Friday, January 2, 2015

शिक्षा  : डूबती नैया का सहारा


टीवी, फिल्मों व् इंटरनेट के द्वारा फैशन और आधुनिकता के नाम पर जहर
परोसा जा रहा है. आप हम सभी मूक दर्शक बने देख रहे हैं. कभी डेटिंग तो
कभी लिविंग - इन रिलेशनशिप तो कभी इनसे भी घिनोनी हरकतों को दिखाया जाता
है और समाज को तहस नहस करने के प्रयास किये जा रहे हैं. हमारे युवा वर्ग
इनकी चपेट में आ रहे हैं. आज इस तबाही के तूफ़ान में भी कोई आशा की किरण
नजर आ रही है तो वह है शिक्षा व्यवस्था. शिक्षा वह अमृत घूंट है जो किसी
भी विष से बचा सकता है. आज जब हम सब मुसीबत मैं हैं तो अपने बच्चों को
संस्कार और अच्छी शिक्षा दे कर हम यह सुनिश्चित कर सकते हैं की हमारा
समाज और हमारा भविष्य सुरक्षित रहेगा.

कोई स्कुल नहीं सिखाती मीडिया स्किल्स
आज हर विद्यार्थी अपना आधे से ज्यादा समय मीडिया के साथ बीतता है. परन्तु
कोई स्कुल नहीं सिखाती है की मीडिया को कैसे काम में लेवें. कोई भी स्कुल
विद्यार्थियों को टीवी, फिल्म और इंटरनेट के प्रयोग और उसके दुष्परिणामों
के बारे में नहीं बताती. मीडिया तो एक बण्डल है जिसमे अच्छी बातें भी है
और बुरी बाते भी. आप क्या चयन करते हैं वह आप पर निर्भर है. यह एक
प्रशिक्षण का विषय है. बड़ा अफ़सोस है की कोई स्कुल ये सब नहीं सीखते है. न
तो स्कुल न ही घर - कोई नहीं है सीखने वाला - नतीजा - गुमराह होते हमारे
किशोर. स्कुल वर्षों पुराने अपने सिलेबस को नहीं बदलना चाहते. अध्यापक
सिलेबस से अलग पढने की हिम्मत  नहीं करना चाहते. निजी क्षेत्र सिर्फ
आमदनी बढ़ने और शो-बाजी में रूचि लेता है और सरकारी तंत्र के बारे में तो
क्या कहें.
बहुत कुछ सीखा जा सकता है मीडिया से
आप ये न समझे की में टीवी, फिल्म और इंटरनेट के खिलाफ हूँ. इनसे बहुत कुछ
सीखा जा सकता है लेकिन इस हेतु एक माहोल तो बनाना पड़ेगा. गुजरात के नानजी
भाई ने अपनी स्कुल में रेडियो क्लब बनाये और विद्यार्थियों को विज्ञानं
जगत और इस प्रकार के अन्य प्रोग्राम सुनने के लिए प्रेरित किया. वे जिस
जिस गाव में गए वहां पर रेडियो पर आने वाले ज्ञानवर्धक कार्यक्रमों को
लोकप्रिय बना देते थे (उस समय में मोबाइल नहीं थे). बीकानेर में
रामपुरिया महाविद्यालय में बहुत पहले एक फिल्म क्लब था जिसमे कलात्मक
फिल्मो को दिखाया जाता था और उस पर चर्चा होती थी. मीडिया भी जीवन का एक
हिस्सा है. विद्यार्थियों को नहीं पता की उनको मीडिया का इस्तेमाल कैसे
करना है - यह तो उनको सीखना पड़ेगा

कुछ नहीं सिखाते हैं हम अपनी संस्कृति बचने के लिए
आज अधिकांश लोग बहुत दुखी होते हुए आपसे कहेंगे की स्नातक करने के बावजूद
भी विद्यार्थी एक आवेदन तक ढंग से नहीं लिख सकते हैं. मैं भी दुखी हूँ
लेकिन इस कारण से नहीं - इससे भी बड़े कारण से. आवेदन नहीं लिख पाते कोई
बात नहीं. उन्हें अभिवादन करना नहीं आता, बात करना नहीं आता ढंग के कपडे
पहनना नहीं आता, और तो और भोजन करना और पानी पीना भी नहीं आता. छोटे होते
परिवार सारी जिम्मेदारी स्कुल पर दाल देते हैं और स्कुल इनमे से कुछ भी
नहीं सिखाते हैं. क्या बात कर रहें हैं आप आवेदन करने की, यहाँ तो जीवन
जीने की कला भी नहीं सिखाई जाती है. जितनी महँगी स्कुल उतना ही बुरा हाल.
विश्वास नहीं हो तो आजमा कर देख लीजिये. एक गाव की साधारण सी दिखने वाली
स्कुल में जाइए. बिना परिचय के भी उसके विद्यार्थी आपका अभिवादन करेंगे.
एक महंगे स्कुल में जाइए, क्या आपको कोई अभिवादन मिल जाता है. फिर बच्चों
के टिफिन पीरियड में जा कर देखिये - वे क्या कहते हैं और क्या पीते हैं
और कितना भोजन फैंक देते हैं. उनको आजादी दीजिये अपनी मर्जी के कपडे
पहनने की और आपको मजबूर हो कर अपनी आँखे बंद करनी पड़ेगी - क्योंकि वैसे
कपडे किसी भी रूप में सभ्यता के प्रतीक नहीं हैं. उनसे आप एक भजन या एक
देशप्रेम का गाना  गाने को कहिये - नहीं आएगा. उनसे आप एक कविता या कहानी
या एक प्रेरक संस्मरण सुनाने को कहिये - कुछ नहीं बोल पाएंगे. उनसे आप
हमारी कला और संस्कृति के बारे में कुछ बोलने या कुछ कर दिखने का कह कर
देखिये.  ये वही बच्चे हैं जिनको हमारी अद्वितीय संस्कृति को संजो संजो
कर अगली अगली पीढ़ी तक देना हैं.

नशे की गिरफ्त में समाज
एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में २१% किशोर शराब की गिरफ्त में हैं तथा
लगभग ३.५% तो नशे की गिरफ्त में हैं. यह संख्या लगातार बढ़ रही है. देश
में आर्थिक प्रगति के साथ ही नशे की प्रवृति भी बढ़ रही है. जहाँ जहाँ पर
आर्थिक प्रगति ज्यादा हो रही है वहां वहां पर नशे की प्रवृति भी बढ़ रही
है. हमें स्कूलों से ही बच्चों में इतने मजबूत संस्कार देने पड़ेंगे की
नशे की प्रवृति की नौबत ही नहीं आये. आधुनिकता के नाम पर जो संस्कृति
परोसी जा रही है वह शराब और नशे को बढ़ावा दे रही है. आज जरुरत है तो फिर
से एक मजबूत शिक्षा तंत्र बनाने की.
कहाँ गयी समूह में सिखने की प्रवृति
स्कुल हमें समाज में बेहतर जीवन शैली के लिए तैयार करती है. लेकिन
प्रतिस्पर्धा और व्यक्तिगत उपलब्धि को प्राथमिकता देती आजकी स्कूलें
हमारे बच्चों को समूह में काम करने की कला से वंचित कर रही है. गुजरात
में गोधरा के अध्यापक रमेश भाई ढोडकिया ने स्कुल की लड़कियों को मोहल्ले
के अनुसार समूह में बाँट दिया. फिर हर समूह को पढ़ने और समूह चर्चा करने
का कार्य सौंपा गया. धीरे धीरे इसे उन्होंने एक प्रोजेक्ट का नाम दे दिया
= प्रोजेक्ट सखी. इस प्रोजेक्ट के कारण छात्राओं को पढ़ने और लिखने का एक
बेहतरीन माहोल मिला और उनके व्यक्तित्व का विकास हुआ साथ ही उनमे समूह
में कार्य करने की कला का विकास भी हुआ. आज कल जहाँ हर जगह टूशन और
कोचिंग का बोलबाला है ऐसे प्रयोग बहुत कम अध्यापक करते हैं. आज फिर से
जरुरत है की विद्यार्थियों को समूह में मिल कर पढ़ने और सीखने की
व्यवस्थाओं की शुरुआत हो.

किसी भी मुसीबत से बचने के लिए आपात प्रबंधन और आपदा प्रबंधन के इतने आदि
हो गए हैं की जब तक मुसीबत नाक - नाक नहीं हो जाती, हम कुछ नहीं करते
हैं. आज भी हम हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं और इन्तजार कर रहें हैं की जब सब
कुछ ख़त्म हो जाएगा तो राहत सामग्री आएगी.

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