Saturday, June 4, 2016

क्या हाल होगा मेरे शहर का? (विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष)

पुराने जमाने की कहावत है "यथा राजा तथा प्रजा" यानी जैसा राजा होगा वैसी ही प्रजा होगी. आज कहावत उलटी हो गई है - जैसी प्रजा - वैसा राजा. जहाँ प्रजा चुस्त, वहां राजा चुस्त. जहां प्रजा सुस्त - वहां राजा महसुस्त. आज के इस दौर में शहर के शहर आगे आ रहे हैं और पर्यावरण के लिए कुछ पहल कर रहे हैं. कई शहरों में स्वछता के लिए स्वयं सेवी संस्थाएं आगे आई हैं और प्रयास शुरू किये हैं. फ्रांस के १४ शहरों ने यूनाइटेड नेशन्स एनवायरनमेंट प्रोग्राम के २१ एजेंडा आइटम को लागू करना शुरू किया है और वो अपनी तरक्की की रिपोर्ट लगातार प्रकाशित कर रहे हैं. कई शहर हैं जहाँ पर वेस्ट डिस्पोजल के लिए अद्भुत प्रयास शुरू हुए हैं. 

मेरे शहर के लोग भी कुछ कम नहीं है. आज कई स्वयं सेवी संस्थाएं शहर में कचरा हटाने के लिए और स्वछता लाने के लिए प्रयास कर रही है. आज कई स्वयं सेवी संस्थाओं की तरफ से शहर को स्वच्छ बनने के लिए प्रयास हो रहे हैं. शहर के विकास के लिए हो रहे प्रयास हो रहे हैं. करीब १८ साल पहले हमने बीकानेर शहर में आम लोगों का एक सर्वेक्षण किया था तब उनसे पूछा था की बीकानेर की सबसे प्रमुख समस्या क्या है - तो सबसे बड़ी समस्या "सूरसागर" को बताया गया था (उस समय सूरसागर का तालाब गन्दा था). लोगों को जोड़ने के लिए कई मीटिंग बुलाई गई. सूरसागर के मुद्दे पर हर व्यक्ति एक साथ मिल कर काम करने को तैयार था. अनेक लोगों और अनेक संस्थाओं ने ज्ञापन दिए और प्रयास किये. सबके मिले जुले प्रयासों से सूरसागर का कायाकल्प हो गया. ये जनता की जीत है. यानी जहाँ "प्रजा चुस्त वहां राजा चुस्त". उस अद्भुत प्रयास की जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है. स्वर्गीय श्री मूलचंद पारीक व् स्वर्गीय श्री उपध्यान चन्द्र कोचर की अद्यक्ष्ता में में कई मीटिंग्स मैंने भी करवाई थी और सीड्स जैसी कई संस्थाओं को बुला कर के सर्वेक्षण का कार्य भी करवाया था. ये सिर्फ एक उदहारण है इस बात को साबित करने के लिए की शहर की आवाज को कोई भी सरकार नजरअंदाज नहीं कर सकती है. 

पर्यवरण के मुद्दे पर लोगों को बोलने के लिए कई मुद्दे अभी भी शहर में मौजूद है. मैं सभी मुद्दे नहीं उठा सकता लेकिन कुछ मुद्दे जरूर उठाऊंगा. जैसे कई ऐसी बस्तियां हैं जहाँ पर न तो सड़क हैं न ही सीवेज पाइपलाइन हैं (जैसे उदासर में मेघवालों के मोहल्ले की बावरी बस्ती में न तो सड़क है न हीं सीवेज पाइपलाइन है). आज के समय में बिजली पानी के बाद सड़क और सीवेज पाइपलाइन प्राथमिकता है. आज जब शहर में सरकार सही सड़कों को तोड़ कर फिर से बना रही है तो प्रश्न उठता है की पहले तो जहाँ पर सड़क ही नहीं है वहां पर सड़क क्यों नहीं बनायीं जा रही है? ये वो शहर हैं जहाँ पर पेड़ को बचाने के लिए लोग कुछ भी कर सकते हैं लेकिन उसी शहर में बिना मतलब खाली सड़क को चौड़ा करने के लिए पडों की कटाई की जा रही है (जैसे तुलसी सर्किल के पेड़ों को काट कर उस सर्किल को चौड़ा किया गया है). शहर के पर्यावरण प्रेमी लोग इस प्रकार के निर्णयों से कतई खुश नहीं होंगे. 
एक समय था जब नीति निर्माता लोग आम आदमी की भलाई की सोचा करते थे और आम आदमी की सलाह भी लिया करते थे. पुराने जमाने में राजा महाराजा भी वेश-भूषा बदल कर के आम आदमी की बात सुनने के लिए आम लोगों के बीच में आया करते थे. आज जमाना बदल गया है. आज तो आम आदमी को अपनी बात पहुंचाने के लिए विशेष आदमी की मदद लेनी पड़ती है. विशेष लोग आते हैं तो शहर की साफ़-सफाई होती है और शहर को सुन्दर बनाने  के लिए दिन रात एक कर दिया जाता है. बीकानेर के नीति निर्माताओं तक मेरी आवाज नहीं पहुंचेगी (क्योंकि वो लोग तो एयर कंडीशन चैम्बर में बैठने वाले लोग हैं), इसीलिए इस अखबार के माध्यम से मैं ये बात रखने की कोशिश कर रहा हूँ ताकि शायद कुछ तो शुरुआत हो. काश इस लेख को वो लोग भी पढ़ लेवे और आम बीकानेर वासी की राय लेनी शुरू कर देवें. 
किसी भी शहर को बनाने के दो तरीके होते हैं - १. जब शहर के नीति निर्माता बंद कमरों में शहर का नक्शा बन देते हैं और बिल्डिर्स उस योजना के आधार पर शहर को फैलाने में मदद कर देते हैं २. दूसरा तरीका वो जो बीकानेर जैसे शहरों में काम आया. बीकानेर में लोगों ने मिल कर अपने आस पास का स्वरुप, माहौल, विकास और पर्यावरण तय किया था और इसी कारण यहाँ  'गुवाड़', 'पिरोल', 'पाटे',पंचायती  प्रचलन में आये. ये वो शहर है जहाँ उस समय में जब लोकतंत्र नहीं था तब भी लोगों ने आपसी चर्चा के बाद शहर को आबाद किया और अपनी चर्चा के आधार पर शहर को स्वरूप दिया. एक सैलानी ने एक बार मुझ से पूछा की बीकानेर में शहर की सड़कें टेढ़ी-मेढ़ी क्यों है - मैंने उसको समझाया की शहर का डिज़ाइन वाहनों को केंद्र में रख के नहीं इंसानों को केंद्र में रख के किया गया है. मैंने उसको अपने बचपन की बात बतायी की मेरे बचपन में सभी  लोग पुरे शहर में पैदल ही घूम आया करते थे. जब जी मन आता पाटों पर सुस्ता  लेते, चौराहों पर बतिया लेते और जब जी में आता लोगों को घरों से बुला कर बातचीत कर लिया करते थे. पूरा शहर पैदल ही घुमा जा सकता था. सिर्फ बुजुर्ग और बीमार लोग ही तांगा का इस्तेमाल करते थे बाकी सब लोग तो पैदल ही चला करते थे. वो ये सुन के बीकानेर का मुरीद हो गया और बीकानेर को घूम घूम के समझने की कोशिश करने लगा. भारत के नीति निर्माता बीकानेर को नहीं समझ  पाएंगे पर शायद विदेशी लोग जल्द ही इसे समझने के लिए यहाँ आएंगे. आज कल  वैसे भी विदेशों में  वो परम्पराएं अपनाई जा रही है जो हमारे शहरों में कभी पनपा करती थी. जैसे वहां पर शहर के शहर मिल कर कार्बन उत्सर्जन और प्रदुषण को कम करने के संकल्प ले रहे है और इस हेतु पैदल चलने और साइकल का इस्तेमाल बढ़ाने  के लिए संकल्प ले रहे हैं. 

शहर को बनाने के लिए बीकानेर के लोगों का जज्बा आज भी कायम है लेकिन सिर्फ उम्मीद की किरण है की प्रशाशन लोगों को सुनेगा. इस  शहर का इतिहास पूरी दुनिया को सिखा सकता है की शहर कैसे बनाया जाना चाहिए पर इस शहर के लोगों की आवाज प्रशाशन की प्राथमिकता कब बनेगी? उम्मीद करता हूँ की बीकानेर के युवाओं के द्वारा चलाया जा रहा "विरासत बचाओ आंदोलन" प्रशाशन को पसंद आएगा और इस शहर को इसकी राह मिल पाएगी. तेज-रफ़्तार जिंदगी के आदी  हो चुके लोगों को बीकानेर की जीवन शैली समझ में नहीं आती और वो इसको छोड़ कर बड़े शहरों में जाने की सलाह देंगे लेकिन जिस दिन उनको जिंदगी का मर्म समझ में आएगा उस दिन वो समझ पाएंगे की जिंदगी  को जी तो बीकानेर के लोग ही रहे हैं बाकी लोग तो ये भी नहीं समझ पाये हैं की जिंदगी का मकसद क्या है. 
क्लाइमेट चेंज, और यूनाइटेड नेशन्स के अजेंडा की बात करने वाले लोगों से मैं अनुरोध करूंगा की किसी भी पर्यावरण सम्बन्धी बात से पहले हमें अपनी जिंदगी के उद्देश्य और जीवनशैली पर चर्चा करनी जरुरी है. आप कितनी भी यूनाइटेड नेशन्स कांफ्रेंस करवा लेवे - प्रकृति पर हमारे प्रभाव का कोई उपाय नहीं है अगर हम अपने आप को बदलने के लिए तैयार नहीं हो तो. पर्यावरण का मतलब सिर्फ अंतरष्ट्रीय मंचों पर जा कर भाषण देना और इनाम जीतना ही नहीं होना चाहिए बल्कि पर्यावरण से मतलब हम किस प्रकार की जीवनशैली अपना रहे हैं और अपने आस पास हमारा क्या प्रभाव पड़ रहा है ये भी होना चाहिए. अगर हम अपने नीति निर्माताओं से कहें की जिस दिशा में वो देश को ले जा रहे हैं वो उचित नहीं है और जिस परम्परा को हम ठुकरा रहे हैं वो भी गलत है तो कौन मेरी बात का समर्थन करेगा? वर्तमान नीतियों के साथ तो हम पर्यावरण के साथ कभी भी इन्साफ नहीं कर पाएंगे. जिस रफ़्तार से हरी भरी जमीन को साफ़ कर के कंक्रीट के जंगल बनाये जा रहे हैं उसको देख के तो यही लगता है की हम जल्द ही इस धरती को भट्टी में बदल देंगे. आज भी पूरी दुनिया के लिए कोई उम्मीद की किरण है तो वो बीकानेर जैसे शहर हैं जहाँ पर गली मोहल्लों में आज भी लोग पैदल चलते हैं, आपस में बातचीत कर के अपने मोहल्ले की समस्या को निपटाते हैं, हाथ से भोजन करते हैं (प्लास्टिक के चम्मच से नहीं) और गिलास से पानी पीते हैं (न की पैक्ड बोतल से).आइए हम सब मिल कर ये आवाज उठाये की शहर के लोगों को शहर बनाने का मौका दे दिया जाए. शहर के नीति निर्माता जिस दिन शहर के लोगों को केंद्र में रख के शहर को बनाएंगे उस दिन यही शहर स्वर्ग बन जाएगा.   मेरी बात से कौन खुश होगा?  नीति निर्माता  (सरकार) तो कतई नहीं. फिर पर्यावरण की बात यहीं खत्म करते हैं. 

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