Tuesday, August 29, 2017

कहाँ ढूंढूं मेरे बाग़ का माली?


सहनशील और संतोषी बीकानेर में भी आज कल लोग झगड़ पड़ते हैं. कभी हंसी-ख़ुशी
की पर्याय मानी जाने वाली गलियों में आज कल सन्नाटा है. छोटी - छोटी
बातों पर भी लोग तनाव में आजाते हैं. नए ज़माने (युवाओं के) के तो मानो
"ये खतरा है" का बोर्ड लगा देना चाहिए - क्योंकि पता नहीं उसको कब गुस्सा
आ जाए? क्या हो रहा है? कहाँ गया हमारा अल्हड पन? शहर में तरक्की जो हो
रही है वो कुछ अनचाहे क्षेत्रों में हो रही है - जैसे तलाक बढ़ रहे हैं -
तनाव  बढ़ रहा है - तम्बाकू ,  सिगरेट और  शराब का प्रचलन बढ़ रहा है -
मनोरोगी बढ़ रहे हैं.  खैर हम तो ये ही सोच के खुश हो जाते हैं की ये शहर
आज भी उन तथाकथित विकसित शहरों से अच्छा है जहाँ रोज कोई न कोई आत्मह्ता
कर रहा है. परन्तु बिना कारण कुछ नहीं होता है? क्या कारण है?  आज ये
जरुरी है की हम विकास (या विनाश) की इस राह का अच्छे से चिंतन और
मूल्यांकन करें. विज्ञापन - प्रचार प्रसार - और मीडिया - किसी उद्योग और
किसी व्यवसाय को बढ़ा सकती है लेकिन उसके साथ ही सामाज का भी कायाकल्प कर
देती है - जो जरुरी नहीं की अच्छा ही हो. विज्ञापन और देखा - देखि में हम
कहीं अपने पावों पर कुल्हाड़ी तो नहीं मार रहे हैं? विकास के नाम पर कहीं
हम मीठा जहर तो नहीं पी रहे हैं? प्रश्न पूछिए - विश्लेषण करिये - हम तो
इंसान हैं - भेड़-चाल क्यों चलें? आज हम बात करते हैं की हम बच्चों के
विकास के लिए क्या कर रहे हैं? क्या कारण है की अत्यधिक प्रतिभावान
विद्यार्थी बहुत ही ज्यादा तादाद में तनाव, कुंठा, हताशा, आक्रोश के
शिकार हो जाते हैं? क्या कारण है की उच्च शिक्षा प्राप्त आज के
विद्यार्थी अपने ही बुजुर्गों को वांछित सम्मान नहीं दे पाते हैं?
आज कल  एक  नया  दौर  चल   रहा है.  २-३ साल के  बच्चों  को "डे
बोर्डिंग" स्कुल में दाखिल करवा दिया जाता है. माता पिता अपने आपको मुक्त
महसूस करते हैं और सोचते हैं उन्होंने अपने कर्तव्य का निर्वाह किया. कई
"प्ले स्कुल" है जो आकर्षक विज्ञापन और प्रचार के जरिये ये साबित करने की
कोशिश करते हैं की वे बच्चों को भविष्य का महान वैज्ञानिक या गणितज्ञ बना
देंगे. आज कल ये प्रचलन भी बढ़ गया है की माता - पिता बच्चों को आवासीय
विद्यालयों को दाखिला करवा देते हैं - और फिर  ३-४ साल का अबोध मासूम
अपना पूरा बचपन उस आवासीय विद्यालय में बिताता है. एक और प्रकार के माता
- पिता है - जो अपने घर पर टीवी के आगे अपने बच्चों को छोड़ देते हैं और
बड़े आराम से पुरे समय टीवी का आनंद लेते हैं. इस तरह के कई प्रकार और भी
है - शायद आप अपने आस पास देख कर उन प्रकारों को भी इस सूचि में जोड़ सकते
हैं. बच्चों के विकास में कोई त्रुटि रह जाती है तो उसका खामियाजा अगली
पीढ़ी को भुगतना पड़ता है.
मुझे बड़ा अफ़सोस होता है जब मैं छोटे छोटे बच्चों को गोद में उठाये  उनके
माता - पिता को एडमिशन के लिए  स्कूलों के धक्के खाते देखता हूँ. वे ये
मान लेते हैं की फलां स्कुल में मेरे बच्चों का एडमिशन नहीं हुआ तो उनका
तो भविष्य ही बर्बाद हो जाएगा. मुझे बड़ा अफ़सोस होता है ये देख कर की
दुनिया की सबसे अच्छी प्रशिक्षिका अपने जिगर के टुकड़े को प्रशिक्षित करने
की जिम्मेदारी से मुक्त हो किसी स्कुल को ये जिम्मेदारी देना चाहती है. ३
साल के अबोध लाडलों को मन मार कर स्कुल भेजा जाता है और बुजुर्गों / बड़े
लोगों से दूर रखा जाता है ताकि बच्चों का उच्चारण खराब न हो. क्या लगता
है आपको ऐसी सोच पर? बच्चो के विकास में सबसे ज्यादा जरुरी क्या है?
इंसान अपने जीवन के पहले सात वर्षों में मूल संस्कार ग्रहण करता है. उसकी
अपने बारे में, अपने आसपास के बारे में धारणा बनती है और आदतें बनने लग
जाती है. पहले सात वर्षों में हम जिस प्रकार की बात कहेंगे - वो पूरी
जिंदगी हमारी चेतना में रहेगी - और हमारी जिंदगी भर की तरक्की उन सात
वर्षों पर निर्भर है. हमें याद रहे या न रहे - ये बातें जो हम सात वर्ष
तक सुनते हैं - हमारे हर निर्णय का आधार होती है. हमारा विकास इस बात पर
निर्भर है की हमें हमारे बचपन मैं कैसे विचार, कैसा प्रोत्साहन, और कैसा
दुलार मिला है? बच्चों में चेतना के विकास में माता - पिता और बड़ों का
प्यार भरा स्पर्श बहुत महत्त्व रखता है. आज तो विज्ञान भी इस बात को मान
रहा है की भारतीय व्यवस्था जिसमे बच्चों को सर पर हाथ फेर कर आशीर्वाद
दिया जाता है -  वाकई बहुत असरदार है. परम्परागत भारतीय परिवारों में
बच्चे बड़ों को प्रणाम करते हैं और बदले में बड़े उनके सर पर हाथ फेर कर
आशीर्वाद देते हैं. एक छोटे बच्चे को दिन में कम से कम ३० बार प्यार भरा
स्पर्श चाहिए ताकि उसकी चेतना का विकास हो. जब बड़े लोग उसके सर पर हाथ
फेरते हैं तो उसकी बौद्धिक चेतना का विकास होता है. जैसे ही छोटे बच्चे
बड़ों को प्रणाम करते हैं - बड़े व्यक्ति उस को आशीर्वाद में कुछ न कुछ
जरूर कहते हैं - "जैसे खूब तरक्की करो" आदि. ये शब्द बहुत असरदार होते
हैं. बच्चे दिन भर में कम से कम ३०-४० इस प्रकार के वाक्य सुन लेते हैं
जो उनकी अन्तः चेतना में जाते हैं और पूरी जिंदगी उनकी तरक्की में योगदान
देते हैं. शुरू के सात वर्षों तक बच्चों को नकारात्मक वाक्यों और
नकारात्मक माहौल से दूर रखने की जरुरत है ताकि उसके अंदर एक सकारात्मक
दृश्टिकोण का विकास हो और उसके अन्तः मन में सकारात्मकता भर जाए.
मेरे मित्र प्रोफ़ेसर भारत भूषण वर्मा मलेशिया में रहते हैं. अपने बच्चों
को उन्होंने अभी तक किसी भी स्कुल में दाखिला नहीं दिलाया है. वो दोनों
अपने बच्चों को खुद पढ़ाते हैं - और ये कहूंगा की बच्चों को उनकी रूचि के
अनुसार कार्य करने देते हैं और पूरा मार्गदर्शन देते हैं. उनका ७ वर्षीय
लड़का पाइथन प्रोग्रामिंग का शौक रखता है और वो पाइथन प्रोग्रामिंग के
इंजीनियरिंग के प्रथम वर्ष के विद्यार्थी से अच्छी प्रोग्रामिंग कर सकता
है. प्रोफ़ेसर वर्मा हर सप्ताह २ दिन पूरी तरह से बच्चों के विकास के लिए
समर्पित करते हैं और उनकी पत्नी तो पूरी तरह से बच्चों पर ही अपना सारा
समय लगाती है. वे बच्चों को हर कर्म शौक से करने के लिए प्रेरित करते हैं
और बच्चों के साथ हर पल आनंद से बिताते हैं. बच्चों के साथ तैराकी में
उनको बड़ा आनंद आता है.उनकी छोटी बेटी को नृत्य का शौक है. उन्होंने एक
नृत्य प्रशिक्षक से अनुरोध किया और रोज अपनी बेटी को उसके पास एक घंटे के
लिए ले जाते हैं. उनकी ५ वर्षीय बेटी कत्थक नृत्यांगना है और उसके साथ वे
भी तल्लीन हो कर कत्थक नृत्य का आनंद लेते हैं. वे हर महीने बच्चों को
किसी नयी जगह पर ले जाते हैं जहाँ पर बच्चों के साथ वे भी ज्ञान हासिल
करते हैं और हर पल का आनंद लेते हैं. उनके बच्चों ने शेर - भालू को पहली
बार किताबों में नहीं देखा बल्कि जंगल में आँखों के सामने देखा. उनके
बच्चे अक्षर ज्ञान को रटते नहीं हैं बल्कि उसको आनंद के साथ जीते हैं.
अभी उनके बच्चे रोज १ घंटे का समय चीनी लोगों के साथ बिताते हैं और इस
प्रकार उनको चीन की भाषा का ज्ञान हो रहा है. प्रोफ़ेसर वर्मा बच्चों के
शौक के अनुसार पुस्तकें लाते हैं और उन पुस्तकों को वे बड़े शौक से बच्चों
के साथ पढ़ते हैं और खुद भी ज्ञान अर्जित करते हैं. प्रोफ़ेसर वर्मा के
बच्चों की आदतें और उनके संस्कार देख कर हम अचंभित तो हो सकते हैं लेकिन
इससे हम क्या सीख लेते हैं ये महत्वपूर्ण है.
आज ये वक्त आ गया है की हम अपने आप से पूछें की बच्चों को प्यार भरा
स्पर्श कितनी बार किया? अपना ध्यान टीवी या मोबाइल से हटा कर के बच्चों
की तरफ करने से हमें जो आनंद आएगा वो अकल्पनीय होगा - इससे भी ज्यादा
महत्वपूर्ण ये बात है की बच्चों के अन्तः मन में हमारे प्रति इतना प्यार
और आदर होगा की हमारा बुढ़ापा उनके कन्धों के सहारे आराम से कट जाएगा. आज
से ही घर - परिवार में इस प्रकार से रहना शुरू करना है की बच्चों को दिन
भर में कम से कम ३० लोगों से आशीर्वाद मिले और वो भी इतने प्यार से की
बच्चों का रोम रोम आत्मविश्वास से भर जाए. अगर ७ साल तक हम बच्चों के
अंदर आत्मविश्वास और सुकृत्य का दृढ़संकल्प कूट कूट कर भर देंगे तो दुनिया
की कोई ताकत उनको डिगा नहीं पाएगी. एक जीवंत उदाहरण देना चाहूंगा. श्री
जगदीश भाई पटेल अंधे और लकवा ग्रस्त थे. उनका बचपन अपनी मा की छत्र छाया
में ही बीता. अपनी असहाय अवस्था में वे व्याकुल हो कर माँ से पूछते थे -
मैं क्या करूँगा इस दुनिया में जिसमे न तो चल पाता हूँ न ही देख पाता हूँ
- उनकी माँ उनको आत्मविश्वास से भर देती थी. वो कहती थी की जब तुम बड़े
होवोगे तो बहुत बड़ा काम करोगे - ये विश्वास रखो. वक्त गुजरता गया.विकलांग
होने के बावजूद श्री पटेल ने अद्भुत काम किये. उनके असाधारण कार्यों के
कारण उनको पाढ़म श्री और पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया. उनके द्वारा
स्थापित "ब्लाइंड पीपल एसोसिएशन" आज पूरी दुनिया के सामने एक आदर्श
संस्था है जिससे हर वर्ष हजारों विकलांग लोग प्रशिक्षित हो आत्मविश्वास
और दक्षता से भर जाते हैं. आईये श्री पटेल की माँ को सलाम करें जिन्होंने
अपने लाडले को पलकों पर बिठाये रखा और अनगिनत आशीर्वाद दिए.
यकीन मानिये आपके एक एक शब्द में ताकत होती है. सदा सकारात्मक बात करिये
- सदा प्रोत्साहन दीजिये - अपने दुश्मन के बुरे के लिए भी मत सोचिये.
भारतीय दर्शन का तो आधार ही ये ही है "सबका मंगल हो" तो फिर आप क्यों
पीछे रहिये - हर व्यक्ति को मंगल-कारी होने के लिए प्रेरित करिये.

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