में जोड़ने में तकनीक बहुत मददगार हो सकती है
और आज इसकी बड़ी जरुरत भी है. आस पास जहाँ भी नजर दौड़ाता हूँ, भीड़ में
घिरे अकेलों को पाता हूँ. हर व्यक्ति इस कोशिश में है की किसी तरह उसको
चाहने वाले मिल जाएँ - पर किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता. लोग मिलते
हैं - पर हमज़ुबाँ नहीं मिलता. लोग ढूंढते रहते हैं हर तरफ - कही कोई ऐसा
मिल जाए की उनको एक सहारा और जीने का मकसद मिल जाए. हर व्यक्ति सोशल
मीडिया के जरिये कुछ अपनों को ढूंढने में लगा है - जिसको भी देखो वो
मोबाइल पर अंगुलिया मारने में व्यस्त है - क्या पता कब किस को अपना महबूब
मिल जाए?
तकनीक, मोबाइल, इंटरनेट, लोगों को आबाद भी कर सकते हैं तो बर्बाद भी कर
सकते हैं. लोग इस के बेहतरीन इस्तेमाल से दुनिया में सफलता के अप्रतिम
शिखर को छू सकते हैं तो वो बर्बाद भी हो सकते हैं. आज इस का गलत इस्तेमाल
बहुत बढ़ रहा है (शायद हर नई तकनीक का शुरू में दुरूपयोग ही होता है लेकिन
बाद में उसके बेहतर इस्तेमाल का रास्ता निकलता है). आज सोशल मीडिया के
कारण लोग आपस में लड़ पड़ते हैं, धर्म और जातिगत समूह बना लेते हैं और बिना
बात के बतंगड़ शुरू कर लेते हैं. सोशल मीडिया के कारण लोग अपना सारा काम -
काज छोड़ कर सिर्फ चैटिंग करने में अपने समय को बर्बाद कर देते हैं. नयी
पीढ़ी हालांकि इस तकनीक को अच्छी तरह जानती है लेकिन इसके इस्तेमाल से
शिक्षा - प्रशिक्षण हासिल करने की जगह पर वो अपना सारा समय फिजूल में
बर्बाद कर देते हैं.
असल में हर तकनीक को इस्तेमाल करने से पहले उसके बारे में समुचित जानकारी
और प्रशिक्षणं जरुरी होता है. प्रशिक्षण के बिना व्यक्ति तकनीक का
इस्तेमाल आपसी रंजिशों में कर सकता है लेकिन प्रशिक्षण से वह व्यक्ति ये
जान सकता है की तकनीक से वो अपने भविष्य को कैसे सुधार सकता है.
अपने से छोटों को मोबाइल पर चिपके हुए जब भी देखें तो उनसे पूछे की वो
क्या करते हैं? किस प्रकार के एप्प्स का इस्तेमाल करते हैं? उनसे पूछें
की वो मोबाइल से अपने विकास के लिए क्या कर रहे हैं या सिर्फ इसका
इस्तेमाल मनोरंजन के लिए करते हैं?
आज का युवा अपनी पढ़ाई और शिक्षा के लिए १०० रूपये भी खर्च करने से पहले
चार बार सोचता है लेकिन मोबाइल और इंटरनेट पर हर साल हजारों रूपये उड़ा
देता है. ये एक भेड़-चाल है, एक फैशन है, एक नशा है और एक खतरे की घंटी
है. मैं आपको पिछले ज़माने की और जाने के लिए नहीं कह रहा हूँ - क्योंकि
मैं भी जानता हूँ की आज का युवा मोबाइल और इंटरनेट के बिना नहीं रह सकता
है. लेकिन जरुरी है की युवाओं को मोबाइल और इंटरनेट के इस्तेमाल का ज्ञान
और समझ प्रदान की जाए. युवाओं को ही आगे आना पड़ेगा और नयी पीढ़ी को ये
समझाना पड़ेगा की मोबाइल और इंटरनेट के इस्तेमाल में संयम कैसे बरते और
किस प्रकार के कार्य सीखें.
मोबाइल और इंटरनेट के जरिये नयी पीढ़ी कमाल कर रही है. रोज कोई न कोई नया
सॉफ्टवेयर या नया पैकेज आ रहा है जो लोगों की जिंदगी आसान कर रहा है. नयी
पीढ़ी अपनी तकनीकी कुशलता के कारण इंटरनेट और मोबाइल क्रांति का लाभ उठा
पा रही है. नयी पीढ़ी इस कला में दक्ष है.
मोबाइल और इंटरनेट ने व्यापार की दिशा और दशा को पूरी तरह से बदल दिया
है. नए ढंग से व्यापार हो रहा है. गावों में बैठे लोग इंटरनेट से अपने
सामान को पूरी दुनिया में बेच रहे हैं. भारत में इस प्रकार के व्यापार की
प्रचुर संभावनाएं है. आज -कल
विद्यार्थी अपने खाली समय में कोई नयी वेबसाइट बना लेते हैं और देखते ही
देखते वो वेबसाइट उन के लिए आज का जरिया बन जाता है. जो काम एक शौक के
रूप में शुरू होता है वो काम एक व्यवसाय के रूप में पल्लवित हो जाता है.
मार्क जकरबर्ग को देखिये - कॉलेज दिनों में पढाई के साथ वेबसाइट बनाने का
काम शुरू किया - और आज दुनिया के २५ करोड़ लोगों की पसंदीदा वेबसाइट बना
कर धनकुबेर बन गए हैं.
भारत में युवाओं को सिर्फ इतना सा सहारा चाहिए की कोई उनको उनकी राह दिखा
सके - उनको प्रोत्साहित कर सके, उनको इस नयी दुनिया में अपना पैर ज़माने
में मदद कर सके. सपनो को भी सहारा चाहिए. युवाओं को कदम कदम पर
मार्गदर्शन चाहिए. आज मार्क जकरबर्ग जैसे लोगों की कहानियां आज बहुत
लोकप्रिय है और आज का युवा उनकी तरह सफल उद्यमी बनना चाहता है. परन्तु
ये वो रास्ता है जिसमे फिसल जाने की सम्भावना भी बहुत ज्यादा है. हमें
अपने लाडलों को सफल बनाना है और नई तकनीक का मालिक भी बनाना है लेकिन
लगातार उसकी तरक्की को भी देखना और समझना है. नयी पीढ़ी को आजादी भी देनी
है तो उसको इस योग्य भी बनाना है की तकनीक का इस्तेमाल वो दुनिया में अमन
और खुशियां फैलाने में करे. मोबाइल और इंटरनेट की ये दुनिया हमारा भविष्य
बदल देगी - लेकिन हमारे युवाओं को एक मजबूत मकसद दे दिया तो वे पूरी
दुनिया के लिए अमन और भाईचारे की दुनिया बना देंगे और मोबाइल - इंटरनेट
की इस दुनिया से न केवल धन-कुबेर बन जाएंगे बल्कि दुनिया के लिए एक
उम्मीद की किरण, एक नई तकनीक, एक बेहतर सुबह लाएंगे.
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