Saturday, June 4, 2016

मेरे शहर को गाव बना रहने दो ( पांच शताब्दियों का अपनापन यानि : बीकानेर)


किसी भी शहर का स्थापना दिवस उस शहर के लोगों के लिए बहुत महत्व्पूर्ण होता है और उस शहर के लोग उसको बड़े दिल से मानते हैं. बीकानेर की स्थापना दिवस पर मैं तो ये ही कामना करता हूँ की इस शहर की अद्भुत संस्कृति और इस शहर का अपनापन बना रहे. कुछ लोग अफ़सोस कर रहे हैं की बीकानेर को स्मार्ट सिटी का दर्जा नहीं मिला. मैं तो बहुत खुश हूँ मेरे इस शहर मैं और मैं तो नहीं चाहता की इस शहर की आबोहवा को कोई नजर लगे और कोई इस शहर को मेट्रो शहर के जैसा बनने की कोशिश करें. मुझे इस शहर के तथाकथित पिछड़ेपन में इसका अद्भुत सौंदर्य और अद्भुत वात्सल्य नजर आता है. 

बीकानेर एक शाहर नहीं एक कुनबा, एक गाव, या एक बड़ा परिवार है. ये एक अद्भुत संस्कृति है जहाँ पर लोगों में अपनापन, आपसी भाईचारा, और सहजता है. इस शहर के समकक्ष शहर अपने आप को स्मार्ट सिटी घोषित करवा क्र गर्व महसूस कर सकते हैं लेकिन बीकानेर जीतन संतोष और आनंद कहीं और कहाँ है  अतः, जिसको आनंद और उल्लास चाहिए उसको तो बीकानेर ही आना पड़ेगा. 

आज जब पूरा शहर अपने स्थापना दिवस को मनाने की तयारी कर रहा है तो जरूरत है की इस शहर को अद्भुत बनाने   वाली इसकी संस्कृति को बचाने और पल्लवित करने की कोशिश की जाए 

कहाँ मिलेंगे पाटे
लोगों में आपसी तालमेल बनाये रखने के लिए पाटे की संस्कृति अद्भुत  और अद्वितीय  है - इसको  आगे  कैसे  फैलाएं ? 

कहाँ मिलेंगे मोहल्ला पुस्तकालय 
बीकानेर में हर मोहल्ले में पुस्तकालय होते थे. उस परम्परा को अजित फाउंडेशन ने चालु रख और मोहल्ला पुस्तकालय की परम्परा  को जीवंत  रखा . इस अभिनव प्रयास को साधुवाद.  साहित्य और संस्कृति का आपस में गाढ़ा   रिश्ता होता है. पुस्तकालय ही हमारे   शहर को बचा  पाएंगे   

कहाँ मिलती है ऐसी मिठास 
"भइला" "भतीज" "काकोसा" शब्द तो ऐसे जो दिल को छू जाए. शब्दावली ऐसी जहाँ पर हर इंसान को अपनेपन से सम्बोधन. यही तो मेरे शहर को अद्भुत बनता है. 

शहरी सभ्यता खतरे में 
भारत   ही नहीं पूरी दुनिया में शहरी सभ्यता खतरे में है. गाव और ढाणी ही जीवन को सुरक्षित रख पा  रही है. शहरी सभ्यता को जंग लग रही है. शहर के शहर तबाह  हो  रहे  हैं. अबकी   बार  चुनौती इटरनेट से आ रही है. अश्लील फ़िल्में और परिवारों को तबाह  करने की संस्कृति इंटरनेट  से बरस  रही है. इस aandhi में परिवार के परिवार उजड़ रहे हैं. तथाकथित विकसित देशों में तलाक, टूटते  परिवार, और चरित्रहीन समाज  की विभीषिका  शहरों  को नेस्तनाबूद  कर रही है. हमारे शहर को अभी  तक  अगर  किसी  ने बचा रखा है तो वो हैं शहर के प्रबुद्ध चिंतक लोग  (जैसे संवित सोमगिरि जी ) जिन्होंने  शहर की आध्यात्मिकता  को आज भी बचा कर रखा है. उस बची  खुची  आध्यात्मिकता  के कारण ही ये शहर अाज भी बीकानेर की अद्भुत संस्कृति का रखवाला  बना  हुआ  है. 

जिंदगी के मकसद से दूर भागती मेट्रो शहरों की संस्कृति 
देश में आर्थिक विकास के साथ ही मेट्रो शहरों का भौतिक विकास होता जा रहा है. बीकानेर जैसे शहरों के लिए तो बजट नहीं होता है पर मेट्रो शहरों के विकास को देख क्र कोई भी चकित हो जाता है और हम जैसे लोग उन शहरों की चकाचौंध से एक बार तो आकर्षित हो ही जाते हैं. शहरों की खूबसूरती और ढांचागत विकास से शहरों की प्रमाणिकता का कोई सम्बन्ध नहीं है. उस शहर का क्या जहाँ पर जा क्र मैं जिंदगी के मकसद को भूल जाऊं. उस शहर का क्या जहाँ पर जा कर लोग इंसानियत ही भूल जाएँ. उस शहर का क्या जयन पर जा कर लोगों में आपसी भाईचारा और अपनापन ही न रहे. भौतिकता का चरम अगर हमें अपने मकसद से दूर करता है तो उस भौतिकता का क्या मकसद? मेरे शहर में आज भी आध्यात्मिकता जिन्दा है. मेरे शहर में आज भी लोगों को जिंदगी का मकसद पता है. मेरे शहर में आज भी लोगों इंसान को भौतिकता से ज्यादा तबज्जो देते हैं. तो मेरे इस शहर की इस खासियत को मैं दिल से सलाम करता हूँ. 

आइए शहर को अपने मौलिक स्वरूम में बनाये रखें. आइए मेरे शहर को गाव ही बना रहने दें. आइए देश के आलाकमान को कहदें की आपने हमारे शहर को स्मार्ट सिटी के लिए उचित नहीं मान कोई बात नहीं  लेकिन जब भी आपको अपनेपन की मिसाल देने की लिए किसी शहर की जरुरत पड़े तो वो बीकानेर ही होगा. आइये अपने इस शहर को इसकी अद्भुत पहचान के लिए नमन करें और इसकी इस खुशबु को पूरी दुनिया में फैलाने का प्रयास करें. 

टूटते परिवार - शिक्षा व् प्रशिक्षण से - जुड़ते परिवार

१५ मई को अंतर्राष्ट्रीय परिवार दिवस के रूप में मनाया जाता है. परिवार व्यवस्था के बारे में बात करने के लिए ये दिवस एक सुनहरा मौका है.  परिवार व्यवस्था हमारी समाज व्यवस्था का महत्व्पूर्ण आधार स्तम्भ है. परिवार का मतलब है की लोग किस प्रकार एक दूसरे के लिए त्याग, समर्पण, प्रेम और अद्भाव रखते हैं. ये हमारे समाज के अस्तित्व के लिए जरुरी है. पर क्या हम परिवार व्यवस्था को मजबूत बनने के लिए कुछ कर रह हैं. 
जिस तेजी के साथ मीडिया और प्रचार तंत्र "लिवइन रिलेशनशिप" के पाठ पढ़ा रहा है और जिस तेजी से परिवार टूट रहे हैं - हम जल्द ही एक समाज विहीन भीड़ का निर्माण करने वाले हैं जहाँ पर व्यक्ति के विकास या उसके संरक्षण के लिए कोई जिम्मेदार नहीं होगा. परिवार एक सस्था के रूप में टूट रहा है क्योंकि उसको तोड़ने की साजिश हो रही है. 
परिवार नामक संस्था हमारे विकास, संरक्षण, सामजिक सुरक्षा प्रेम और अपनापन की सबसे मजबूत नींव रही है. परिवार में बच्चों को संस्कार, बड़ो को सम्मान, और युवाओं को प्रेम और अपनापन मिल जाता है. परिवार वो संस्था है जहाँ पर हर व्यक्ति खुश रह सकता है और जहाँ पर हर व्यक्ति के विकास के लिए कोई न कोई उपाय है. परिवार लोगों को जिम्मेदारी भी देता है तो उनको अनुशाशन में भी बांधता है. परिवार सामाजिक सुरक्षा का सबसे सशक्त माध्यम है. परिवार विकलांग, असहाय, मंदबुद्धि, और लाचार लोगों को भी प्रश्रय देता है तो सक्षम लोगों को और अधिक सक्षम बनाने में मदद करता है. 

विद्वानों ने पाया है की एक स्वस्थ परिवार मिलने से व्यक्ति का व्यक्तित्व सकारात्मक हो जाता है लेकिन टूटते परिवारों और परिवार में द्वेष के होने से व्यक्ति हिंसक हो जाता है. जहाँ जहाँ पर परिवार ज्यादा टूट रहे हैं वहां पर अपराध बढ़ रहे हैं. 
परिवार के विकास और पारिवारिक जीवन को सीखने के लिए कुछ जरुरी शर्तें हैं जैसे : - 
परिवार के विकास के लिए समर्पण का भाव होना जरुरी है. 
परिवार के प्रति निष्ठां, आदर, विश्वास, व् सम्मान की भावना का होना जरुरी है. 
परिवार में मिल- बाँट कर संसाधनों का उपयोग करने की प्रवृति होना जरुरी है. 
परिवार में सभी लोगों के साथ समय निकालना और सबके साथ सुख दुःख में हाथ बंटाना जरुरी है. 
उपर्युक्त शर्तें पूरी होगी तभी परिवार सफल होगा और व्यक्ति परिवार को और परिवार व्यक्ति को अपना पाएगा. लेकिन ये अपने आप नहीं हो सकता है. पारिवारिक जीवन शैली को सीखना पड़ता है. पारिवारिक व्यवस्था को सिखाने के लिए पहले परिवार वयवस्था में प्रशिक्षण की व्यवस्था थी. लेकिन आधुनिक समय में माँ बाप बच्चे को तुरंत हॉस्टल में दाल देते हैं और वो सार प्रशिक्षण स्कुल व् कॉलेज से ही अपेक्षा करते हैं. न तो स्कुल और न कॉलेज में पारिवारिक व्यवस्था का प्रशिक्षण दिया जाता है. हॉस्टल में जिस प्रकार की स्वतंत्र जीवनशैली फ़ैल रही है वो परिवार व्यवस्था के लिए घातक है. आजादी के नाम पर जिस प्रकार की जीवनशैली युवा वर्ग अपना रहा है वो हमारे लिए खतरा है. हमारे सामने एक खतरनाक भविष्य है. अगर परिवार और समाज को बचाना है तो पारिवारिक जीवन शैली का प्रशिक्षण शुरू करना पड़ेगा.

एक शोध में विद्यार्थियों से उनकी  ५ प्राथमिकताओं को लिखने के लिए कहा गया. ३०० विद्यार्थियों पर हुए उस शोध में परिवार को किसी भी विद्यार्थी ने अपनी प्राथमिकता में नहीं लिखा. कक्षा प्लेग्रुप से  स्नातकोत्तर तक की लगभग १८-१९ साल की पढ़ाई में एक कोर्र्स भी परिवार व्यवस्था के सफल सञ्चालन के प्रशिक्षण के लिए नहीं है. एक तरफ देश में ऐसे लोग उभर कर सामने आ रहे हैं जो सेक्स एजुकेशन, लिव इन रिलेशनशिप,  फ्री इंटरनेट आदि की वकालत कर रहे हैं लेकिन परिवार व्यवस्था के प्रशिक्षण के लिए शिक्षा पर कोई भी नहीं बोल रहा है. मीडिया भी हॉबी क्लासेज, कुकिंग,  करियर, व् स्टार्टअप पर इतनी चर्चा कर सकता है लेकिन परिवार व्यवथा पर तो ये भी मौन है. क्या वाकई हम परिवार व्यवस्था के महत्त्व को समझ पा रहे हैं या नहीं? 

हमारे देश की संस्कृति की आधारशिला हमारी अद्भुत परिवार व्यवस्था को बचाने के लिए आप हम सबको प्रयास शुरू करना पड़ेगा और हर स्कुल और कॉलेज को परिवार व्यवस्था के विषय पर प्रशिक्षण को शुरू करना पड़ेगा. बचपन से ही परिवार व्यवस्था का प्राशिसं जरुरी  है. इससे हमारे देश, समाज, और संस्कृति को बचने में मदद मिलेगी. मैं मीडिया से भी अनुरोध करूँगा की हमारे परिवार व्यवस्था को बचने में मदद करें और "लिव इन रिलेशनशिप" जैसे सामाजिक जहर को न फैलाए. व्यक्तिगत आजादी के नामं पर विकृतियां समाज में फ़ैल रही हैं जो हमारे समाज को खत्म कर सकती है. आइये समय रहते हम कुछ ठोस प्रयास शुरू करें. 

जैव विविधता को बचाने के लिए मिल कर करें प्रयास

२२ मई को जैव विविधता दिवस के रूप में मनाया जाता है. दुनिया के विकास के लिए जैव विविधता को पूरी दुनिया में अपनाना जरुरी है. जैव विविधता को बचने के लिए भारत को पूरी दुनिया में नेतृत्व देना है.  
भारत का पूरी दुनिया में अहिंसा, करूणा और जैव विविधता को फैलाने के लिए
बड़ा नाम है. आज भारत को पूरी दुनिया में एक नेतृत्व देना है. आज भारत को
अपने आप को पूरी दुनिया में जैव विविधता को बढ़ावा देने के लिए एक आदर्श
देश के रूप में स्थापित करना है. ये काम सिर्फ कानून से नहीं हो सकता है.
इसके लिए प्रबल इच्छा शक्ति और संगठित प्रयास चाहिए. १९९२ में यूनाइटेड
नेशन्स की कांफ्रेंस के बाद कन्वेंशन ऑन बायोडायवर्सिटी नामक संधि शुरू
की गयी जिस पर अब तक अधिकाँश देशों ने हस्ताक्षर कर दिए हैं और इसके तहत
हर देश के ऊपर जैव विविधता को फैलाने का अंतरास्ट्रीय दबाव है. ये एक
बहुत अच्छी शुरुआत हुई है. आज अनेक अंतरास्ट्रीय संगठन जैसे वर्ल्ड
वाइल्डलाइफ फण्ड आदि इस दिशा में महत्व्पूर्ण काम कर रहे हैं. भारत के
करुणाप्रिय लोगों को भी इस दिशा में अपना वर्चस्व दिखाना चाहिए.

ऑस्ट्रेलिया की एक शोध संस्था के अनुसार हर साल ७०००० स्पीशीज (प्रजातियां)  लुप्त हो
रही है यानि रोज तकरीबन २०० प्रजातियां लुप्त हो रही हैं. ये धरती के
इतिहास की सबसे बड़ी घटना है. इतनी ज्यादा प्रजातियां धरती के इतिहास में
कभी भी लुप्त नहीं हुई है. प्रश्न है की ऐसा क्यों हो रहा है. १९०० में
मानव प्रजाति सिर्फ १.७५ खरब थी जो अब बढ़ कर के ६ खरब से भी ज्यादा हो गई
है. मानव के बढ़ते बोझ के कारण अन्य प्रजातियां लुप्त हो रही हैं. जब भी
मानव की आवश्यकता होती है तो जंगल, जल और हवा पर अपना कब्ज़ा बढ़ा दिया
जाता है. जंगल के जंगल काट दिए जाते हैं. जानवरों व् पक्षियों को नस्ट कर
दिया जाता है. जल और हवा को प्रदूषित कर दिया जाता है. प्रजातियों के बाद
प्रजातियां नष्ट हो रही है और फिर एक दिन सिर्फ इंसान बचेगा - वो भी
अकेला तो नहीं रह पाएगा. कौन जिम्मेदार है ?

क्या आप को अपने आसपास उतने चील, कौवे, गिद्ध, डोडकाग व् घघु दिखाई देते
हैं जितने पहले दिखाई देते थे? क्या आपको अपने आस पास के क्षेत्र में
उतनी वनस्पतियां दिखाई दे रही हैं जितनी पहले देखने को मिलती थी. धोड़ा
धोड़ा परिवर्तन आप भी महसूस कर रहे होंगे. ये फर्क पूरी दुनिया महसूस कर
रही है. प्रयास सबको करने पड़ेंगे.

नेतृत्व के लिए भारत ही क्यों? 
जैव विविधता के क्षेत्र में नेतृत्व के लिए भारत को आगे आना पड़ेगा क्योंकि भारत आज भी पूरी दुनिया में इस क्षेत्र में सबसे आगे है. आज भी पूरी दुनिया को जैव विविधता का पाठ पढ़ाने के लिए भारत से बेहतर देश कोई नहीं हो सकता है. विगत कुछ वर्षों में करुणा इंटरनेशनल, पेटा, व् मेनका गांधी के प्रयासों से भारत इस दिशा में अग्रणी भूमिका निभा रहा है. जानवरों के प्रति हमारे द्रिस्टीकोण में परिवर्तन आया है. पर्यावरण के प्रति हम जिम्मेदार हो गए हैं. आज पूरी दुनिया में भारत ही एक मात्र देश है जहाँ पर कई मामलों में प्राणियों के प्रति अद्भुत करुणा और व्यापक सोच देखने को मिलती है. जितनी  गोशाला भारत में है उतने कहीं नहीं है. ये एक गर्व की बात है की भारत मेंपर्यावरण और प्राणी मात्र के प्रति अद्भुत करुणा का भाव आम व्यक्ति में पारिवारिक संस्कार से ही मिल जाता है. 

भारत ने जानवरों पर प्रयोग की हुई लिपस्टिक व् अन्य कॉस्मेटिक्स के प्रोडक्ट्स पर पूरी तरह से प्रतिबन्ध है. भारत में जानवरों पर क्रूरता प्रतिबंधित है. भारत में जंगलों को काटने के खिलाफ जन आंदोलन हुए हैं और लोग जंगलों पर पेड़ों की महिमा को समझ रहे हैं. पीपल बेल बड़ और नीम के पैड  और तुलसी के पोधे की तो पूजा की जाती है.  अलग अलग प्रांतों में अलग अलग प्रकार की वनस्पतियां उगाई जाती है. पडोसी देशों में जानवरों की बलि आदि के लिए जानवर भारत से ले जाए जाते थे लेकिन भारत सरकार ने उस पर प्रतिबन्ध लगा दिया है. ये वो देश है जहाँ पर प्राणी मात्र के प्रति करुणा का भाव रखा जाता है और पर्यावरण के प्रति जिम्मेदारी का भाव घर परिवार में संस्कारों के द्वारा सिखाया जाता है. 

आर्थिक सम्पन्नता में हम अमेरिका से पीछे हैं लेकिन जैव विविधता के क्षेत्र में अपने प्रयासों से हम पूरी दुनिया दो दिशा दिखा सकते हैं और धरती मान को बचाने के लिए जैव विविधता एक जरुरत है. 

विद्यार्थियों को दीजिये व्यावहारिक शिक्षा


परीक्षा परिणाम आ रहे हैं. विद्यार्थी परेशान हो रहे हैं. क्या करें? हम जब पढ़ते थे तो गिने चुने पाठ्यक्रम होते थे - या कम से कम को जानकारी गिने चुने पाठ्यक्रमों की होती थी. आज तो बाढ़ है और विद्यार्थी को नहीं पता वो क्या करे. ऊपर से विद्यार्थियों के मन में ये जिद होती है की वो पाठ्यक्रम का चुनाव अपने आप करेंगे न की मात पिता के कहने पर कोई पाठ्यक्रम करने को राजी हो जाएंगे. लगता है जमाना बदल गया है. आज हर विद्यार्थी 12वि के बाद सपनों के उड़न खटोलों पर होता है. जमीनी हकीकत से बिलकुल बेखबर. लेकिन इन सब के बावजूद विद्यार्थियों में व्यावहारिक कौशल सीखने की प्रबल तमन्ना है. विद्यार्थी वो सीखना चाहता है जिससे वो अपने आप में परिवर्तन महसूस कर सके. 

आज तो चुनौती शिक्षण संस्थाओं के सामने है की वो अपने पाठ्यक्रम को कैसे व्यावहारिक बनाए और विद्यार्थी की सही अर्थों में मदद करे. विद्यार्थी ३ साल की पढाई के बाद बेरोजगारों की पंक्ति में नहीं खड़ा होना चाहता. आज ज्यादा से ज्यादा विद्यार्थी वो पाठ्यक्रम करना चाहते हैं जिसमे उनको साथ में व्यावहारिक हुनर व् दक्षता का प्रशिक्षण मिले ताकि वो बाद में अपना रोजगार / स्वरोजगार उसी से बना सकें. विद्यार्थी आज अपने आप को सैद्धांतिक शिक्षा के व्याख्यानों में नहीं देखना चाहता है. विद्यार्थी अपने आप को एक दक्ष व् परिपक्व व्यक्ति के रूप में निखारना चाहता है. 

नए ज़माने में नयी तकनीक के दौर में विद्यार्थी को उन पाठ्यक्रमों को करना चाहिए जिनकी आने वाले समय में बहुत मांग होगी. मसलन प्रोडक्ट डिजाइनिंग, आर्गेनिक फार्मिंग, एनवायरनमेंट ऑडिट, क्वालिटी मैनेजमेंट, सोलर एनर्जी, विंड एनर्जी, डिजिटल मार्केटिंग, फिल्म मेकिंग, सोशल मीडिया मैनेजमेंट, बिग डेटा एनालिटिक्स, हॉस्पिटैलिटी, आदि वो क्षेत्र हैं जिनकी आने वाले समय में बड़ी मांग होगी. ये सभी क्षेत्र एक उदहारण के रूप में बताये गए हैं. ऐसे बहुत से क्षेत्र हैं जिनमे आने वाले समय में बहुत मांग होगी. विद्यार्थी अद्भुत क्षमता रखता है लेकिन ज्यादातर पाठ्यक्रम उसको पूरी तरह से शामिल ही नहीं कर पाते हैं. इसके कारण विद्यार्थी अपनी क्षमता का सिर्फ २०% ही तैयार कर पाता है. विद्यार्थी में जो क्षमता है और जो अदम्य सम्भावना है उसका पूरा विकास तो होना ही चाहिए. 

अधिकाँश विद्यार्थी 12वि के बाद जल्दबाजी में कोई पाठ्यक्रम चुन लेते हैं और बाद में पछताते हैं. वो बाद में अपने पाठ्यक्रम को बदल भी नहीं पाते हैं और पूरी जिंदगी उनको मलाल रहता है. लेकिन जो विद्यार्थी व्यावहारिक शिक्षा में शामिल हो पाते हैं वो पूरी तरह से तल्लीन हो जाते हैं और ये सोचने का समय ही नहीं मिल पाता की पाठ्यक्रम कैसा है. लगातार म्हणत करनी पड़ती है और लगातार प्रशिक्षण लेना पड़ता है. ३ साल बाद तो विद्यार्थी पूरी तरह से दक्ष और हुनर मंद हो जाता है. विद्यार्थी की ये सफलता ही तो शिक्षण संस्था का उद्देश्य होता है. 

बड़ी संख्या में विद्यार्थी अपनी पढ़ाई छोड़ देते हैं - वो इस कारण से क्योंकि उनको सिर्फ सैद्धांतिक शिक्षा मिल रही होती है और उस शिक्षा में उनको अपना कोई भविष्य नहीं नजर आता है. अगर विद्यार्थी को व्यावहारिक शिक्षा मिलेगी तो वो भी पढ़ाई नहीं छोड़ेंगे. शिक्षा प्रणाली में सुधार की जरुरत है. वार्षिक परीक्षा के स्थान पर व्यावहारिक कौशल पर बल देने की जरुरत है और लगातार विद्यार्थी को मार्गदर्शन और व्यावहारिक प्रशिक्षण देने की जरुरत है

क्या हाल होगा मेरे शहर का? (विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष)

पुराने जमाने की कहावत है "यथा राजा तथा प्रजा" यानी जैसा राजा होगा वैसी ही प्रजा होगी. आज कहावत उलटी हो गई है - जैसी प्रजा - वैसा राजा. जहाँ प्रजा चुस्त, वहां राजा चुस्त. जहां प्रजा सुस्त - वहां राजा महसुस्त. आज के इस दौर में शहर के शहर आगे आ रहे हैं और पर्यावरण के लिए कुछ पहल कर रहे हैं. कई शहरों में स्वछता के लिए स्वयं सेवी संस्थाएं आगे आई हैं और प्रयास शुरू किये हैं. फ्रांस के १४ शहरों ने यूनाइटेड नेशन्स एनवायरनमेंट प्रोग्राम के २१ एजेंडा आइटम को लागू करना शुरू किया है और वो अपनी तरक्की की रिपोर्ट लगातार प्रकाशित कर रहे हैं. कई शहर हैं जहाँ पर वेस्ट डिस्पोजल के लिए अद्भुत प्रयास शुरू हुए हैं. 

मेरे शहर के लोग भी कुछ कम नहीं है. आज कई स्वयं सेवी संस्थाएं शहर में कचरा हटाने के लिए और स्वछता लाने के लिए प्रयास कर रही है. आज कई स्वयं सेवी संस्थाओं की तरफ से शहर को स्वच्छ बनने के लिए प्रयास हो रहे हैं. शहर के विकास के लिए हो रहे प्रयास हो रहे हैं. करीब १८ साल पहले हमने बीकानेर शहर में आम लोगों का एक सर्वेक्षण किया था तब उनसे पूछा था की बीकानेर की सबसे प्रमुख समस्या क्या है - तो सबसे बड़ी समस्या "सूरसागर" को बताया गया था (उस समय सूरसागर का तालाब गन्दा था). लोगों को जोड़ने के लिए कई मीटिंग बुलाई गई. सूरसागर के मुद्दे पर हर व्यक्ति एक साथ मिल कर काम करने को तैयार था. अनेक लोगों और अनेक संस्थाओं ने ज्ञापन दिए और प्रयास किये. सबके मिले जुले प्रयासों से सूरसागर का कायाकल्प हो गया. ये जनता की जीत है. यानी जहाँ "प्रजा चुस्त वहां राजा चुस्त". उस अद्भुत प्रयास की जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है. स्वर्गीय श्री मूलचंद पारीक व् स्वर्गीय श्री उपध्यान चन्द्र कोचर की अद्यक्ष्ता में में कई मीटिंग्स मैंने भी करवाई थी और सीड्स जैसी कई संस्थाओं को बुला कर के सर्वेक्षण का कार्य भी करवाया था. ये सिर्फ एक उदहारण है इस बात को साबित करने के लिए की शहर की आवाज को कोई भी सरकार नजरअंदाज नहीं कर सकती है. 

पर्यवरण के मुद्दे पर लोगों को बोलने के लिए कई मुद्दे अभी भी शहर में मौजूद है. मैं सभी मुद्दे नहीं उठा सकता लेकिन कुछ मुद्दे जरूर उठाऊंगा. जैसे कई ऐसी बस्तियां हैं जहाँ पर न तो सड़क हैं न ही सीवेज पाइपलाइन हैं (जैसे उदासर में मेघवालों के मोहल्ले की बावरी बस्ती में न तो सड़क है न हीं सीवेज पाइपलाइन है). आज के समय में बिजली पानी के बाद सड़क और सीवेज पाइपलाइन प्राथमिकता है. आज जब शहर में सरकार सही सड़कों को तोड़ कर फिर से बना रही है तो प्रश्न उठता है की पहले तो जहाँ पर सड़क ही नहीं है वहां पर सड़क क्यों नहीं बनायीं जा रही है? ये वो शहर हैं जहाँ पर पेड़ को बचाने के लिए लोग कुछ भी कर सकते हैं लेकिन उसी शहर में बिना मतलब खाली सड़क को चौड़ा करने के लिए पडों की कटाई की जा रही है (जैसे तुलसी सर्किल के पेड़ों को काट कर उस सर्किल को चौड़ा किया गया है). शहर के पर्यावरण प्रेमी लोग इस प्रकार के निर्णयों से कतई खुश नहीं होंगे. 
एक समय था जब नीति निर्माता लोग आम आदमी की भलाई की सोचा करते थे और आम आदमी की सलाह भी लिया करते थे. पुराने जमाने में राजा महाराजा भी वेश-भूषा बदल कर के आम आदमी की बात सुनने के लिए आम लोगों के बीच में आया करते थे. आज जमाना बदल गया है. आज तो आम आदमी को अपनी बात पहुंचाने के लिए विशेष आदमी की मदद लेनी पड़ती है. विशेष लोग आते हैं तो शहर की साफ़-सफाई होती है और शहर को सुन्दर बनाने  के लिए दिन रात एक कर दिया जाता है. बीकानेर के नीति निर्माताओं तक मेरी आवाज नहीं पहुंचेगी (क्योंकि वो लोग तो एयर कंडीशन चैम्बर में बैठने वाले लोग हैं), इसीलिए इस अखबार के माध्यम से मैं ये बात रखने की कोशिश कर रहा हूँ ताकि शायद कुछ तो शुरुआत हो. काश इस लेख को वो लोग भी पढ़ लेवे और आम बीकानेर वासी की राय लेनी शुरू कर देवें. 
किसी भी शहर को बनाने के दो तरीके होते हैं - १. जब शहर के नीति निर्माता बंद कमरों में शहर का नक्शा बन देते हैं और बिल्डिर्स उस योजना के आधार पर शहर को फैलाने में मदद कर देते हैं २. दूसरा तरीका वो जो बीकानेर जैसे शहरों में काम आया. बीकानेर में लोगों ने मिल कर अपने आस पास का स्वरुप, माहौल, विकास और पर्यावरण तय किया था और इसी कारण यहाँ  'गुवाड़', 'पिरोल', 'पाटे',पंचायती  प्रचलन में आये. ये वो शहर है जहाँ उस समय में जब लोकतंत्र नहीं था तब भी लोगों ने आपसी चर्चा के बाद शहर को आबाद किया और अपनी चर्चा के आधार पर शहर को स्वरूप दिया. एक सैलानी ने एक बार मुझ से पूछा की बीकानेर में शहर की सड़कें टेढ़ी-मेढ़ी क्यों है - मैंने उसको समझाया की शहर का डिज़ाइन वाहनों को केंद्र में रख के नहीं इंसानों को केंद्र में रख के किया गया है. मैंने उसको अपने बचपन की बात बतायी की मेरे बचपन में सभी  लोग पुरे शहर में पैदल ही घूम आया करते थे. जब जी मन आता पाटों पर सुस्ता  लेते, चौराहों पर बतिया लेते और जब जी में आता लोगों को घरों से बुला कर बातचीत कर लिया करते थे. पूरा शहर पैदल ही घुमा जा सकता था. सिर्फ बुजुर्ग और बीमार लोग ही तांगा का इस्तेमाल करते थे बाकी सब लोग तो पैदल ही चला करते थे. वो ये सुन के बीकानेर का मुरीद हो गया और बीकानेर को घूम घूम के समझने की कोशिश करने लगा. भारत के नीति निर्माता बीकानेर को नहीं समझ  पाएंगे पर शायद विदेशी लोग जल्द ही इसे समझने के लिए यहाँ आएंगे. आज कल  वैसे भी विदेशों में  वो परम्पराएं अपनाई जा रही है जो हमारे शहरों में कभी पनपा करती थी. जैसे वहां पर शहर के शहर मिल कर कार्बन उत्सर्जन और प्रदुषण को कम करने के संकल्प ले रहे है और इस हेतु पैदल चलने और साइकल का इस्तेमाल बढ़ाने  के लिए संकल्प ले रहे हैं. 

शहर को बनाने के लिए बीकानेर के लोगों का जज्बा आज भी कायम है लेकिन सिर्फ उम्मीद की किरण है की प्रशाशन लोगों को सुनेगा. इस  शहर का इतिहास पूरी दुनिया को सिखा सकता है की शहर कैसे बनाया जाना चाहिए पर इस शहर के लोगों की आवाज प्रशाशन की प्राथमिकता कब बनेगी? उम्मीद करता हूँ की बीकानेर के युवाओं के द्वारा चलाया जा रहा "विरासत बचाओ आंदोलन" प्रशाशन को पसंद आएगा और इस शहर को इसकी राह मिल पाएगी. तेज-रफ़्तार जिंदगी के आदी  हो चुके लोगों को बीकानेर की जीवन शैली समझ में नहीं आती और वो इसको छोड़ कर बड़े शहरों में जाने की सलाह देंगे लेकिन जिस दिन उनको जिंदगी का मर्म समझ में आएगा उस दिन वो समझ पाएंगे की जिंदगी  को जी तो बीकानेर के लोग ही रहे हैं बाकी लोग तो ये भी नहीं समझ पाये हैं की जिंदगी का मकसद क्या है. 
क्लाइमेट चेंज, और यूनाइटेड नेशन्स के अजेंडा की बात करने वाले लोगों से मैं अनुरोध करूंगा की किसी भी पर्यावरण सम्बन्धी बात से पहले हमें अपनी जिंदगी के उद्देश्य और जीवनशैली पर चर्चा करनी जरुरी है. आप कितनी भी यूनाइटेड नेशन्स कांफ्रेंस करवा लेवे - प्रकृति पर हमारे प्रभाव का कोई उपाय नहीं है अगर हम अपने आप को बदलने के लिए तैयार नहीं हो तो. पर्यावरण का मतलब सिर्फ अंतरष्ट्रीय मंचों पर जा कर भाषण देना और इनाम जीतना ही नहीं होना चाहिए बल्कि पर्यावरण से मतलब हम किस प्रकार की जीवनशैली अपना रहे हैं और अपने आस पास हमारा क्या प्रभाव पड़ रहा है ये भी होना चाहिए. अगर हम अपने नीति निर्माताओं से कहें की जिस दिशा में वो देश को ले जा रहे हैं वो उचित नहीं है और जिस परम्परा को हम ठुकरा रहे हैं वो भी गलत है तो कौन मेरी बात का समर्थन करेगा? वर्तमान नीतियों के साथ तो हम पर्यावरण के साथ कभी भी इन्साफ नहीं कर पाएंगे. जिस रफ़्तार से हरी भरी जमीन को साफ़ कर के कंक्रीट के जंगल बनाये जा रहे हैं उसको देख के तो यही लगता है की हम जल्द ही इस धरती को भट्टी में बदल देंगे. आज भी पूरी दुनिया के लिए कोई उम्मीद की किरण है तो वो बीकानेर जैसे शहर हैं जहाँ पर गली मोहल्लों में आज भी लोग पैदल चलते हैं, आपस में बातचीत कर के अपने मोहल्ले की समस्या को निपटाते हैं, हाथ से भोजन करते हैं (प्लास्टिक के चम्मच से नहीं) और गिलास से पानी पीते हैं (न की पैक्ड बोतल से).आइए हम सब मिल कर ये आवाज उठाये की शहर के लोगों को शहर बनाने का मौका दे दिया जाए. शहर के नीति निर्माता जिस दिन शहर के लोगों को केंद्र में रख के शहर को बनाएंगे उस दिन यही शहर स्वर्ग बन जाएगा.   मेरी बात से कौन खुश होगा?  नीति निर्माता  (सरकार) तो कतई नहीं. फिर पर्यावरण की बात यहीं खत्म करते हैं.