Thursday, April 23, 2015

शिक्षा और विकास की अवधारणा से जोड़िये विद्यार्थियों को

शिक्षा और विकास की अवधारणा से जोड़िये विद्यार्थियों को 

आज के विद्यालयों और महाविद्यालओं में हमारे देश की नीतियों और कार्यक्रमों पर बहस और चर्चा नहीं होती है. मुझे याद है की जब में जैन कॉलेज में पढता था तब हम जनसँख्या विषय पर और आर्थिक नीतियों पर सेमीनार आयोजित करते थे. एक बार तो उस समय प्रोफेसर विजय शंकर व्यास साहब को भी सुनने का मौका मिला था. यही तो कॉलेज जीवन का  असली मजा होता है. क्या आज कल हमारे महाविद्यालय ऐसा माहोल दे रहे हैं? क्या आजकल हमारे विद्यालयों और महाविद्यालयों में इस प्रकार के कार्यक्रम होते हैं? प्रश्न है की हम प्रजातंत्र का आनंद लेने के लिए विद्यार्थियों को कैसे तैयार करें? प्रजातंत्र एक प्रक्रिया है और इस प्रक्रिया के लिए भी प्रशिक्षण देना पड़ता है. इस प्रक्रिका का प्रशिक्षण शिक्षण संस्थाओं से ही शुरू होना चाहिए. जब विद्यार्थी खुल कर बहस और मंथन करना शुरू कर देंगे तो वो प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के लिए तैयार हो जाएंगे. 
उदाहरण लेते हैं - आज कल नीति आयोग के उपाध्यक्ष श्री अरविन्द पांगरिया यह कह रहे हैं की कृषि से ५०% लोगों को उत्पाद और सेवा क्षेत्र में "शिफ्ट" करना पड़ेगा क्योंकि कृषि में ५९% लोग हैं लेकिन यह क्षेत्र जीडीपी में १४% ही दे पाटा है. इस विषय पर बौद्धिक चिंतन और बहस की भरपूर गुंजायश है. सरकार की नीतियों पर चर्चा करने के लिए विपक्ष तो बचा नहीं है लेकिन बौद्धिक वर्ग तो है. क्या बौद्धिक वर्ग शिक्षण संस्थाओं में यह बहस शुरू नहीं कर सकता की क्या यह उचित है. आप अपने आप को सरकार और आम आदमी की जगह पर रख कर देखिये. 

श्री जगजीत सिंह जी ने कहा था : "अब  मैं  राशन  की  कतारों  में नज़र  आता  हूँ  अपने  खेतों  से  बिछड़ने   की  सजा  पाता  हूँ  इतनी  मंहगाई  के  बाजार  से  कुछ  लाता  हूँ ...." और श्री लाल बहादुर शाश्त्री ने कहा था " जय जवान जय किसान"  लेकिन विदेशों में पढ़े लिखे विद्वान श्री पांघरिया को इनसे क्या. गावों और शहरों दोनों की जिंदगी देखने वाला व्यक्ति ही यह समझ सकता है की गाँव को क्या चाहिए. 

शहरों की ४० करोड़ की जनसंख्या को संभाल नहीं पा रहे हैं और ऐसी योजना बना रहे हैं की गावों से ३० करोड़ और लोगों को शहर बुला लेते हैं - यह नीतियां तो पिछली योजना आयोग की नीतियों की तरह ही है. क्या फर्क है? लेकिन इस चर्चा और बहस में विद्यार्थियों की भागीदारी से ही मजा आएगा. विद्यार्थी बहुत ही सृजनशील और मौलिक होते हैं. लेकिन क्या हमारे शिक्षण संस्थान सिलेबस के पर इन सब मुद्दों पर बहस शुरू कर पाएंगे? 

No comments:

Post a Comment