Thursday, April 23, 2015

ज्ञानशाला

शहर को बनाइये ज्ञानशाला 

जहाँ हर मुसाफिर के लिए मुस्कराहट है
जहाँ हर व्यक्ति के लिए आदर है
चाहे या न जाने 
पहचाने या न पहचाने 
स्वागत तो सब का है
तीज त्योंहार, 
होली दिवाली, 
हिवडे उल्लास तो हमेशा है 
गाड़ी घोडा, पैदल असवारी, 
दौड़- धुप तो हमेशा है 
फिर भी एक अलमस्ती है  
हथाई और दुआ सलाम की फुर्सत सबको है
कोई कितना भी ऊँचा हो
या फिर ठेठ फकीरी हो 
मिल जुल कर सब गले लगेंगे 
मिल कर दो मीठे बोल बोलेंगे 
सड़क पर चलते राहगीर  
या दूर देश  का परदेशी 
हंसमुख हो सबसे बात करेंगे 
राम राम तो सब से है, 
एक गाव सा अल्हड
यह शहर ही तो मेरा शहर है 


हर शहर अपने आप में एक ज्ञान-शाला होता है. हर शहर में ऐसे अनेक लोग होते हैं जो शहर में विकास और चिंतन के लिए काम करना चाहते हैं. ये अब शहर की संस्थाओं पर होता है की वे कैसे इन लोगों की सेवाएं ले कर शहर को ज्ञान-शाला में बदले. शहर में अगर चर्चा, चिंतन और संवाद की संस्कृति हो तो फिर शहर का कहना ही क्या. कई बार ऐसा होता है जैसे की कहावत में कहा है "अपनी मुर्गी दाल बराबर". यानी अपने पास उपलब्ध संसाधन की कीमत न समझना. 

१८ साल पहले बीकानेर में श्री रोगेन्द्र कुमार रावल ने बीकानेर में युवाओं के  सांस्कृतिक उठान के लिए गांधी शोध संस्थान की शुरुआत की. उस संस्थान में शहर के विकास के लिए संवाद शृंखला और पुस्तकालय की शुरुआत की. प्रश्न उठा की बजट कहाँ से लाये. जवाब आया की इस शहर में एक से बढ़ कर एक चिंतक मौजूद हैं और शहर के लिए तो वे अपना समय ख़ुशी ख़ुशी निकालेंगे. फिर हर रविवार एक संवाद का दौर शुरू हुआ. हर संवाद में में अपने आप को धन्य पाता था. हर संवाद अपने आप में एक गहन चिंतन होता था. एक साल से ऊपर चले इस दौर में बिना बजट के भी श्री रावल ने एक अद्भुत  प्रयास किया था. शहर के ही अद्भुत लोगों से शहर के युवाओं को रूबरू करवाया था. उनके उस अद्भुत प्रयास से हम सब को सीख लेनी चाहिए. असली संस्थान वाही है जो शहर को ज्ञान-शाला बनाने में अपना योगदान दे सके. शिक्षा, संवाद, और परिचर्चा के द्वारा शहर के कायाकल्प में मदद करे  और अपना दायरा सिर्फ अपने तक सीमित न रख कर अपनी मौजूदगी का शहर को एक अहसास दे. 

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