Thursday, December 10, 2015

OUR POOR ECONOMIC POLICIES BRING DISASTERS

हमारी आर्थिक     नीतियां   जिम्मेदार  हैं हमारी बर्बादी  के लिए

आप इस लेख का शीर्षक देख कर चोंके होंगे - हर तरफ गगन चुम्बी इमारते हैं - कहाँ है बर्बादीहर तरफ बड़ी बड़ी अट्टालिकाएं हैं - कहाँ है बर्बादीहर आदमी की आमदानी बढ़ रही है - फिर कहाँ है बर्बादीहर व्यक्ति जश्न में मशगूल और चारों तरफ है पार्टियां - फिर कहाँ है बर्बादी?
मैं तस्वीर का दूसरा पक्ष देखने के लिए कहूँगा - हर परिवार टूट रहा हैहर घर उजड़ रहा हैहर व्यक्ति अपनी जिंदगी से परेशान नजर  रहा हैइंसान की इंसानियत लुप्त होती जा रही है और मानवीयता की जगह मशीनीकरण और डिजिटल दुनिया ले रही हैवृद्धाश्रम खुलते जा रहे हैंगो-मांस का प्रचलन बढ़ रहा हैसंस्कृति - कुसंस्रक्ति में बदल रहीहैअपनी भाषाअपना वजूद नहीं बचा हैजितनी आबादी हमारी आजादी के समय थी उतनी आबादी तो आज भूखे पेट सोती है  - क्या ये काम नहीं है बर्बादी को बयां करने के लिए?
आज आम आदमी परेशानी के भार तले दब रहा है लेकिन बड़े उद्योगपतियोंउच्च अधिकारियों और राजनेताओं को इसकी खबर नहीं हैंवे देश को एक ऐसे रास्ते पर ले जा रहे हैं जिसका अंत बड़ा भयावह होगादेश में जो भी विनाश (जिसको विकास कहा जा रहा हैहो रहा है उसके लिए हमारी आर्थिक नीतियां जिम्मेदार हैंजब तक ये नहीं बदलेगी,देश में परिशानियां और मुसीबते बढ़ती ही जाएंगी.
आजादी के  दशक के बाद भी आज आम आदमी आजादी का मतलब पूछ रहा है - कैसी आजादीकिसकी आजादीअगर ऐसी ही आजादी है तो फिर गुलामी में और आजादी में क्या फर्क हैउसके सवाल सही हैंसमस्या इस देश के आम आदमी की है और इन समस्याओं का समाधान वर्ल्ड बैंक या विदेशी वित्त विशेषज्ञ नहीं कर सकते.

बढ़ती आय - विस्फोटक खर्चे
हमारे हर आर्थिक निर्णय का प्रभाव हमारे समाज और हमारे जीवन पर पड़ता हैआज हमारी आर्थिक नीतियों के कारण हमारे घर टूट रहे हैंहमारे देश में वृद्धाश्रम का प्रचलन शुरू हो गया हैसामाजिक ढांचा चरमरा रहा है और हमारी संस्कृति तार तार हो रही हैआज हमारी आर्थिक नीति हमारी सामजिक व्यवस्था और जीवन शैली को तोड़ रही हैहरआर्थिक क्रिया का उद्देश्य मानव जीवन में खुशियों का संचार करना है - परन्तु हमारी आर्थिक नीतियों के कारण बड़े बड़े बिल्डिंग भले ही बन जाएँ - पर खुशियां  कहीं नजर नहीं  रही हैंहर व्यक्ति हर अगले दिन और अधिक भयभीत,  परेशान और चिंतित नजर  रहा हैमुद्रा स्फीति के कारण आम्दानी बढ़ती नजर आती है परन्तु हालत खस्ता होतीजाती हैजिसकी आमदानी पहले से १० गुना हो गयी है वो सोच भी नहीं पा रहा की उसका खर्च पहले से १५ गुना हो गया है (महगाई के कारणऔर वो बिणामतलब ही अपनी आए बढ़ने की ख़ुशी मन रहा हैसरकार बड़ी चतुराई से १०० रूपये की आमदानी बढ़ा देती है और पीछे से / आय कर और / सर्विस टैक्स के और बचे हुए रूपये किसी  किसीबहाने काट लेती हैऔर बेवकूफ आदमी खुश होता रहता है की मेरी आमदानी १०० रूपये बढ़ गयी है
बजट का गणित और बड़े प्रोजेक्ट्स का मोह
आज देश का बजट सालाना  १८  लाख करोड़ रूपये हैं - इतनी राशि में क्या  लाख गावों को स्वर्ग नहीं बनाया जा सकता हैएक एक गाव को तीन तीन करोड़ रूपये दे दीजिये और उनको इससे अपने गाव में कोई ऐसा काम करने के लिए कहिये की गाव में कोई भी भूखा  रहे और कोई भी बिना हुनर के  रहे - आप खुद देखेंगे की पूरा देश स्वर्ग बनगया है.  लेकिन अफ़सोस तो यह है की इस १८ करोड़ में से अधिकाण राशि प्रशाशनिक खर्च और ब्याज चुकाने में खर्च हो जाती है और सिर्फ  लाख करोड़ रूपये ही विकास के काम आते हैंउनमे भी अधिकाँश राशि बड़े प्रोजेक्ट्स में काम आती है (बड़े प्रोजेक्ट्स ही क्यों? - आप खुद सोचिये). गाव की एक छोटी सी स्कुल  लाख के बजट के लिए परेशानहोती है लेकिन जहाँ पर  लाख करोड़ का बजट होता है वहां पर तुरंत बजट पास हो जाता है (आप खुद सोचिये ऐसा क्यों है?). एक छोटी सी स्कुल में एक कमरा बनाने के लिए दस सवाल खड़े हो जाते है लेकिन जब १०००० करोड़ की बिल्डिंग बनायीं जाती है तो कोई सवाल नहीं होता हैआप भी समझिए  साल बाद चुनावी खर्च कैसा होगाएक एकचुनाव में ये पार्टियां जितने खर्च करती है उसका कोई तो जरिया होगा?
बड़े प्रोजेक्ट्स का समझ पर प्रभाव
आजादी के बाद से हमने पश्चिम की देखा देखि बड़े प्रोजेक्ट्स और उपभोग पर आधारित अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित किया हैहमने जान बुझ कर उद्यम प्रधान और हुनर प्रधान भारत को नौकरी पेशा करने वाला इंडिया  बना दिया हैहमने जान बुझ कर पारिवारिक व्यवस्था को खत्म कर एकल परिवार और कॅरिअर ओरिएंटेशन को बढ़ावा देने काप्रयास किया हैआर्थिक नीति सिर्फ अर्थशास्त्री तय करेंगे तो ऐसा ही होगाहोना यह चाहिए की आर्थिक नीति निर्माण में अर्थशाष्त्रीसमाजशास्त्रीमनोविज्ञानिकऔर ग्रामीण व्यवस्था से जुड़े सभी लोगों को मिल कर चिंतन करना चाहिए और निर्णय उसी व्यक्ति का होना चाहिए जो ग्रामीण व्यवस्था का मर्म समझता हैलेकिन हमारे देश में तोआर्थिक नीति सिर्फ अर्थशास्त्री (वो भी विदेश में पढ़े हुएतय करते हैं - जिनको उन आर्थिक नीतियों के लोगों के परिवारों पर पड़ने वाले प्रभावों की कोई चिंता नहीं होतीछोटी परियोजनाएं समाज में एकजुट और समरसता पैदा करती है और उनके द्वारा समाज का विघटन नहीं होता हैलेकिन बड़े प्रोजेक्ट्स समाज में भेद पैदा कर देती है और अमीरगरीब की खाई को बढाती जाती हैगरीब और ज्यादा गरीब हो जाता हैबड़े प्रोजेक्ट्स हमारी मानवीय पक्ष को गौण बना कर मशीनीकरण ला कर समाज को एक मशीनी संस्कृति की तरफ ले जाती है.
तकनीक और विकास
आजादी के बाद से जान बुझ कर ऐसी तकनीक विकसित को प्रोत्साहन दिया गया जो बड़े उद्योगबड़े प्रोजेक्ट्स और बड़े स्तर पर ही संभव हैलघुकुटीरऔर ग्रामीण उद्योगों को केवल कागजों में सहायता दी गयीहजारों करोड़ों की लागत के प्रोजेक्ट के लिए तो हमारे पास पैसे हैं लेकिन छोटे प्रोजेक्ट्स के लिए कोई पैसा नहीं हैकारण साफ़ है -चूँकि बड़े प्रोजेक्ट्स में बड़े बिचोलिये मौजूद होते हैं और उनको अपने आर्थिक हितों के कारण बड़े प्रोजेक्ट्स में ही रूचि होती है और नतीजा साफ़ है - सिर्फ बड़े प्रोजेक्ट्स ही मंजूर होते गए और छोटे प्रोजेक्ट्स को दर किनार होते गएपिछले  दशक में एक एक कर के अनेक छोटे प्रोजेक्ट्स नकार दिए गएजब प्रथम प्रधान मंत्री नेहरू बड़े प्रोजेक्ट्स कोप्रोत्साहित कर रहे थे तो कई अर्थशास्त्रियों ने आवाज उठायी पर कौन सुने उनकीआज हम बड़े प्रोजेक्ट्स के भार के तले दब रहे हैंउनको लागू करने ले किये बड़े बड़े ऋण लिए गएकोई भी बड़े प्रोजेक्ट फायदे में नहीं है - लगभग सब में घटा है - वो घटा भी जनता के सर पर और ऋण के ब्याज का भार भी जनता के सर पर.
उदाहरण
एक उदाहरण से अपनी बात स्पस्ट करता हूँ : जितने खर्च में जयपुर मेट्रो बन रही है उतने खर्च में ३० लाख स्वयं सहायता समूह को मदद की जा सकती थी यानी  करोड़ लोग सीधे तोर पर लाभान्वित हो जाते यानी लगभग १५ करोड़ लोग लाभान्वित हो जाते (एक व्यक्ति के परिवार में  व्यक्ति मानते हैं तो  करोड़ गुना ). लगभग ऐसी ही हालत हरयोजना की हैलेकिन प्रश्न है की हमारी आर्थिक नीति का उद्देश्य क्या है - वो तो अब बड़े और बड़े प्रोजेक्ट्स लगाने का हो गया हैआज हमारी आर्थिक नीतियां हमें विदेशी अर्थव्यवस्था के रास्ते पर ले जा रही है (क्योंकि आर्थिक नीति निर्माता विदेशी शिक्षा प्राप्त है और उनका उद्देश्य भी अमेरिका जैसा भारत बनाना है). बड़े पैमाने पर शहरीकरण करनेऔर शहरों को स्मार्ट सिटी बनाने के लिए हमारे पास बजट है लेकिन हमारी आर्थिक नीतियों का हमारे देश के सामजिक और मनोवैज्ञानिक ढाँचे पर क्या प्रभाव पड़ेगा उसके चिंतन के लिए कोई तैयार नहीं है.

 हमारी आर्थिक     नीतियां   जिम्मेदार  हैं हमारी बर्बादी  के लिए
आप इस लेख का शीर्षक देख कर चोंके होंगे - हर तरफ गगन चुम्बी इमारते हैं - कहाँ है बर्बादीहर तरफ बड़ी बड़ी अट्टालिकाएं हैं - कहाँ है बर्बादीहर आदमी की आमदानी बढ़ रही है - फिर कहाँ है बर्बादीहर व्यक्ति जश्न में मशगूल और चारों तरफ है पार्टियां - फिर कहाँ है बर्बादी?
मैं तस्वीर का दूसरा पक्ष देखने के लिए कहूँगा - हर परिवार टूट रहा हैहर घर उजड़ रहा हैहर व्यक्ति अपनी जिंदगी से परेशान नजर  रहा हैइंसान की इंसानियत लुप्त होती जा रही है और मानवीयता की जगह मशीनीकरण और डिजिटल दुनिया ले रही हैवृद्धाश्रम खुलते जा रहे हैंगो-मांस का प्रचलन बढ़ रहा हैसंस्कृति - कुसंस्रक्ति में बदल रहीहैअपनी भाषाअपना वजूद नहीं बचा हैजितनी आबादी हमारी आजादी के समय थी उतनी आबादी तो आज भूखे पेट सोती है  - क्या ये काम नहीं है बर्बादी को बयां करने के लिए?
आज आम आदमी परेशानी के भार तले दब रहा है लेकिन बड़े उद्योगपतियोंउच्च अधिकारियों और राजनेताओं को इसकी खबर नहीं हैंवे देश को एक ऐसे रास्ते पर ले जा रहे हैं जिसका अंत बड़ा भयावह होगादेश में जो भी विनाश (जिसको विकास कहा जा रहा हैहो रहा है उसके लिए हमारी आर्थिक नीतियां जिम्मेदार हैंजब तक ये नहीं बदलेगी,देश में परिशानियां और मुसीबते बढ़ती ही जाएंगी.
आजादी के  दशक के बाद भी आज आम आदमी आजादी का मतलब पूछ रहा है - कैसी आजादीकिसकी आजादीअगर ऐसी ही आजादी है तो फिर गुलामी में और आजादी में क्या फर्क हैउसके सवाल सही हैंसमस्या इस देश के आम आदमी की है और इन समस्याओं का समाधान वर्ल्ड बैंक या विदेशी वित्त विशेषज्ञ नहीं कर सकते.

बढ़ती आय - विस्फोटक खर्चे
हमारे हर आर्थिक निर्णय का प्रभाव हमारे समाज और हमारे जीवन पर पड़ता हैआज हमारी आर्थिक नीतियों के कारण हमारे घर टूट रहे हैंहमारे देश में वृद्धाश्रम का प्रचलन शुरू हो गया हैसामाजिक ढांचा चरमरा रहा है और हमारी संस्कृति तार तार हो रही हैआज हमारी आर्थिक नीति हमारी सामजिक व्यवस्था और जीवन शैली को तोड़ रही हैहरआर्थिक क्रिया का उद्देश्य मानव जीवन में खुशियों का संचार करना है - परन्तु हमारी आर्थिक नीतियों के कारण बड़े बड़े बिल्डिंग भले ही बन जाएँ - पर खुशियां  कहीं नजर नहीं  रही हैंहर व्यक्ति हर अगले दिन और अधिक भयभीत,  परेशान और चिंतित नजर  रहा हैमुद्रा स्फीति के कारण आम्दानी बढ़ती नजर आती है परन्तु हालत खस्ता होतीजाती हैजिसकी आमदानी पहले से १० गुना हो गयी है वो सोच भी नहीं पा रहा की उसका खर्च पहले से १५ गुना हो गया है (महगाई के कारणऔर वो बिणामतलब ही अपनी आए बढ़ने की ख़ुशी मन रहा हैसरकार बड़ी चतुराई से १०० रूपये की आमदानी बढ़ा देती है और पीछे से / आय कर और / सर्विस टैक्स के और बचे हुए रूपये किसी  किसीबहाने काट लेती हैऔर बेवकूफ आदमी खुश होता रहता है की मेरी आमदानी १०० रूपये बढ़ गयी है
बजट का गणित और बड़े प्रोजेक्ट्स का मोह
आज देश का बजट सालाना  १८  लाख करोड़ रूपये हैं - इतनी राशि में क्या  लाख गावों को स्वर्ग नहीं बनाया जा सकता हैएक एक गाव को तीन तीन करोड़ रूपये दे दीजिये और उनको इससे अपने गाव में कोई ऐसा काम करने के लिए कहिये की गाव में कोई भी भूखा  रहे और कोई भी बिना हुनर के  रहे - आप खुद देखेंगे की पूरा देश स्वर्ग बनगया है.  लेकिन अफ़सोस तो यह है की इस १८ करोड़ में से अधिकाण राशि प्रशाशनिक खर्च और ब्याज चुकाने में खर्च हो जाती है और सिर्फ  लाख करोड़ रूपये ही विकास के काम आते हैंउनमे भी अधिकाँश राशि बड़े प्रोजेक्ट्स में काम आती है (बड़े प्रोजेक्ट्स ही क्यों? - आप खुद सोचिये). गाव की एक छोटी सी स्कुल  लाख के बजट के लिए परेशानहोती है लेकिन जहाँ पर  लाख करोड़ का बजट होता है वहां पर तुरंत बजट पास हो जाता है (आप खुद सोचिये ऐसा क्यों है?). एक छोटी सी स्कुल में एक कमरा बनाने के लिए दस सवाल खड़े हो जाते है लेकिन जब १०००० करोड़ की बिल्डिंग बनायीं जाती है तो कोई सवाल नहीं होता हैआप भी समझिए  साल बाद चुनावी खर्च कैसा होगाएक एकचुनाव में ये पार्टियां जितने खर्च करती है उसका कोई तो जरिया होगा?
बड़े प्रोजेक्ट्स का समझ पर प्रभाव
आजादी के बाद से हमने पश्चिम की देखा देखि बड़े प्रोजेक्ट्स और उपभोग पर आधारित अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित किया हैहमने जान बुझ कर उद्यम प्रधान और हुनर प्रधान भारत को नौकरी पेशा करने वाला इंडिया  बना दिया हैहमने जान बुझ कर पारिवारिक व्यवस्था को खत्म कर एकल परिवार और कॅरिअर ओरिएंटेशन को बढ़ावा देने काप्रयास किया हैआर्थिक नीति सिर्फ अर्थशास्त्री तय करेंगे तो ऐसा ही होगाहोना यह चाहिए की आर्थिक नीति निर्माण में अर्थशाष्त्रीसमाजशास्त्रीमनोविज्ञानिकऔर ग्रामीण व्यवस्था से जुड़े सभी लोगों को मिल कर चिंतन करना चाहिए और निर्णय उसी व्यक्ति का होना चाहिए जो ग्रामीण व्यवस्था का मर्म समझता हैलेकिन हमारे देश में तोआर्थिक नीति सिर्फ अर्थशास्त्री (वो भी विदेश में पढ़े हुएतय करते हैं - जिनको उन आर्थिक नीतियों के लोगों के परिवारों पर पड़ने वाले प्रभावों की कोई चिंता नहीं होतीछोटी परियोजनाएं समाज में एकजुट और समरसता पैदा करती है और उनके द्वारा समाज का विघटन नहीं होता हैलेकिन बड़े प्रोजेक्ट्स समाज में भेद पैदा कर देती है और अमीरगरीब की खाई को बढाती जाती हैगरीब और ज्यादा गरीब हो जाता हैबड़े प्रोजेक्ट्स हमारी मानवीय पक्ष को गौण बना कर मशीनीकरण ला कर समाज को एक मशीनी संस्कृति की तरफ ले जाती है.
तकनीक और विकास
आजादी के बाद से जान बुझ कर ऐसी तकनीक विकसित को प्रोत्साहन दिया गया जो बड़े उद्योगबड़े प्रोजेक्ट्स और बड़े स्तर पर ही संभव हैलघुकुटीरऔर ग्रामीण उद्योगों को केवल कागजों में सहायता दी गयीहजारों करोड़ों की लागत के प्रोजेक्ट के लिए तो हमारे पास पैसे हैं लेकिन छोटे प्रोजेक्ट्स के लिए कोई पैसा नहीं हैकारण साफ़ है -चूँकि बड़े प्रोजेक्ट्स में बड़े बिचोलिये मौजूद होते हैं और उनको अपने आर्थिक हितों के कारण बड़े प्रोजेक्ट्स में ही रूचि होती है और नतीजा साफ़ है - सिर्फ बड़े प्रोजेक्ट्स ही मंजूर होते गए और छोटे प्रोजेक्ट्स को दर किनार होते गएपिछले  दशक में एक एक कर के अनेक छोटे प्रोजेक्ट्स नकार दिए गएजब प्रथम प्रधान मंत्री नेहरू बड़े प्रोजेक्ट्स कोप्रोत्साहित कर रहे थे तो कई अर्थशास्त्रियों ने आवाज उठायी पर कौन सुने उनकीआज हम बड़े प्रोजेक्ट्स के भार के तले दब रहे हैंउनको लागू करने ले किये बड़े बड़े ऋण लिए गएकोई भी बड़े प्रोजेक्ट फायदे में नहीं है - लगभग सब में घटा है - वो घटा भी जनता के सर पर और ऋण के ब्याज का भार भी जनता के सर पर.
उदाहरण
एक उदाहरण से अपनी बात स्पस्ट करता हूँ : जितने खर्च में जयपुर मेट्रो बन रही है उतने खर्च में ३० लाख स्वयं सहायता समूह को मदद की जा सकती थी यानी  करोड़ लोग सीधे तोर पर लाभान्वित हो जाते यानी लगभग १५ करोड़ लोग लाभान्वित हो जाते (एक व्यक्ति के परिवार में  व्यक्ति मानते हैं तो  करोड़ गुना ). लगभग ऐसी ही हालत हरयोजना की हैलेकिन प्रश्न है की हमारी आर्थिक नीति का उद्देश्य क्या है - वो तो अब बड़े और बड़े प्रोजेक्ट्स लगाने का हो गया हैआज हमारी आर्थिक नीतियां हमें विदेशी अर्थव्यवस्था के रास्ते पर ले जा रही है (क्योंकि आर्थिक नीति निर्माता विदेशी शिक्षा प्राप्त है और उनका उद्देश्य भी अमेरिका जैसा भारत बनाना है). बड़े पैमाने पर शहरीकरण करनेऔर शहरों को स्मार्ट सिटी बनाने के लिए हमारे पास बजट है लेकिन हमारी आर्थिक नीतियों का हमारे देश के सामजिक और मनोवैज्ञानिक ढाँचे पर क्या प्रभाव पड़ेगा उसके चिंतन के लिए कोई तैयार नहीं है.

No comments:

Post a Comment