दाल अपनाईये - स्वास्थ्य सुधारिये
(यु एन दालों के लिए अंतरास्ट्रीय वर्ष के विशेष सन्दर्भ में)
वर्ष २०१६ नयी चुनौतियां ले कर आ रहा है. हम भारतियों के लिए अपनी संस्कृति, अपनी सभ्यता को अंतरास्ट्रीय मंच पर स्थापित करने के लिए ये एक सुनहरा वर्षहोगा. हम भारतियों के लिए अपनी अद्भुत परम्पराओं को बनाये रखने और अपनी जनता की मौलिक जरूरतों पर ध्यान देने की चुनौती भी है तो एक सुअवसर भी है.भारत आज भी सांस्कृतिक क्षेत्रों में पूरी दुनिया का मार्गदर्शन कर सकता है. पर यह भी जरुरी है की हम इस बात को नजरअंदाज न करें की आज हमारे देश में हर तीसराव्यक्ति गरीबी की रेखा से नीचे रह रहा है और फिलहाल हमारी प्राथमिकता उस व्यक्ति को राहत देने और उसको इज्जत की दाल- रोटी खाने में मदद करने की है. इसमेंसबसे बड़ी चुनौती है बढ़ती हुई महंगाई पर लगाम लगाने की. इधर दालों के दाम आसमान को छू रहे हैं उधर लगता है की आम आदमी को दाल - रोटी का साथ छोड़नापड़ेगा. अमीरों के पसंदीदा उत्पाद (जैसे कार, सोना आदि) सस्ते हो रहे हाँ लेकिन गरीबों का पंसदीदा उत्पाद दाल महंगा हो रहा है. अगर इसी तरह से दाल के दाम बढ़ते रहेतो दाल को लोग केसर की तरह इस्तेमाल करेंगे और "दाल - रोटी" एक अमीरों का भोजन बन जाएगा.
वर्ष २०१६ अंतरास्ट्रीय वर्ष है दाल का. पूरी दुनिया में दाल का सबसे ज्यादा उपभोग आज भी भारत में ही होता है. क्या कारण है दाल के दाम में लगातार बढ़ोतरी के ?अफ़सोस है की दाल का उत्पादन कम हो रहा है क्योंकि दाल की जगह पर किसान अन्य व्यावसायिक फसलों को उगाने लगे हैं. दाल का उपभोग भी कम होने लगा है.१९५१ में प्रति व्यक्ति ६० ग्राम के लगभग प्रतिदिन का उपभोग होता था, जो अब घाट कर आधा रह गया है. दाल के उपभोग के कम होने के दो कारण है - बढ़ते दामऔर बदलता उपभोग. पिछले वर्ष दाल के उत्पादन में १२% की कमी आई. इससे आयात को बढ़ाना पड़ा.
भारत में अलग अलग जगह पर अलग अलग तरह की दाल की खेती होती है और अलग अलग प्रकार की दाल के उपभोग का प्रचलन है. पूर्वी भारत में मसूर की दाल,दक्षिण में उड़द दाल, मध्य भारत में चना और मूंग दाल, उत्तरी भारत में अरहर तो पश्चिमी भारत में मोठ ज्यादा प्रचलित है. नयी पीढ़ी में दाल के प्रति रुझान कम होरहा है. हमें दाल को फिर से लोकप्रिय बनाना है. एक समय में दाल लोगों के भोजन का एक चौथाई हिस्सा होता था. अब दाल की जगह पर अन्य खाद्य पदार्थ उपयोगहोने लगे हैं. लेकिन दाल की पौष्टिकता और स्वास्थ्यवर्धक गुणों का कोई भी मुकाबला नहीं है.
कानपुर में भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान है जो दाल की नयी नयी किस्म की फसल तैयार करने के काम में जुटा है. आज जरुरत है की इस तरह की कई संस्थानकी शुरुआत हो ताकि अधिक से अधिक कृषि वैज्ञानिक दाल के उत्पादन बढ़ने के तरीकों को ईजाद कर सकें. अरहर के दाम २००/- प्रति किलो हो रहे हैं तो कानपुर की इससंस्थान ने आइपीए २०३ नामक एक नयी किस्म (अरहर की दाल) ईजाद की है जसमे प्रति हेक्टेयर उत्पादन लगभग २० क्विंटल (दूसरी किस्मों से दुगुना उत्पादन) आजाता है. हिसार की चौधरी चरण सिंह कृषि विश्वविद्यालय ने भी मूंग दाल, चना दाल, और उड़द दाल की नयी क्सिमों को ईजाद किया है. अब इन किस्मों को किसानों मेंलोकप्रिय बनाने की जरुरत है और किसानों को दाल को अधिक क्षेत्र में उगाने के लिए प्रेरित करने के लिए आसान ऋण और आसान सहायता उपलभ्ध करवाने के जरुरतहै. दालों का उत्पादन गिर कर १७ मिलियन मेट्रिक टन हो गया है जब की जनसंख्या लगातार बढ़ती जा रही है.
दाल न सिर्फ स्वाद और स्वास्थ्य के लिए श्रेष्ठ है बल्कि इसमें इतने तरह के व्यंजन बनाने की संभावनाएं है की ये हमारे खाद्य उद्योग के लिए भी एक मजबूत आधारहै. दाल की कई किस्में तो सिर्फ एक प्रदेश में ही मिलती है और दूसरे प्रदेश तक पहुँच ही नहीं पाती है. जैसे वाल गुजरात में लोकप्रिय है लेकिन अन्य जगह पर मुश्किलसे मिलती है. आज फिर से दाल और इसके महत्त्व को जानने के लिए पूरा विश्व एक साथ है और भारत को इस समय नेतृत्व की भूमिका निभानी है और भारतीय कृषिवैज्ञानिकों के लिए ये चुनौती भी है तो अवसर भी है.
ये समझो और समझाओ थोड़ी में मौज मनाओ
दाल -रोटी खाओ प्रभु के गुण गाओ
ज्वार भाटा (१९७३) फिल्म का ये गाना फिर से प्रासंगिक हो गया है
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