Monday, January 26, 2015

lets challenge the status quo and create renaissance

बगावत करिये;  "रिनेसाँ" लाइए  

श्री महादेव गोविन्द रानाडे  के १७३ वें  जन्म दिवस पर विशेष 

एक दिया ही बहुत है 
अँधेरा मिटाने के लिए
एक कश्ती ही बहुत है 
सागर पार करने के लिए
एक सहारा ही बहुत है
तूफ़ान से निपटने के लिए 
जरा आवाज तो लगावो दोस्तों
बहुत से बुजदिल है किसी की राह देखते 
थोड़ा साहस तो जुटावो दोस्तों 
बहुत से कदम आपके पीछे होंगे 
फिर न कहना  
"जब वतन जल रहा था. 
मैं तो सिर्फ देख रहा था
चारों तरफ बर्बादी हो रही थी
मैं अपनी धुन में मस्त था 
जो लोग मदद के लिए हाथ मांग रहे थे
मैं उनको विद्रोही मान बैढा था"
इन्तजार कब तक करेंगे 
कहीं सब राख न बन जाए 


रिनेसाँ योरोप के इतिहास के वे वर्ष हैं जब वहां पर संस्कृति का  पुनरुद्धार हुआ. ये शब्द उस  समय की बात बताता है जब बड़े पैमाने पर संस्कृति में सुधार हुए.   भारत के महान सामाजिक क्रांतिकारियों में से एक महाविंद गोविन्द रानाडे का जन्म दिन भी १८ जनवरी है. अतः आज हमें उनको याद करना चाहिए. उन्होंने प्रार्थना समाज की स्थापना की और समाज में फैली कुरूतियों के खिलाफ आवाज उठायी. उस वक्त की जितनी भी सामजिक बुराइयां थी उनको मिटाने के लिए श्री रानाडे ने जी जान लगा कर आवाज उड़ाई. आज उन को याद कर के हमें फिर से बगावत करनी चाहिए - सामाजिक कुरूतियों के खिलाफ. आज फिर से हम सब को मिल कर  वैचारिक चिंतन और मंथन की संस्कृति बनाने के लिए भारत में एक रिनेसाँ लाना है. 


बढ़ता सामाजिक दिखावा और घटता आपसी सौहार्द 
एक शताब्दी पहले श्री रानाडे लोगों से कह रहे थे की शादी और इस प्रकार के आयोजन पर अनावश्यक खर्च न करो. वे सामाजिक कुरूतियों की निंदा कर रहे थे. आज भी वे ही हालत हैं. समाज उनको इज्जत देता है जो बेहिसाब दौलत समारोह और दिखावे पर खर्च करते हैं. कई कई अखबार भी उनपर लेख प्रकाशित कर उनको गौरवान्वित करते हैं. दिखावा एक ऐसी बिमारी है जिससे हमरी संस्कृति ख़त्म हो सकती है. आईये फिर से विद्रोह के झंडे उढाये. दिखावे की संस्कृति की जगह आपसी सौहार्द की संस्कृति की स्थापना करें. 


बढ़ रही है सामाजिक कुरुतियां
हमारा समाज फिर से भेड़ चाल चल रहा है. विदेशी नक़ल और देखादेखी का दौर चल रहा है. हम हर विदेशी सामाजिक बुराई को तुरंत अपना लेते हैं. अपनी खुद की सामाजिक बुराइयों को हटाना तो दूर, नयी नयी सामाजिक बुराइयों को और गले लगा रहे हैं. पुरानी सामाजिक बुराईयाँ अभी ख़त्म नहीं हुई है और नई सामाजिक बुराईंया हम फैला रहे हैं (जैसे की लिव इन रिलेशनशिप - जिसको आज कल कई मीडिया प्रचारित कर रहे हैं. ). इन नयी सामाजिक बुराइयों को रोकने के लिए ताकत की जरुरत नहीं है बल्कि चेतना और समझ  पैदा करने की जरुरत है. 

बढ़ती असहिष्णुता 
आज फिर से समाज में वैचारिक खुलापन, वैचारिक विमर्श और विविधता की संस्कृति की जरुरत आ गयी है. आज फिर से हमें समाज में बढ़ रहे कट्टरवाद को रोकना है. आज फिर से बढ़ती असहिष्णुता को रोकना है. हाल ही में तमिल लेखक पेरुमल मुरुगन को अपने एक उपन्यास का विरोध झेलना पड़ा. उनको अपना उपन्यास वापस लेना पड़ा. उन्होंने दुखी हो कर हमेशा के लिए लेखन छोड़ने की घोषणा कर दी. यह घटना हम शिक्षा से जुड़े लोगों के लिए एक सबक है. हमें यह महसूस करना चाहिए की कही यह एक खतरे की घंटी तो नहीं है. कहीं समाज में वैचारिक खुलापन, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रबुद्धता कम तो नहीं हो रही है.

केक और बुके की संस्कृति 
देश में पश्चिम की देखा देखि केक और बुके की संस्कृति शुरू हो गयी है. चाहे कोई भी मौका हो, केक तो कटेगी ही कटेगी और बुके तो दिए ही जाएंगे. आपसी तोहफे भी कुछ विदेशी देखा देखि से आ गए हैं. जब भी किसी को तोहफा देना है तो कुछ महँगी विदेशी चॉकलेट या विदेशी परफ्यूम देने का रिवाज शुरू हो गया है. एक समय था की लोग तोहफे में बेहतरीन पुस्तकें दिया करते थे. वे सब अब हमारे इतिहास बन गए हैं. अगर हमें अपनी संस्कृति को बचाना है तो इस तरफ भी फिर से सोचना पड़ेगा. 

खुला नशा 
आज कल समारोहों / आयोजनों में नशा-डांस-फूहड़पन का खुला प्रदर्शन हो रहा है. इसके खिलाफ लिखने या बोलने वाला कोई नहीं है. इस संस्कृति से हमारी युवा पीढ़ी बर्बाद हो जायेगी. 

विदेशी भाषा, विदेशी वेश-भूषा का बढ़ता जाल
एक शताब्दी पहले श्री रानाडे पुरे जीवन भारतीय भाषाओँ में साहित्य को बढ़ावा देने का प्रयास करते रहे. आज के समय में सभी लोग विदेशी भाषाओँ पर बल दे रहे हैं. स्थानीय भाषाओं को मुश्किल का सामना करना पड़ रहा है. अधिकाँश कंपनियां अपने कर्मचारियों से विदेशी परिधान में आने के लिए कहती हैं. हमारी भाषा और संस्कृति का भविष्य खतरे में हैं. 

घटते महिला और बाल अधिकार 
महिलाओं की शिक्षा से उनकी स्थिति सुधरी है लेकिन आज उनकी हालात और ज्यादा बुरी हो रही है. एक तरफ वे अपने घर का काम करती हैं, दूसरी तरफ उनके पति नशे की चपेट में रहते हैं. जैसे जैसे महिलाएं नौकरी की तरफ जा रहीं है, वैसे वैसे उनकी जिंदगी नयी चुनौतियों से रूबरू हो रही हैं. महिला सुरक्षा आज का नया मुद्दा बन गया है. बाल श्रम घटने का नाम नहीं ले रहा और बच्चों को शिक्षा का अधिकार सिर्फ कागजों तक सिमित है. 

विदेशी खान पान 
शुद्ध भारतीय खान पान की जगह पर आज विदेशी खान पान हावी हो रहा है. चुनौती है की हम पिज़्ज़ा की संस्कृति से कैसे बचे और अद्भुत भारतीय व्यंजनों को कैसे बचाएं. 
जुआ और अकर्मण्यता की संस्कृति 
आज का युवा बिना परिश्रम के पैसा कमाने के लुभावनों में फंसता जा रहा है. . वह जुए की गिरफ्त में फंसता जा रहा है. कही पर शेयर मार्किट के सट्टे , कहीं पर कोमोडिटी के सट्टे चल रहे हैं तो कहीं लोग क्रिकेट पर सट्टे कर रहे हैं. यह सट्टे की संस्कृत युवाओं को परिश्रम से विमुख कर रही हैं. अकर्मण्यता से कर्म की तरफ कैसे मोड़ें? आईये युवाओं का मार्गदर्शन करें. 

तकनीक का गुलाम आज का इंसान
यह एक अच्छी बात है की हर व्यक्ति के पास आज मोबाइल है. लेकिन वह तकनीक का गुलाम बन गया है. इस गुलामी का परिणाम बहुत बुरा होगा. तकनीक हमारी गुलाम है लेकिन आज का युवा तो उसका गुलाम हो रहा है. इसका परिणाम यह है की युवा वर्ग की सोचने और विमर्श करने की क्षमता कम होती जा रही है. 
बढ़ते शॉर्टकट्स, बढ़ती वन वीक सीरीज 
समाज में लेखन, शिक्षण, चिंतन और ज्ञानार्जन को फिरसे पुनः-स्थापित करने के जरुरत है. श्री रानाडे ने उस जमाने में भी अपनी पत्नी रमाबाई को शिक्षा हासिल करने के लिए प्रेरित किया और सामाजिक विकास की दिशा में आगे बढ़ाया. आज फिर से एक प्रयास की जरुरत है की आप अपने परिवार को तो कमसे कम चेतना और शिक्षा की दिशा में आगे बढाइये. शिक्षा से मेरा मतलब हुनर और परिश्रम पर आधारित शिक्षा और चेतना का प्रयास है न की येन-केन प्रकरेण  डिग्री लेने के हथकंडे . 


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