पुरे देश में आज ऐसी कंपनियों का जाल बिछ रहा है जो बालकों और युवाओं की चहेती बनती जा रही है. स्वादिष्ट खाना हर कोई खाना चाहता है फिर विदेशी ब्रांड्स के तोभारतीय हमेशा से गुलाम रहे हैं. कभी सबवे तो कभी मेक्डी.... युवा वर्ग इन विदेशी कम्पनियों के उत्पादों पर लट्टू हो रहे हैं. इन कंपनियों ने सिर्फ फ़ास्ट फ़ूड ही प्रचारितनहीं किया है भारत की संस्कृति को भी तोड़ फोड़ दिया है. वो भारत जहाँ पर हर बालक प्राणी मात्र पर करुणा और जीव दया की दृस्टि रखता था उसी भारत में अब वो बालक आज हर जीवन कोएक उपभोग की वस्तु के रूप में देखने लगा है. नॉन वेज फ़ूड लोकप्रिय हो रहा है. करोड़ों लोग इसी प्रकार नॉन-वेज खाने लगेंगे तोजंगल के जंगल साफ़ हो जाएंगे और अन्य जीवों का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा. किसान की मेहनत से तैयार अनाज पड़ा सड़ेगा और इंसान हैवान बन जाएगा. बड़ीबड़ी होटलों में नॉन-वेज खाने को तैयार करने के लिए जंगल से निरीह पशुओं (सिर्फ शाकाहारी पशुओें जैसे को ही खाया जाता है) को पकड़ के लाया जाता है. वो पशु अबसिर्फ गिने चुने हैं. उन पशुओं की संख्या कम होते ही जंगल में रहने वाले माँसाहारी पशुओं को उनका भोजन नहीं मिलता है. वो हिंसक हो कर शहरों की तरफ आते हैं औरआदमखोर बन जाते हैं. इस प्रकार से हम पुरे जीवन चक्र के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं.
बड़ी बड़ी होटलों और बहु राष्ट्रीय कंपनियों में होड़ मची है की अधिक से तरह के पशु पक्षियों को खाद्य पदार्ध के रूप में प्रस्तुत किया जाए. जहाँ कहीं भी सुन्दर निरीहपक्षी दिखाई देते हैं वहां बटोही उनका शिकार करने लग जाते हैं और क्यों न करें- उनको होटल व् रेस्टोरेंट के मालिक इस काम केलिए अच्छी धन राशि देते हैं. आजसाइबेरियन सारस, गुलाबी मुह वाली बतख, फ्लोरिकों, सेंडपाइपर, क्वेल, जैसे पक्षी तो लुप्त हो गए /रहे हैं और हर दिन कोई न कोई प्रजाति लुप्त हो रही है.
बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपने शानदार मार्केटिंग और प्रचार तंत्र की मदद से हर युवा का ध्यान खींच लेती हैं. उनकी प्रभावी मार्केटिंग किसी भी युवा को दिग्भ्रमित करसकती है. वे हर युवा को मांसाहारी बना कर छोड़ेंगे. अब प्रश्न है की आप जैसे पर्यावरण प्रेमी के लिए ये एक चुनौती है की क्या करेंगे आप? न सरकार से कुछ उम्मीदरखिये न बड़बोले नेताओं से और न ही विदेशी दान दाताओं से .... किसी को इस मुद्दे की परवाह नहीं है. फिर क्या होगा समाधान ? विद्यार्थियों में करुणा के संस्कारफैलाने पड़ेंगे. पहले दादा दादी व् बुजुर्ग बच्चों में अन्य प्राणियों के लिए करुणा के संस्कार फैलाते थे. सुबह सुबह गाय को गो=ग्रास खिलाते थे और बच्चों को गाय के हाथफेरने के लिए कहते थे. अबतो विद्यार्थी जीवन से ही प्रतिस्पर्धा जीवन का मकसद बन गया है.
मेरे विचारों को किसी धर्म के दायरे में न रखें. ये प्रश्न आप हम सब की सांझी संस्कृति और विरासत का है. जब सब पशु- पक्षी लुप्त हो जाएंगे तो कौन जीवन काउल्लास देख पायेगा. प्रश्न है की जिस जीवन के उल्लास का हम आनंद ले रहे हैं उस को बढ़ने और पल्लवित करने की जिम्मेदारी भी हमारी ही है. आईये आप और हममिल कर छोटे छोटे प्रयास शुरू करें. देर कर देंगे तो आप पाएंगे की आपके बच्चे ही घर में मांसाहार अपना रहे हैं और फिर एक दिन आप के घर में रहने वाली चिड़िया -मैना भी सुरक्षित नहीं रहेगी - कब उनका काल आ जाए? आईये आप हम मिल कर छोटे छोटे प्रयास शुरू करें. शिक्षण संस्थाओं को अनुरोध करें की वो हमारी मदद करें.आज जरुरत है की हर शिक्षण संस्थान में पशु पक्षियों के प्रति करुणा के संस्कार पैदा करने और शाकाहारी भोजन को बढ़ावा देने के लिए प्रयास होने चाहिए. शाकाहारीव्यंजनों को बनाने का प्रशिक्षण होना चाहिए और उन कंपनियों (व् उन शिक्षण संस्थाओं का भी जो मांसाहार को बढ़ावा दे रहीं हैं) का बहिष्कार होना चाहिए जो मांसाहारीभोजन को प्रचारित कर रही हैं.
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