क्या यही है "विकास"?
पुरे भारत में अभी ७वे वेतन आयोग और दिल्ली में आप सरकार द्वारा प्रस्तावित वृद्धि खुशियों की बहार ले कर आई है. वेतन आयोग सरकारी कर्मचारियों की तनख्वाहको सवाया कर देगा तो केजरीवाल ने तो विधायकों की तनख्वाह दुगुनी से भी ज्यादा बढ़ा दी. ऐसे समय में जब सरकारी कर्मचारी और विधायक खुशियां मना रहें हैं तोकोई मजदूरों और निजी क्षेत्र के कर्मचारियों की भी सोच रहा है क्या? शायद नहीं. आज का भारत तो दो लोगों का ही है : १. सरकारी अफसरों का और २. राजनेताओं का..असली भारत तो वो है जो खेतों में मेहनत करता है, फैक्ट्रियों में मजदूरी करता है, छोटे - मोटे काम कर के पेट भरता है. उस भारत का क्या? उस भारत के लिए कोन सोच रहा है. उस भारत को तो तभी राहत मिलेगी - जब मेह्गाई कम हो, टैक्स कम हो, सरकारी महकमों में काम काज आसानी से हो, और आम आदमी की आय बढे.लेकिन सरकार भी तो कम थोड़े ही है. तर्क है की तनख्वाह बढ़ाने से भ्रस्टाचार कम हो जाएगा. चलिए उम्मीद करते हैं. तर्क है की तनख्वाह बढ़ने से काम ज्यादा होगा.देखते हैं. तनख्वाह, इनाम, अवार्ड्स, तोहफे, सरकारी सुविधाएं ये सब कहीं बन्दर बाँट की चीजें तो नहीं है? क्या कोई यह सोच रहा है की इस तरह से सरकारी तनख्वाहबढ़ाने से बढ़ने वाली महगाई से गाव के आम किसान का जिन दुश्वार हो जाएगा और गावों से शहरों की और पलायन और ज्यादा बढ़ जाएगा. क्या कोई यह सोच रहा हैकी इस प्रकार से तनख्वाह बढ़ाने से आम व्यापारी, मजदूर, और निजी क्षेत्र के कर्मचारी के लिए जिन मुश्किल जो जाएगा और भारत के परम्परागत उद्योग, कृषि,पशुपालन आदि पर संकट आ जाएगा. सिर्फ भू-माफिया और बड़े शहरों में रहने वाले उद्योगपति ही नहीं है इस देश में - और भी तो बहुत है जो अलग सोच रखते हैं. क्याहम उनके बारे में भी सोच रहे हैं? बढ़ते अमीर - गरीब के फासले से देश कहाँ जाएगा?
एक तरफ सरकार स्मार्ट सिटी की बात कर रही है तो कुछ लोग ये भी कह रहे हैं की क्यों न हम गावों में आधारभूत सुविधाएं बढाए? क्यों न हम आम लोगों की जरूरतोंपर ध्यान देवें? क्यों न हम भ्रस्ट सरकारी विभागों को बंद करने के लिए मुहीम चलायें. क्यों न हम उन की मदद करें जो भ्रस्ट तंत्र से जूझ रहे हैं. राजस्थान में प्रोफ़ेसरवरुण आर्य एक ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने कई वर्षों तक सरकारी तंत्र के भ्रस्टाचार का डट कर मुकाबला किया. ऐसा हिम्मत वाला आदमी बिरला ही मिलेगा. जो कामउन्होंने किया वो सभी करें तो कमाल हो जाए - पर ऐसा सब के लिए संभव नहीं है. उस समय सभी ये कह रहे थे की जितने सरकारी अधिकारी कंट्रोल करने के लिएलगाए गए हैं उनकी तनख्वाह में कही गुना ज्यादा प्राइमरी टीचर नियुक्त कर के सरकार देश का भला कर सकती है और उन अधिकारियों रूपी दीमक से देश को बचासकती है. प्रोफ़ेसर वरुण आर्य के संगर्ष ने ये बात साफ़ कर दी थी की सरकारी तंत्र - ख़ास कर उच्च अधिकारी वर्ग और राजनेता जो अनुमति देने के लिए दुनिया भर कीकागजी कार्यवाही करते हैं - वाकई में देश का भला नहीं कर रहे हैं. ये बात देख कर कई लोग ये कहने लगे थे की देश को अब आईएएस जैसे अधिकारियों की नहीं कर्मठकार्यकर्ताओं की जरुरत है. ऐसे लोगों की जरुरत है जो गावों में जाए - मदद करने का काम करें - न की कंट्रोल करने का. श्रीमान नरेंद्र मोदी ने जब कहा की वो सिर्फ प्रमुखसेवक है तो बड़ा अच्छा लगा और उम्मीद जगी की शायद देश का कायाकल्प हो जाए.
प्रश्न है की आज जब सरकार हर कम्पनी, हर कॉलेज, हर संस्था की रेटिंग करना अनिवार्य बना रही है तो स्वयं अपने विभिन्न विभागों का भ्रस्टाचार के स्तर के आधारपर रैंकिंग क्यों नहीं करवाती? ट्रांसपरेन्सी को बढ़ावा देने की बात करने वाले मंत्री क्यों नहीं अपनी कार्यप्रणाली को पारदर्शी बनाते? क्यों नहीं भ्रस्टाचार के आधार पररैंकिंग में शिक्षार पर आये हुए २-३ सरकारी विभागों की तनख्वाह बढ़ोतरी रोक दी जाए? क्यों नहीं भ्रस्ट सरकारी महकमों पर कोई लगाम लगा दी जाए. भ्रस्ट और श्रेष्ठसभी को बराबर तनख्वाह बढ़ोतरी का फायदा क्यों मिले? एक ग्रामीण विकास या शिक्षा को फैलाने वाले सरकारी विभाग की तनख्वाह भी उतनी ही बढे जितनी भ्रस्टविभाग की तो फिर कार्य करने के लिए प्रोत्साहन कहाँ हैं?
२०११ में जब पूरा देश भ्रस्टाचार के खिलाफ मुहीम शुरू कर रहा था तो उस वक्त किसी ने नहीं सोचा था छोटे छोटे मुद्दों से लोगों का ध्यान बदल दिया जाएगा. अवाम की ताकत गजब की होती है. १९१७ में रूस की क्रान्ति, १७७५ की अमेरिका की क्रान्ति और १७८९ की फ्रांस की क्रांति के बारे में सब ने सुना होगा. जहाँ जहाँ भी अवाम ठान ले तो जो चाहे वो संभव है. आज फिर अन्ना हजारे की जरुरत आ गयी है. आज फिर एक और आंदोलन की जरुरत है. क्यों नहीं हमहर स्तर पर फ़ैल रहे भ्रस्टाचार पर लगाम लगाने की बात करें? आम भारतीय रोटी चाहता है, रोजगार चाहता है, सरकारी विभागों से रहम चाहता है और हम उसको धर्म,असहिष्णुता, और पता नहीं क्या क्या कह कर गुमराह कर रहे हैं. क्या वो असंतुष्ट नहीं होगा? नतीजा क्या निकलेगा? ५ साल का इन्तजार? केन्या के मवांगी नामकएक कलाकार अपनी पेंटिंग से हर व्यक्ति को यही सन्देश देता है की वोट की ताकत से आप सरकार बदल दो और जो आप चाहते हो उसको प्राप्त करो. पर क्या ऐसाहोता है.
राजधानी में अच्छी भली सड़कों को तोड़ कर दुबारा बनाया जा रहा है तो गावों में सड़को के लिए बजट नहीं है. राजधानी में सौन्दर्यकरण के नाम पर पैसा पानी की तरहबहाया जा रहा है तो गावों में बिजली और पानी की व्यवस्था भी नहीं है. स्मार्ट सिटी के नाम पर विकसित शहरों को और ज्यादा विकसित किया जाएगा पर जहाँ पर कुछभी नहीं है उस क्षेत्रों की विकास की कोई बात ही नहीं कर रहा है. हम सभी जानते हैं की बहुराष्ट्रीय कंपनियों की फैक्ट्रियां खुल जाने से जीडीपी बढ़ जाएगा और हमविकसित देशों में आ जाएंगे - पर क्या इससे विकास हो जाएगा? खेती योग्य साड़ी भूमि पर फैक्ट्रियां बन जायेगी तो फिर अनाज कहाँ पर होगा? आज गुजरात में आपको खेत और खलिहान देखने के लिए तरसना पड़ेगा क्योंकि विकास के इस मॉडल में फैक्ट्रियां ही फैक्ट्रियां खुलेंगी गाव और खेत तो खत्म हो जाएंगे. भारतियों के जीवनका उद्देश्य कारों की सैर सपाटे करना है या अपने गाव में परिवार के साथ आत्मिक आनंद में स्वरोजगार में अपने आपको जीवन के अंतिम उद्देश्य की तरफ ले जाना है?प्रश्न है की सरकार को करोड़ों रूपये के बजट की आई आई टी जैसी संस्थाएं खोलनी चाहिए या गाव गाव में स्वास्थ्य, शिक्षा, और स्वरोजगार के लिए सोचना चाहिए?संसाधन सीमित है लेकिन हमारी चाहते और हमारे विकल्प असीमित है. इन मुद्दों पर बहस करने और सोचने के लिए आप और हम जैसे साधारण लोग और हमारे शहरके पाटे कोई कम नहीं है - चलिए शुरुआत करते है. हमें अपनी सोच पर भरोसा होना चाइये - हमारी आवाज भी अपनी गूंज से पुरे देश को हिला सकती है.
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