Thursday, December 10, 2015

EDUCATION SYSTEM IGNORING TRADITIONAL KNOWLEDGE

जन जन में फैले ज्ञान  की अनदेखी करता हमारा पाढ़यक्रम


भारत के सोशल मीडिया में आजकल एक चर्चा जोरों से चल रही है "कैसे इतिहास को पढ़ाया जा रहा है?". यह प्रश्न आज इस लिए उठ रहा है क्योंकि महाराणा प्रताप और अकबर की तुलना हो रही है और लोगों का एकाएक इस तरफ ध्यान गया है की  इतिहास में अकबर पर तो "महान" जैसे तुकमे लगाए जा रहे हैं और महाराणा प्रताप पर नहीं. खेर ऐसी एक नहीं अनेक बाते हैं जिनके बारे में चर्चा की जरुरत है. यह कितने दुःख की बात है की आजादी के छह दशक  बाद भी न तो हमारे देश में इतिहास की पढ़ाई बदली और न ही भारतीय इतिहास के प्रति नजरिया बदला. इस एक वाकये से हम कुम्भकर्णी नीड तोड़ कर उड़ जाएँ ऐसा तो हो नहीं सकता. फिर भी शुरुआत हो जाए तो भी एक बहुत बड़ी बात होगी. 

आप को मेरी बात में यकीं न हो तो निम्न बातों पर गोर करिये: - 

आपकी पीढ़ी शायद आखिरी पीढ़ी होगी जिसको "श्रवण कुमार", "राजा हरिश्चंद्र", "राजा बाहुबली", "दानवीर हर्ष", "राजा शिबि" "सती सावित्री" की कहानियां कंठस्थ याद है (इसलिए नहीं की इनकी पढ़ाई हुई, बल्कि इसलिए की ये इतिहास (कहानियां) जन मांस में व्याप्त है). 

आपकी पीढ़ी शायद आखिरी पीढ़ी होगी जिसको अपनी मातृ भाषा में सभी विषय पढ़ने और समझने का सौभाग्य मिला था. 

आपकी पीढ़ी शायद आखिरी पीढ़ी होगी जिसको भारतीय सभ्यता और संस्कृति का आधार भूत ढांचा समझ में आया था और अहिंसा, प्रेम, सत्य, त्याग, तपस्या जैसे विषयों पर आपको सैकड़ों कहानियां याद है. 





अगर श्रवण कुमार, राजा शिबि, राजा बाहुबली, राजा नल, पन्ना दाई, संत दधीचि, राजा हरिश्चंद्र  आदि लोगों की कहानियां "तथाकथित  इतिहास विषय " की विषय वस्तु में या  इतिहास की पुस्तकों में  लिखी होती और उनको पढ़ाया जाता तो इतिहास की पढ़ाई का फायदा ही कुछ और मिलता. लेकिन ऐसा नहीं किया जाता है क्योंकि ये वो इतिहास है जो जन-मानस के साथ जुड़ा है और जन मानस इसको याद रखता है. इस इतिहास को सही नहीं मान कर उस इतिहास को जिसको कुछ अंग्रेज विद्वानों ने  लिखा है उसको ही इतिहास का दर्जा देने की मानसिकता के कारण ही हमारा ये हस्र हुआ है. 


इतिहास वो है जो जन मानस की याद में बसा है. इतिहास वो है जो जन मानस पीढ़ी दर  पीढ़ी एक याद के रूप में आगे ले जाता है. इतिहास वो है जिसको जानकर हम अपने आप को अच्छे से जान पाते हैं. इतिहास वो है जिसको जान कर हम अपनी विचारधारा की नीव को समझ पाते हैं. जन मानस इसको याद रखता है. इस इतिहास को सही नहीं मान कर उस इतिहास को जिसको हम स्वयं नहीं जानते - बस हम पर थोप दिया गया है . इतिहास में स्नातकोत्तर कर लेने वाले व्यक्ति से आप अपने गाव, अपने शहर, अपने राज्य और अपने देश के इतिहास की एक कहानी सुनाने को कहिये - देखिये क्या होता है. अगर वो बीकानेर का है तो उसको करनी माता, बाबा रामदेव, और नागणेची माता का इतिहास भी पूछ कर देखिये. वो कहेगा - ये सब तो सलेबस में था ही नहीं. उसको अमेरिका और योरोप का इतिहास पूछिये - पूरा याद होगा. 

इतिहास सभ्यता और संस्कृति की नीव होता है. जैसा इतिहास जन मानस में फैला होता है वैसा ही लोगों का अपने बारे में नजरिया बनता है. जिस  भारत के इतिहास की बात में कर रहा हूँ, उत इतिहास को व्यवस्थित रूप से मार दिया गया है. पहले उस इतिहास को विदेशी आक्रान्ताओं ने मारा. बाद में आजादी के बाद, हमने स्वयं ने अपने इतिहास को मारा. हम इतिहास में क्या पढ़ा रहे हैं? भारत एक गरीब, गंवार, और लुटेरे लोगों का देश था. इतिहास की पढ़ाई में विद्यार्थी सैकड़ों युद्धों की कहानिया और सैकड़ों आक्रान्ताओं को महान बताती पुष्तकों को पढ़ कर कैसे भारत का नक्शा अपने मन में बनाएगा - आप भी सोच सकते हैं. यह इतिहास नहीं है. जो इतिहास था उसको हमने खत्म कर दिया. किसी भी ८५ वर्षीय व्यक्ति के पास जाइए और उससे भारत का इतिहास पूछिये. वो आपको राम, कृष्ण, राजा हरिश्चंद्र, चंद्रशेखर आजाद आदि की कहानिया बताएगा. आप उसको जितना पूछेंगे उतना ही वो विस्तृत इतिहास बताएगा. इतिहास का एक सचित्र वर्णन प्रस्तुत करेगा. ये ही इतिहास है. लेकिन सौभाग्य से वो बूढ़ा व्यक्ति इतिहास को भारत में श्रुति - व्यवस्था के कारण संतों और आम लोगों से सुन कर याद कर पाया है. हमारी अगली पीढ़ी उस इतिहास से वंचित है. क्योंकि उस इतिहास को समाप्त कर के एक नए इतिहास को याद करवाने का प्रयास चल रहा है. 

मनोवैज्ञानिक कहते हैं को आप अपने बारे में जो विचार रखते हैं वो ही आप बन जाते हैं. पहले भारत में हर गाव और हर शहर में आप को "भामा शाह" जैसे दानवीर और मददगार व्यक्ति मिल जाते थे क्योंकि उन्होंने इतिहास में राजा हरिश्चंद्र राजा हर्ष, और ऐसे ही दानवीरों की कहानियां सुनी थी. लेकिन आज के इतिहास को पढ़ने वाले हमारे विद्यार्थियों को तो सिर्फ लूट खसोट मचाने वाले आक्रान्ताओं की कहानियां याद होगी अतः वे सिर्फ येन केन प्रकरण सम्पत्ति अर्जित करना ही अपना लक्ष्य मानेगे. इस देश की धरा को बदलने में सबसे  ज्यादा योगदान इतिहास लिखने वालों का है. आजादी मिलते ही एक मौका आया था की  इतिहास विशषज्ञ आम जन के बीच फैले हमारे इतिहास को बटोरते और उसको तर्क और सबूत की धार पर जांच कर उसको व्यवस्थित रूप देते. लेकिन वो मौका चला गया. बीजेपी सरकार बनी तो सोचा था की एक बार फिर मौका मिलेगा. लेकिन लगता है वो मौका नहीं आएगा. 

एक विस्वविद्यालय के प्रबंधन अध्ययन के सिलेबस को बनाते समय मैंने भारतीय प्रबंध चिंतन और स्व-प्रबंध विषय पर विस्तृत विषय जोड़ दिया. उसमे भारतीय प्रबंध चिंतन का वर्णन किया, स्व-प्रबंधन की भारतीय परम्पराओं जैसे योग, ध्यान आदि को जोड़ा. उसमे भारतीय मूल भूत दर्शन को जोड़ा. क्या नतीजा निकला? मेरे बनाये गए उस विषय को हटा दिया गया. स्वाभाविक है -  किसी विदेशी ने बनाया होता तो मान्य होता. मैंने शोषण आधारित विदेशी प्रबंध अध्ययन के स्थान पर मानवीय गरिमा को केंद्रित  भारतीय प्रबंध दर्शन को प्रचारित करने का प्रयास किया - पर किसी भी भारतीय विस्वविद्यालय में वो पढ़यक्रम लागू नहीं हुआ. विदेशी व्यक्तियों का लिखा इतिहास और उनका लिखा ज्ञान हमें मान्य होता है लेकिन अपने देश के अद्भुत ज्ञान के भण्डार को नकारने और अपने आप को हीन भावना से देखने की हमारी आदत पड़ गयी है. 

पूरी दुनिया आज आर्थिक नीतियों के कारण परेशानी की तरफ जा रही है. यह स्पस्ट नजर आ रहा है की हम विनाश की तरफ जा रहे हैं. खुद पश्चिम यह स्वीकार कर रहा है की अगले 2००  वर्षों में धरती का तापमान काफी बढ़ जाएगा और  कई जगयों पर जीवन मुश्किल हो जाएगा. भारतीय विचारधारा पर आधारित "रिलेटिव इकोनॉमिक्स" की अवधारणा इसका एक समाधान है और इसीकारण अनेक विष्वविद्यालयों को इस हेतु अनुरोध किया गया है की इस दिशा में भी सोचें - लेकिन इतने वर्षों के प्रयास के बावजूद भी अभी तक किसी ने पहल नहीं की है. 

आज जरुरत है की कम से कम बीजेपी सरकार तो कुछ ऐसा प्रयास करे की विदेशी ज्ञान और विदेशी इतिहास को जानने के लिए बहाये जा रहे करोड़ों रुपयो की बर्बादी रोकें और भारतीय इतिहास और भारतीय ज्ञान को समेटने और संजोने की दिशा में कुछ पहल करे. अगर ऐसा कोई प्रयास होता है तो यह शुरुआत इस देश के अद्वितीय इतिहास को भारत सरकार की एक छोटी से भेंट होगी. 

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