Thursday, May 14, 2015

पहला पहला वार (war) था - आजादी का खुमार था



(१० मई १८५७  को शुरू हुए पहले स्वतंत्रता संग्राम को समर्पित) 

१० मई का दिन भारतीय इतिहास में उतने ही महत्व का है जितना १५ अगस्त या २६ जनवरी का है. इसी दिन भारतियों ने आजादी का प्रथम संग्राम शुरू किया था जिसमे वे असफल हो गए थे. इसी दिन मेरठ से आजादी के लिए पहला संघर्ष शुरू हुआ था. श्री मंगल पाण्डेय की कुर्बानी के बाद हर व्यक्ति अपनी जान कुर्बान करने को तैयार था. अनगिनत भारतीय लोगों ने हँसते हँसते अपने प्राण न्योछावर कर दिए. प्रश्न था अपने वजूद का, अपने सिद्धांतों का, अपने देश का और संस्कारों का. मुट्ठी भर अंग्रेजों ने कुछ गद्दारों के साथ मिल कर भारतियों की लाशें बिछा दी और अकल्पनीय कष्ट दिए. गाव के गाव भून दिए गए, महिलाओं और मासूम बच्चों को भी नहीं बक्शा गया. इस दौरान  लक्ष्मी बाई, तांत्या टोपे जैसे वीरों ने  बेमिसाल संघर्ष के आदर्श प्रस्तुत  किये जिसको जानना और याद रखना  हर भारतीय का फर्ज बनता है. हमें हमारी अगली पीढ़ी को यह बताना चाहिए की निहथे भारतीय अंग्रेजों से क्यों लड़े? क्यों लाखों लोगों ने अपनी जान कुर्बान की? क्या कारण था की ख़ुशी ख़ुशी मौत को गले लगाया? ऐसा क्या था हमारी संस्कृति में जिसको बचाने के लिए हमारे पूर्वज अंग्रेजों का विरोध कर रहे थे? आखिर आजादी का मतलब क्याथा हमारे पूर्वजों के मन में? 

"गाय के मांस" के मुद्दे पर मंगल पाण्डेय अपने प्राण न्योछावर कर सकता था, लेकिंन आज उसको बड़ा दुःख  होगा यह देख कर की उसके वंशज गाय के मांस खाने के लिए लालयत बैठे हैं. जैसे ही महाराष्ट्र सरकार ने गाय के मांस पर प्रतिबन्ध लगाया, लोगों ने हाय तोबा मचाना शुरू कर दिया जैसे की उनका अन्न-जल रोक दिया गया  हो. शर्म आती है यह देख कर की आजादी के छ दशकों में हमने क्या खोया और कितना  खोया. वो देश अद्भुत है जिसमे मंगल पाण्डेय, लक्ष्मी बाई और तांत्या टोपे जैसे लोग रहे होंगे. लेकिन उस नीच लोगों  के बारे में क्या कहो जो इनलोगों की कुर्बानी को याद तक नहीं करते और उनके किये कामों के उलटे काम करते हैं?  २९ मार्च १८५७ को मंगल पाण्डेय "गो-मांस के खिलाफ" बगावत की शुरुआत करते हैं और फिर अपने प्राण न्योछावर करते हैं तो मार्च-अप्रेल 2015 में केरल और तमिलनाडु में तथाकथित नेता गो-मांस का भोज परोसते हैं और लोगों को गाय का मांस खाने के लिए उकसाते हैं. क्या पाया है ऐसी आजादी से जिसमे अपने संस्कार ही गवा दिए और इंसानियत की होली जल दी? और ताजुब होता है उन मीडिया के लोगों पर भी जिन्होंने इन घृणित हरकतों को मीडिया में इतनी जगह दी और प्रचारित किया. 

१८५७ के समय लोग अकोशित थे की अंग्रेज आ कर हमारे देश की संस्कृति को बर्बाद कर रहे हैं और इस देश को खत्म कर रहे हैं. देश तो वाकई संस्कृति और सभ्यता से ही बनता है बाकी तो जानवरों और इंसानों में फर्क ही क्या है? आज तो कोई अंग्रेज भी नहीं है लेकिन आज हम अपने देश के ही अंदर अपनी संस्कृति को बर्बाद करते अपने ही देश के  तथाकथित नेताओं से त्रस्त हैं. 
जिस देश में महिलायें अपनी बनायीं रोटी की पहली कोर गायों के लिए रखते हैं, जिस देश में हर गाव में गाय को घर में रख कर लोग कृतार्थ महसूस करते हैं, जिस देश की अर्थव्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था का आधार ही गाय है उस देश में और कोई नहीं गो-मांस की दावत देने वाले उन संस्कृति -द्रोहियों को नेता की पदवी क्यों दी जा रही है? कुछ तथा-कथित अंग्रेजी के विद्वान "गाय -मांस" खाने को ही अपना मौलिक अधिकार बता रहे हैं काश उन्हें मंगल पाण्डेय की रूह जो भारत के कण कण में बसी है उससे मिला दे. जो विदेशों के  चहेते लोग "गोमांस" के पक्ष में आंदोलन कर रहे हैं उनको कोई १८५७ की आजादी की लड़ाई की पुस्तक पढ़ के सुनाये ताकि उनको भी भारत की जड़ों की  कुछ तो समझ बने. 
इस १० मई को अंग्रेज लोग "मातृ दिवस" मन रहे हैं. काश भारत के "अंग्रेज" भारत में गाय को माता क्यों कहते हैं इतना ही समझ लें तो बड़ी मेहरबानी होगी. अगर वो "गोमाता" को नमन कर सके और "गोमांस" का विरोध करने का साहस बटोर पाये  तो वो भी भारत के सच्चे सपूत होंगे और उनकी तरफ से यही सच्चा "मातृ दिवस" होगा. 

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