Thursday, December 10, 2015

YOUTH IN THE GRIP OF DRUGS AND ADDICTIONS

नशे की गिरफ्त में युवा 

(विश्व तम्बाकू निषेध दिवस - 31 MAY पर विशेष )

विवेकानंद कहते थे "मुझे १०० जवान लड़के दे दो मैं देश को बदल दूंगा." लेकिन अगर विवेकानंद आज होते तो आज के माहोल में १०० जवान लड़के कहाँ मिलेंगे? हर तीसरा लड़का तो नशे में डूबा है. कोई शराब में, कोई सिगरेट में, कोई गंजे में, कोई गुटखे में - सब अपनी जवानी और संपत्ति को लुटाने में लगे हैं. पहले हर गाव में दूध और दही मिलता था. आज हर गाव में कैंसर की फैक्ट्रियां (सिगरेट, गुटका आदि) मिलती है जो ले ले कर हर युवा अपने आप को किसी हीरो से कम नहीं समझता है (कैसी ग़लतफ़हमी है की नशा कर के युवा वर्ग अपना और अपने परिवार का नुक्सान कर रहे हैं और फिर भी उस नशे को सही ठहरा रहे हैं.). 

सिगरेट, तम्बाकू, गुटका, शराब ....आदि आदि - ये सब आज युवा वर्ग को अपने जाल में जकड़ रहे हैं. आज के युवा वर्ग को तुरंत नाम चाहिए, पैसा चाहिए, शोहरत चाहिए, ऐशो - आराम चाहिए और ये नहीं मिलते (तुरंत सब कुछ मिलना संभव नहीं है) तो युवा वर्ग नशे की राह पकड़ लेता है. हॉस्टल में रहने वाले हर ४ में से ३ लड़के आज किसी न किसी नशे के चंगुल में फंस चुके हैं. घर से माता पिता से उनकी मेहनत की कमाई के पैसे मंगवाते हैं - कहते हैं की पढ़ाई  के लिए चाहिए और फिर वे उन रुपयों को नशे में उड़ा देते हैं. आप किसी भी हॉस्टल में रात के समय में जाइए आप को स्वयं यह स्थिति मिलेगी.  आप किसी भी होटल के पास जाइए , आप को उस हॉस्टल के पास में सिगरेट, तम्बाकू, गुटखा, मांसाहार और शराब की दूकान जरूर मिलेगी. आप स्वयं समझ जाएंगे की ये दुकाने वहां पर क्यों है? आप के मन में प्रश्न हो सकता है की इन दुकानों की यहाँ क्यों जरुरत है? शिक्षण संस्थाओं में नशे पर प्रतिबन्ध है और उनको नशा मुक्त घोषित करना अनिवार्य है. इसी प्रकार हॉस्टल पर भी ये नियम लागू होना चाहिए. पर ऐसा नहीं है और नतीजा साफ़ है. 

बड़े और लम्बे पाठ्यक्रमों में, जहाँ पर विद्यार्थी से अपेक्षाएं ज्यादा होती है वहां नशे के चंगुल में फंसने के अवसर भी ज्यादा होते हैं. जिन पाठ्यक्रमों में फीस ज्यादा होती है वहां पर नशे की प्रवृति भी ज्यादा होती है. एक उदाहरण से बात स्पस्ट करता हूँ: - भारत में  ५०  लाख से ज्यादा विद्यार्थी इंजीनियरिंग  की पढ़ाई कर रहे हैं. इनमे से आधे से भी ज्यादा विद्यार्थी हॉस्टल में रहते हैं. ये वो विद्यार्थी हैं जो १२ वि तक घर के कढ़ोर अनुशाशन में रहे लेकिन जैसे ही इंजीनियरिंग में दाखिला मिला, इनको एकाएक खुला माहोल मिल गया. परिवार का बंधन हटा और होसटल के उन्मुक्त माहोल में उन्होंने वो सब काम शुरू कर दिए जो करना परिवार में रहकर संभव नहीं था. इंजीनियरिंग के विद्यार्थी को हर दूसरे दिन कोई  न कोई असाइनमेंट या होम-वर्क करना पड़ता है. इंजीनियरिंग के साथ में मनोविज्ञानिक मार्गदर्शन का अभाव है और चूँकि कोई कौन्सेल्लिंग नहीं मिलती - अतः विद्यार्थी अपनी हताशा निकालने के लिए तुरंत नशे का सहारा ले लेता है. इंजीनियरिंग के विद्यार्थी को उसके माता-पिता भी खुले हाथ पैसे भेजते रहते हैं और नतीजा आप के सामने हैं - हर दूसरा विद्यार्थी नशे की गिरफ्त में में. 

फिल्म उद्योग का प्रभाव 
भारत में फिल्म और टेलीविज़न का आम जनता पर बहुत प्रभाव पड़ता है. आज हर व्यक्ति हीरो-हेरोइन की तर्ज पर कपड़े पहनता है, बाल बनता है और उनकी देखा देखि नशा भी करता है. शाहरुख़ खान जैसे कई कलाकार हैं जिनकी अदाकारी का लोग आँख मीच कर अनुसरण करते हैं (उनकी देखा देखि सिगरेट भी उनकी तरह ही  पीते हैं). पुराने जमाने की फिल्मों में सिर्फ विलेन को ही नशे में बताया जाता था. आज की फिल्मों में तो हीरो भी सिगरेट पीता है और इस  प्रकार ये एक शान की चीज के रूप में प्रस्तुत की जा रही है. 
वर्ष २००५ में सरकार ने फिल्मों और टीवी प्रोग्राम में सिगरेट पीने पर प्रतिबन्ध लगाया था लेकिन कुछ लोगों ने उसका भारी विरोध किया. मामला कोर्ट में जा पहुंचा और न्यायलय ने सरकार के आदेश के खिलाफ फैसला दिया. फिर से नशा फिल्मों पर छा गया. इस नशे से आज हमारी अगली पीढ़ी कैसे निकल पाएगी - कोई उम्मीद नहीं दिख रही है. 

बिगड़ता कॉर्पोरेट कल्चर 
आज हर कम्पनी अधिकारियों को खुश करने के लिए पार्टी और जश्न आयोजित कर रही है. पार्टी-शार्टी का कल्चर बढ़ रहा है. कभी नए साल की पार्टी, कभी दिवाली की पार्टी, तो कभी होली की पार्टी. कम्पनियाँ पार्टी में सिर्फ भोजन ही नहीं देती. वहां पर नशे की साड़ी सामग्री होती है. ज्यादातर कम्पनियाँ और उद्योग समूह अपनी पार्टी पांच सितारा होटल में देते हैं. इन होटल में सिगरेट, मांसाहार  और शराब को खुल कर परोसा जाता है और उसे एक फैशन के रूप में प्रस्तुत किया जाता है. चूँकि पांच सितारा होटल की कमाई भी इससे जुडी होती है अतः वे और उनके एजेंट (इवेंट मैनेजमेंट कम्पनी वाले) इसको जम कर प्रोत्साहित करते हैं.  इस अंधी दौड़ में नयी पीढ़ी तो तुरंत फंस जाती है. आप और मुझ जैसे टीटोटलर को एक कोने में चुप चाप खड़े रहने के आलावा कोई विकल्प नहीं दीखता. 

चुनावी हथकंडे 
भारत में ज्यादातर समस्याएं हमारे चुनावी ढांचे के कारण हैं. मेरे जैसे कई लोगों का ये मानना है की चुनाव की पूरी व्यवस्था और उसका खर्च सरकार को करना चाहिए. आज के परिप्रेक्ष में चुनाव एक पैसे का खेल बन गया है. हर व्यक्ति चुनाव जीतने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाता है और चुनावों में पैसे के आलावा नशा भी खुल कर बांटा जाता है. चुनाव में करोड़ों रूपये बहाये जाते हैं और बाद में अगले ३-४ सालों में उनकी उगाई के लिए हर तरह के अध्कंडे अपनाये जाते हैं. जो ग्रामीण पहले सादा और उच्च विचारों वाला जीवन जीते थे उनको भी चुनाव की इस गंदगी ने नशे की चंगुल में फंसा दिया है. चुनाव तो ५ साल में एक बार आते हैं लेकिन वो व्यक्ति नशे की दूकान पर रोज जाना शुरू कर देते हैं. 

गुजरात से प्रेरणा की जरूरत 
हरिवंश राय बच्चन की कविताओं को एक बार भूल जाइए. हकीकत है की नशे के कारण हमारे घर, परिवार, और लोग बर्बाद हो रहे हैं. लोगों की कार्य दक्षता खत्म हो रही है और उनके स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है. उनकी साड़ी आम्दानी स्वाहा हो रही है. हमें गुजरात से सीख लेनी चाहिए. इलाबेन पाठक और उनकी टीम गाव गाव जा कर नशे का विरोध करती थी. वे पुरजोर आवाज में नशे का विरोध करते रहे और सरकार को मजबूर कर दिया की गुजरात में शराब  को पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया जाए. इसका नतीजा भी आप देख सकते हैं. गुजरात में शराब बंदी के कारण वहां के लोगों की समृद्धि और पारिवारिक सामंजस्य दोनों बढे हैं. 

सोहन लाल मोदी की का प्रयास
स्वर्गीय सोहनलाल जी मोदी ने छतरगढ़ में अपने गाव में जन - जन में नशा - मुक्ति के लिए अद्भुत प्रयास किया और अपने गाव को तो पूरी तरह से नशा मुक्त कर दिया था. उनके जैसे ही अनेक प्रयासों की फिर से जरूरत आ गयी है.  एक समय में राजस्थान में इस प्रकार के काफी प्रयास हो रहे थे. लेकिन आज यह जान कर अफ़सोस होगा की देश का पहला नशा मुक्त गाव "गरिफेमा" नागालैंड राज्य से है न की राजस्थान से. फिर से जरूरत है की कुछ युवा आगे आएं और इस बर्बादी के तूफ़ान से मोर्चा लेवें. 

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