Thursday, December 10, 2015

WATER CONSERVATION PRACTICES IN BIKANER

बारिश की बून्द बून्द सहेजता था एक समय का बीकानेर 

रेगिस्तान की मुश्किलों के बीच बीकानेर के चुनौती था. एक समय जब यहाँ न नहर का पानी था, न कोई साधन - तब बीकानेर पूरी दुनिया के काम आने वाले अद्भुत "रेन वाटर हार्वेस्टिंग" के आधार पर आम जन की जिंदगी को एक सहारा प्रदान कर रहा था. बीकानेर का वो हुनर अब लुप्त होने के कगार पर है लेकिन उसकी जानकारी पूरी दुनिया के लिए एक बेहतरीन सौगात है. घर घर में टांका, कुण्ड, जल-कुण्डी, बावड़ी आदि इस प्रकार बांयी जाती थी की बारिश की एक एक बून्द काम आ सके. इस प्रयास में यहाँ के वास्तुशास्त्रियों और शिल्पकारों ने मकान बनाने की ऐसी तकनीक ईजाद की थी की बारिश के समय घरों की छत पर पानी इकठा हो कर जल-कुण्ड में समां जाए. अंदर इस प्रकार का निर्माण होता था ताकि पानी वर्षों तक सुरक्षित रह सके और उसमे किसी प्रकार के कीड़े भी न लगे. ये सब अद्भुत अभियांत्रिकी था जो अब लुप्त हो चूका है. लेकिन उस वैज्ञानिक सोच को सलाम करने की जरुरुआत है की वर्षों पहले भी हमारे तथाकथित अनपढ़ वास्तुशास्त्री इतना बेहतरीन निर्माण कर पाये. 

लोग मकान को बनाने से पहले जल-कुण्ड बनाया करते थे. ये जल कुण्ड बेहतरीन शिल्प कला के उदाहरण हैं. आज भी ये जलकुंडियां सलामत है. ५०० वर्ष से ज्यादा पुराण भंडाशाह मंदिर हो या रेल-दादाबाड़ी का जल कुण्ड हो, या शिवबाड़ी की बावड़ी हो  - ये सब आज के इंजीनियरिंग के विद्यार्थियों के लिए एक सीखने और समझने के जीवंत उदाहरण हैं. यही तो सस्टेनेबल डेवलपमेंट और पर्यावरण के अनुकूल अभियांत्रिकी है जिसको सीखने की जरुरत है आज के इन्गिनीर्स को. 

उस मुश्किल समय में भी जब पानी दूध से ज्यादा महंगा और दुर्लभ था, तब भी इस रेगिस्तान के लोगों ने पानी को सहेजने और इस्तेमाल करने के अद्भुत नियम ईजाद किये थे. लोग उस समय भी पालतू पशुओं (जैसे गाय, भेंस, बकरी आदि) को पालते थे और इन पशुओं को भी पानी पिलाते थे. ये सब लोगों का जीवन के प्रति सकारात्मक पहलु ही साबित करता था. साल दर साल अकाल पड़ते रहते थे और मुश्किल घड़ियों में सभी लोग एक दूसरे की मदद कर किसी तरह जीवन की नैया पार लगाते थे. उस अद्बुत जिजीविषा और संघर्ष क्षमता को आज सलाम करने की जरुरत है और उसकी गाथाओं को आने वाली पीढ़ी की लिए लिख कर सहेजने की जरुरत है. उम्मीद है की इतिहासकार इस दिशा में सोचेंगे. 

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