Saturday, January 3, 2015

जीवन की अर्थशाश्त्र की राजस्थानी पठाई

हर राजस्थानी अपने बच्चों को बचत, संयम, मोलाई, और संतोष से घर खर्च
चलाना और अपने सपनो को जमीन की धरातल पर रखना सिखाता है. राजस्थानी गृहणी
अपने घर खर्च की जिम्मेदारी उठाते उठाते अपने बच्चों को सब्र और इन्तेजार
की शिक्षा देती है. भले ही आप इसको मारवाड़ी कंजूसी कहें, परन्तु यही
सच्चे अर्थों में जीवन की अर्थशाश्त्र की पठाई है. क्या आप घर का बजट
बनाते समय अपने बच्चों को इस प्रक्रिया में शामिल करते हैं. क्या आप
बाजार में खरीददारी करते समय अपने बच्चों को शामिल करते हैं. क्या आप
अपने बच्चों को घर के खर्च के बारे में बताते हैं और उनको निर्णय लेने की
जिम्मेदारी देते हैं?
अनीता किराने की दूकान में सामान लेते लेते अचानक चॉकलेट की फरमाइश का
बैठी. दुकानदार ने चॉकलेट थमाई परन्तु अनीता ने अपनी   जीभ  काटते  हुए
चॉकलेट की जगह एक रजिस्टर की फमाइश की. उसको पता है की घर पर उसके भाई को
रजिस्टर की ज्यादा जरुरत है. उसकी नयी नयी नौकरी लगी है और बचपन से उसने
अपनी माँ को घर के खर्च को चलते हुए देखा है. उसको पता है की घर की
प्राथमिकता क्या है.  दो दो रूपये बचा कर घर खर्च चलाना और अपनी जरूरतों
को आवश्यकताओं की आगे कुर्बान करके खुश होना, यह उसको बचपन से संस्कारों
में मिला है.
एक बहुत ही सफल उद्योगपति ने अपने पुत्र को MBA  करने के लिए विदेश भेजा.
उसके बाद उसने अपने पुत्र को अपने व्यापार की बागडोर संभला दी ये सोच कर
की उसने विदेश में प्रबंध शिक्षण हासिल किया है. फिर उसको बहुत ही अफ़सोस
हुआ यह देख कर की उसके लड़के को व्यवहारिक जीवन का कोई ज्ञान नहीं हैं और
उसकी कम्पनी का प्रबंध तो दूर की बात छोटे छोटे निर्णय भी मुश्किल काम
हैं. उसको मजबूर हो कर व्यापार की बागडोर फिर से अपने हाथ में लेनी पड़ी
और फिर उसने अपने बेटे को स्वयं व्यापर की कला सीखना शुरू किया. फिर उसको
यह समझने में देर नहीं लगी की अर्थशाश्त्र, व्यापर, वाणिज्य और प्रबंध
शाश्त्र  के हर छोटे से छोटे मन्त्र हम अपने रोज की जीवन में काम में
लेते हैं और वे ही हम अपने बच्चों को सीखा सकते हैं. ऐसा नहीं कर के हम
बहुत बड़ी गलती का रहे हैं. हर व्यक्ति को अपने परिवार में घर के आर्थिक
मामलों की चर्चा इस प्रकार करनी चाहिए की बच्चों को बचपन से ही ज्ञान
मिले. राजस्थान में यह परंपरा रही है इसी कारण से राजस्थान के विद्यार्थी
अंग्रेजी में भले ही कमजोर रहें हों लेकिन व्यापर और अर्थ की उनको हमेशा
से अच्छी समझ रही है.

मैं अक्सर सेमिनार में विद्यार्थियों से पूछता हूँ "एक रूपये से आप क्या
कर सकते हैं? " " १०० रुपयों से आप क्या कर सकते हैं? " और मुझे बहुत ही
रुचिकर जवाब मिलते हैं क्योंकि विद्यार्थियों को अपने घर से यह संस्कार
मिले होते हैं की एक एक रूपये की कदर करना सीखो. एक विदेशी प्रोफ़ेसर ने
जयपुर में यह प्रश्न किया की "माल लो आपको १ लाख रूपये दे दिए जाते हैं
तो आप क्या करेंगे? " उन्होंने यही प्रश्न चीन में भी किया था. प्रश्न तो
यही था लेकिन उत्तर में बहुत ज्यादा फर्क था. चीन के विद्यार्थियों ने
आराम और आनंद की कई वस्तुएं गिना  दी लेकिन जयपुर में विद्यार्थियों ने
उन १ लाख रुपयों से और अधिक रूपये कैसे बनायें इस पर ध्यान दिया.
बचपन से ही हम हमारे घर में बचत और संयम की पाठशाला चलाते हैं और घर पर

ही आर्थिक समझ पैदा कर देते हैं. यही हमारे संस्कार है और यही हमारी
"मारवाड़ी संस्कृति". इस संस्कृति का मुकाबला न तो हार्वर्ड की पढाई कर
सकती है और न ही स्टैनफोर्ड डिग्री. इस पढाई के महत्त्व को समझिए आपको
पता चल जाएगा की आजादी के पहले के भारत में हर बिरला, बजाज, और डालमिया
राजस्थान से कैसे निकल कर आया. इसी आर्थिक समझ को बनाये रखने की जरुरत
है. जिस समझ को आप पुराना या परंपरागत मान रहें हैं वही हमारी आर्थिक
ताकत का कारण हैं. इसी आर्थिक समझ के कारण हर घर में आज भी बचत और
संतुलित उपभोग साथ साथ चलते हैं और जीवन में आनंद और खुशियों के लिए
उपभोग नहीं संयम पर जोर दिया जाता है. एक व्यक्ति के लिए घाटा किसी अन्य
व्यक्ति के लिए मुनाफा हो जाता है. लेकिन आप चाहते हैं की हर व्यक्ति को
लाभ हो तो फिर घाटा कौन उठाएगा? सरकार. अतः सरकार को घाटे की
अर्थ-व्यवस्था चलानी है. लेकिन सरकार के तरीकों से अगर आम आदमी अपना घर
चलाना शुरू कर देगा तो फिर लुटिया डूब जायेगी. जिस दिन सरकार हमारे देश
में घर घर में फैली आर्थिक समझ को सलाम करना शुरू कर देगी इस देश का चमन
हो जाएगा (अफ़सोस तो यह है की सरकार को अपनी आर्थिक नीतियां बनाने में
भारत के आम आदमी की नहीं विदेशी सलाहकारों और विदेशी संस्थाओं की ज्यादा
माननी पड़ती है).
एक विख्यात ब्रिटिश राजनितिक शाश्त्री को जब अर्थशाश्त्र की पढाई करने की
जरुरत महसूस हुई, तो पढाई करने के बाद उन्होंने कहा की सही अर्थशाश्त्र
तो गृहणी ही समझती है. अथशास्त्र की शुरुआत घर से ही होती है. जब बालक घर
के अर्थशाश्त्र को समझ जाएंगे, वे बालक भले ही MBA न करें, वे  MBA से कम
नहीं होंगे. जीवन में सही आर्थिक निर्णय लेना १ या २ वर्षों में नहीं
सीखा जा सकता, बल्कि यह तो जीवन की पाठशाला की पठाई है, और इसकी
जिम्मेदारी हर घर को निभानी है.
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