लुप्त होता परंपरागत ज्ञान
भारत ज्ञान और तकनीक का अनोखा भण्डार है जहाँ पर हर घर और हर परिवार किसी न किसी परंपरागत ज्ञान की वर्षों से जमा पूंजी का मालिक है. हिमाचल प्रदेश में वहां के बाशिंदे ७५०० तरह की जड़ी-बूटियों और पेड़ों का उपयोगजानते हैं (शायद थे क्योंकि अब ये ज्ञान लुप्त हो रहा है). लुप्त होते भारत को समझना है तो शहरों को छोड़िये, गावोंमें जाइए. आपको आज भी प्राचीन भारतीय परम्पराओं के अवशेष मिल जाएंगे. महिलायें पीपल के पेड़ को परिक्रमालगा कर पानी देती हुई मिल जायेगी. यह एक परम्परा है और इस परंपरा का वैज्ञानिक आधार आज समझ आ रहाहै. किस प्रकार से भारत में तुलसी, पीपल, बेल, और इस प्रकार के अन्य पेड़ों को बचाया गया और उनको सुरक्षितरखने के लिए कितनी समृद्ध परम्पराएँ विकसित की गयी. एक पेड़ अपने जीवन काल में लगभग ६० लाख Rs. काफायदा पहुंचता है. और आज के महानगरों में पेड़ों को काट कर सड़कें और भवन बनाये जा रहे है. बहुत काम लोगपेड़ों को उतनी अहमियत देते हैं जितनी की भारत की परम्पराएँ देती हैं. जब आईआईएम अहमदाबाद का निर्माण होरहा था तो फ़्रांस के आर्किटेक्ट लुइ कान के कहे अनुसार भवन का निर्माण हो रहा था और एक पेड़ को काटा जाना था.श्री विकर्म साराभाई को जब इसका पता चला तो उन्होंने बिल्डिंग का नक्शा बदल दिया पर पेड़ नहीं काटने दिया.पेड़ों के प्रति ऐसी श्रद्धा सिर्फ भारतीय परम्पराओं से ही आ सकती है.
मैं ऐसे अनेक बुजुर्ग लोगों से मिल चूका हूँ जो पूरी जिंदगी में कभी भी बीमार नहीं पड़े और कभी भी उनको अंग्रेजीदवाई नहीं लेनी पड़ी. मौसम के बदलते ही वे लोग अपने खान पान में आवश्यक संशोधन कर लेते थे और ये संशोधनपरम्पराओं के रूप में उनके जीवन में जुड़े थे. जब अमेरिका में भारत के ज्ञान पर आधारित १३१ योग पेटेंट हो चुकेथे, नीम और हल्दी के पेटेंट की बात चल रही थी तो भारत सरकार की नींद खोलने के लिए WIPO ने भारत सकरारसे अनुरोध किया और फिर मजबूर हो कर भारत सरकार ने २००१ में भारत्तीय परम्परागत ज्ञान के रजिस्ट्रेशन काकाम शुरू किया. आज तक ८०००० से ज्यादा आयुर्वेदी नुस्खों का रजिस्ट्रेशन कर के उनका ५ विदेशी भाषाओं मेंअनुवाद किया गया है. भारत के अद्भुत परम्परागत ज्ञान के आधार पर अब तक ३.५ करोड़ पेजों की जानकारीभारत के परम्परागत ज्ञान के कार्यालय में जमा की जा चुकी है और ये भारतीय ज्ञान का सिर्फ एक अंश मात्र है.१५०० से ज्यादा योग और आसनों का ज्ञान भी रजिस्टर किया गया है.
हर परम्परा का वैज्ञानिक आधार
दरअसल भारत में विज्ञान को आम जीवन में उतारने के लिए उसको परम्पराओं में ढाला गया था और इसी कारणविज्ञान यहाँ आम जीवन में इतना घुल- मिल गया है की विज्ञान को जीवन से अलग कर के देखने का प्रयास नहींकिया गया. . हमारे जीवन में काम आने वाली हर वस्तु को किसी न किसी परम्परारा से जोड़ दिया गया. समय कीआंधियों के बीच परम्पराएँ तो जिन्दा रह गयी पर उनके पीछे का वैज्ञानिक विमर्श लुप्त हो गया. आज हमें यहसमझ आ रहा है की सर पर तिलक लगाने और चोटी रखने के एकुप्रेस्सर और अन्य वैज्ञानिक फायदे हैं. आज हमको समझ आ रहा है की सूर्यास्त से पहले भोजन करने से क्या वैज्ञानिक फायदे हैं. लेकिन आज हमने अपनी अनेकपरम्पराओं को गवा दिया है जो की शायद किसी न किसी वैज्ञानिक आधार पर स्थापित की गयी थी.
कृषि की जो समृद्ध परम्परा भारत के किसान जानते थे वो आज भारत में लुप्त हो गयी है लेकिन वही व्यवस्थाविदेशों में आर्गेनिक कृषि के नाम से शुरू हो रही है और अब विदेशों से भारत में आएगी.
देश को तोड़ने का इतिहास और लूट मचाते विदेशी
अंग्रेजों ने भारत में आ कर सबसे पहले ऐसे इतिहास विशेषज्ञ तैयार किये जो भारत के लोगों को आपस में लड़ाने केलिए इतिहास लिखने लगे और यह व्यवस्था आज भी जारी है. जातियों को आपस में लड़ाने के लिए ही इतिहासलिखा गया. आज हम आपसी लड़ाई के चक्कर में अपना अद्भुत ज्ञान और परम्पराएँ छोड़ चुके हैं. आज हमारे देशके अद्भुत ज्ञान को ले जा कर विदेशी कम्पनियाँ पेटेंट करवा रही है.
भारतीय वैज्ञानिक (लोहार,सोनार आदि) के लिए बजट में कोई सहायता नहीं
भारत में लोहार, सोनार, मोची, आदि अनेक समूह हैं जिनको आज ‘ दलित’ के रूप में सम्बोधित किया जाता है. येवो लोग हैं जिनके पास अद्भुत वैज्ञानिक ज्ञान और हुनर था जो अब धीरे धीरे लुप्त हो रहा है. यह अफ़सोस की बातहै की भारत सरकार मेटलर्जी शोध के लिए करोड़ों का आबंटन दे सकती है लेकिन भारत के मेटल एक्सपर्ट्स (सोनार,लोहार आदि) को कोई सहायता या संरक्षण नहीं प्रदान कर सकती. नतीजा होगा की उनकी सदियों की समृद्धपरम्परा लुप्त हो जायेगी और इस अद्भुत ज्ञान और कला के बारे में हमारी अगली पीढ़ी सिर्फ किताबों में पढ़ेंगी.भारत के अद्भुत कारीगरों और दक्ष वैज्ञानिकों को ‘दलित’ व् 'पिछड़े' की उपाधि दी गयी और उनको उनकी समृधि (तकनीकी ज्ञान) के लिए नहीं बल्कि उनकी आर्थिक गरीबी के लिए सम्मानित किया गया. उनको कभी भीउनके तकनीकी ज्ञान के लिए प्रोत्साहन नहीं दिया गया. उनको यह लालच दिया गया की वे सरकारी अधिकारी बनजाएंगे. अद्भुत ज्ञान धीरे धीरे खत्म हो गया. यह प्रक्रिया आज भी जारी है. हर सरकार आई और गयी, पर नीतियांनहीं बदली. कोई भी उनको कारीगर, या कलाकार या वैज्ञानिक नहीं मानना चाहता. आज भी कोई उनके विज्ञानं कोनहीं स्वीकार कर रहा. भारत का लोहार आज से हजारों साल पहले भी बिना जंग का लोहा तैयार कर सकता था,लेकिन उसको कोई प्रोत्साहन नहीं मिला. जो लोग भारत को विभाजित और विखंडित कर रहे थे, वे ही भारत केअद्भुत ज्ञान को बटोर के ले जा रहे थे. पछले ६ दशकों में भारत का अद्भुत ज्ञान हर क्षेत्र में भारत से लुप्त हो रहा हैऔर भारत के नेतृत्व को इसका पता भी नहीं चल रहा है.
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