Thursday, December 10, 2015

PROBLEMS OF EDUCATION SYSTEM

शिक्षा तंत्र की कमजोरियां  और विद्यार्थी की मजबूरियां

आज लाखों  विद्यार्थी इस दुविधा में फंसे हैं की कोनसा कोर्स करें ताकि उनको पांच साल बाद अपने पाँव पर खड़े होने का मौका मिले और वो भी समाज में अपना योगदान दे सकें. आज एक तरफ विद्यार्थी हैं और दूसरी तरफ शिक्षण संस्थान हैं - और दोनों पक्ष अपनी अपनी जगह पर असंतुष्ट हैं. शिक्षण संस्थान फर्राटे दार अंग्रेजी बोलने वाला और अंग्रेजी की पुस्तकें पढ़ने वाला विद्यार्थी चाहते हैं (जो मेरे अनुसार गलत है). विद्यार्थी अपनी दक्षता और योग्यता में बहुत सुधार चाहता है (जो अक्सर नहीं हो पाता क्योंकि शिक्षण संस्थान सिर्फ अंग्रेजी सुधारने में ही सारा समय बिता देते हैं). १८५४ का मेकाले का डिस्पैच आज भी भारत की जनता पर भारी पड़ रहा है. आज भी अधिकांश जनता तकनीकी दक्षता, हुनर और सफलता चाहती है लेकिन सरकार, शिक्षण संस्थानों और कंपनियों को लगता है की जो अंग्रेजी में दक्ष है वो ही श्रेष्ठ  है. इसी कारण इस विशाल देश में आज भी शिक्षा का उतना विस्तार नहीं हो पा रहा है जितना होना चाहिए. 
भारत की विशाल जनसँख्या के लिए बहुत  विशाल शिक्षा तंत्र चाहिए. ये वो देश है जिसमे हर वर्ष २ करोड़ विद्यार्थी उच्च शिक्षा के द्वार पर प्रवेश करते हैं. उनके  सपनो  को  पूरा  करने   के लिए देश में ५००००  से ज्यादा कॉलेज, ३५० से ज्यादा विस्वविद्यालय, अनेक पत्राचार संस्थान, २५०० से ज्यादा बिजनेस स्कुल आदि हैं - लेकिन ये फिर भी कम हैं. आज भी ओसत विद्यार्थी पढाई नहीं कर पाता है. कुछ आर्थिक कारणों से, कुछ पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण से पढ़ाई छोड़ देते हैं तो कुछ को शिक्षा तंत्र फ़ैल कर के निकाल देता है. 
भारत में स्कुल शिक्षा में भी काफी विविधता है, जैसे : - 
सीबीएसई 
कौंसिल ऑफ़ इंडियन स्कूल सर्टिफिकेट एग्जाम
स्टेट बोर्ड (जैसे राजस्थान में राजस्थान बोर्ड ऑफ़ सेकेंडरी एजुकेशन) 
इंटरनेशनल बोर्ड 
ओपन स्कूल आदि. 

इन विविध माध्यमों से निकलने वाले विद्यार्थियों में दक्षता भी अलग अलग होती है. कोई बहुत दक्ष होते हैं और सही मार्गदर्शन और मेहनत के बल पर आईआईटी जैसे संस्थाओं में दाखिल पा लेते हैं. पर ज्यादातर को निराशा हाथ लगती है. शिक्षा तंत्र को एक ऐसा तंत्र बनाना उचित नहीं जिसमे में लोगों को अपने सपने संजोने का मौका ही न मिले. कमसे कम बराबर मौका तो सब कोमिलना ही चाहिए. ऐसा उचित नहीं की प्रतिभा होने के बावजूद भी कोई आगे बढ़ने से वंचित हो जाए. 

तकनीक के विकास के बावजूद भी हम उस तकनीक का शिक्षा के क्षेत्र में उचित रूप से प्रयोग नहीं कर पा रहे हैं. इग्नू की स्थापना १९८५ में हुई थी और उसने ज्ञान दर्शन और इस प्रकार के कई प्रयास किये थे लेकिन वे उतने लोकप्रिय नहीं हुए जितने होने चाहिए. फिर भी तकनीक को शिक्षा के क्षेत्र में लागू करने में इग्नू के प्रयास स्तुत्य हैं. अगर भारत में लाखों लोगों को दुरस्त शिक्षा पहुचाने में इग्नू के योगदान को देखें तो वो वंदनीय हैं. निजी क्षेत्र की इस दिशा में और ज्यादा भागीदारी हो सकती थी अगर सरकारी तंत्र (सरकारी तंत्र से अनुमति लेने में निजी क्षेत्र को पसीने आ जाते हैं और फिर भी वो डिग्री अक्सर मान्य नहीं होती)  अगर करोड़ों लोगों को दक्षता प्रदान करनी हैं तो तकनीक के व्यापक इस्तेमाल पर जोर देना पड़ेगा और वर्तमान सरकारी ढांचे को बदलना पड़ेगा (ताकि नौकरशाही कम हो और निजी क्षेत्र को शिक्षा को फैलाने में दिक्क़ते न आये).

रोजगार के लिए मुख्य रूप से इंजीनियरिंग, तकनीकी और प्रबंध शिक्षा ही जिम्मेदार है और इस साड़ी शिक्षा व्यवस्था में गुणात्मक सुधार की  जरुरत है. जैसे प्रबंध शिक्षा की बात करें तो हम ये देखते हैं की २५०० से ज्यादा प्रबंध शिक्षण की संस्थाओं के बावजूद देश में अच्छे प्रबंधक नहीं मिलते हैं. ये सभी शिक्षण संषताएं सिर्फ अंग्रेजी की पाठशाला बन कर रह गयी हैं जबकि प्रबंध शिक्षण का मतलब अंग्रेजी की शिक्षा नहीं बल्कि निर्णय लेने की क्षमता का विकास है. निर्णय लेने के लिए अलग अलग परिस्थितियों में निर्णय लेने के अभ्यास की जरूरत है लेकिन वो अभ्यास नहीं करवाया जाता है सिर्फ अंग्रेजी में सुधार करने से ही कोई अच्छा प्रबंधक तो नहीं बन सकता है. लगभग यही हाल इंजीनियरिंग व् अन्य तकनीकी पाठ्यक्रमों में हो रहा है.  

आज बड़े शहरों में उच्च शिक्षा में ९५% से नीचे प्रवेश ही नहीं मिलता है. तो फिर वो विद्यार्थी क्या करें जिनके सपने हैं की वो भी देश के लिए एक दक्ष व्यक्ति बन कर नाम कामना चाहते हैं. समाधान ये है की हम दुरस्त   शिक्षा   को मजबूत बनायें. जब हम तकनीक की मदद से हर विद्यार्थी को श्रेष्ठतम शिक्षा उपलब्ध करवाएंगे तो गाव में बैठा विद्यार्थी भी उच्छ्तम् शिक्षा हासिल कर पायेगा. साथ ही शिक्षा में विद्यार्थी को उद्योगों के साथ मिल कर व्यवहारिक ज्ञान देने पर जो दिया जाए. हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओँ में भी बेहतरीन शिक्षा दी जा सकती है और इसके लिए भी प्रोत्साहन की जरुरत है. ये एक अफ़सोस की बात है की देश की तथाकथित श्रेष्ठतम संस्थानों में कही पर भी न तो हिंदी में पढ़ाई होती है न ही हिंदी में शोध, लेखन और शिक्षण - प्रशिक्षण के लिए कोई प्रोत्साहन है. हिंदी के प्रति इसी हीनभावना के कारण हमारे देश में इच्छित प्रगति नहीं हो पायी है. जिन संस्थाओं की स्थापना उद्यमिता को बढ़ावा देने के लिए हुई है - वे भी सिर्फ अंग्रेजी में ही शिक्षा प्रदान कर रही हैं - जबकि व्यवहारिक जीवन में उद्यमी को अपना ज्यादातर कार्य हिंदी भाषा में करना होता है. जहाँ जहाँ पर हिंदी का इस्तेमाल शुरू हुआ है वो सिर्फ खाना -पूर्ति के लिए है और वहां पर भी हिंदी में अन्य भाषाओं के शब्द काम में ले कर इतनी मुश्किल शब्दावली काम में ली जाती है की वो समझना भी मुश्किल हो जाता है (बोलचाल की भाषा का इस्तेमाल नहीं किया हटा है). 

दिल्ली में दो वर्ष पहले प्रोफेसर वरुण आर्य ने नेशनल बिल्डिंग मीट (जिसका उद्देश देश की प्रगति के लिए एक चिंतन  की शुरुआत करना था) का आयोजन किया जिसमे देश भर से चिंतक और विचारक आये. मुझको भी उसमे भाग लेने का मौका मिला. मैंने सुझाव दिया की सबसे पहले कानूनो को सरल (आम बोल चाल की भाषा) में प्रस्तुत किया जाए ताकि कानून और नियम हर व्यक्ति को समझ में आ सके. लेकिन कानून से जुड़े हुए अधिकाँश विशेषज्ञ उस दिशा में सोचने को भी तैयार नहीं थे. मुझे लगा की यह बिलकुल वैसे ही है जैसे की मेरे क्षेत्र (शिक्षा के क्षेत्र) के लोग भी शिक्षा को सरल और सुगम नहीं होने देना चाहते हैं. जैसे की नियोजन  (मैं प्रबंध शिक्षण से जुड़ा हूँ) को पढ़ाने के लिए ५०० पेज की किताब पढ़ा दी जाती है लेकिन वो बात बहुत ही कम और आसान शब्दों में सजाई जा सकती है और छोटे छोटे प्रयोगों से उस प्रक्रिया को जीवन में अपनाया जा सकता है लेकिन ऐसा नहीं होता है और हर वर्ष किताब का आकर बढ़ता जाता है, विद्यार्थी पर बोझ बढ़ता जाता है लेकिन ज्ञानार्जन कम होता जाता है. 

हमें यह समझना चाहिए की प्रबंधक बेहतरीन तब बनेगा जब उसको प्रबंध का प्रशिक्षण मिले और उसके लिए उसको रोज ऐसी परिस्थितियों में निर्णय लेने का प्रशिक्षण दिया जाए जो ज्यादा से ज्यादा मुश्किल हो. इंजीनियर तब अच्छा बनेगा जब उसको मशीनों पर काम करने और उनकी प्रक्रियाओं को समझने और सॉफ्टवेयर की मदद से उनमे प्रयोग कर के उनमे सुधार करने का मौका मिले. होटल के लिए श्रेष्ठतम कर्मचारी तब मिलेंगे जब उनको विविध प्रकार वे व्यंजन बनाने और उनको परोसने का मौका मिलेगा. अच्छे शिक्षक तब मिलेंगे जब उनको श्रेष्ठतम शिक्षको के मार्गदर्शन में शिक्षण प्रदान करने का मौका मिलेगा और सुधार के लिए मार्गदर्शन मिलेगा. 

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