Thursday, December 28, 2017

एक बार जोर से कहो - मुट्ठी है तकदीर हमारी..


आज पूरी दुनिया में युवाओं में बढ़ती हिंसा, घृणा, द्वेष, आवेश, आवेग, और हताशा एक चुनौती है. युवाओं में आत्महत्या की प्रवृति बढ़ रही है तो साथ ही उनमे आवेश और उन्माद भी बढ़ रहा है. नशा, जुवा, और चरित्रहीन  आचरण बढ़ रहा है. हम खुश है की हमारे पास वो विरासत है जो हमें इन से बचाये हुए है. 

क्या कभी आपने अपने आप को असहाय, बेबस, हताश, निराश महसूस किया है? क्या कभी आपने आपने आपको बहुत छोटा और अक्षम व्यक्ति के रूप में महसूस किया है? हम सबके सामने ऐसे क्षण आ जाते हैं जब हम को अपनी जिंदगी के महत्त्व पर संदेह होने लग जाता है. वो समय बड़ा महत्वपूर्ण निर्णय का है. उस समय हम को दृढ शक्ति के साथ अपने आप से पूछना है की किस मकसद से आये हैं जनाब यहाँ? फिर पक्के विश्वास से कहना होगा की इस लक्ष्य को तो हासिल करना ही पड़ेगा - आज नहीं तो कल. जिस क्षण हमें ये लगे की हम अक्षम हैं - उसी क्षण हमें आपने आपसे कहना होगा की हम जो हैं वो अद्भुत है - और हम जो चाहते हैं वो कर के रहेंगे - और इस दुनिया को हमारी क्षमता को सलाम करना ही पड़ेगा. 

भारतीय दर्शन और परंपरा में एक बहुत अच्छी बात है की हम जो भी पाते हैं उसको  ईश्वर को समर्पित करते हैं और जो खोते हैं उसके लिए भी ईश्वर को जिम्मेदार मानते हैं. हम चाहे जिस धर्म में भी विश्वास करें - इस संसार की अदृश्य  शक्तियों को नमन करते हुए अपने आप को उसको समर्पित कर देते हैं और उसको ये ही निवेदन करते हैं की वो हमको सुख, समृद्धि और विवेक प्रदान करे. जो कुछ भी होता है उसके ही नाम लिख देते हैं. चलो कोई तो है जो हमारे भाग्य - दुर्भाग्य के लिए जिम्मेदार है. कोई तो है जिसको हम हमारे सारे कर्म समर्पित कर देते हैं - और स्वयं तनाव मुक्त और अहम् मुक्त रहते हैं  

मुझे हाल ही मैं एक मौका मिला प्रतिभाओं को देखने और सुनने का. एक विद्यार्थी मिला. वो गोटन से १८ किलोमीटर दूर एक गांव से आया था. दस साल पहले उसके पिता का एक सड़क दुर्घटना में स्वर्गवास हो गया. उसके पिता एक निजी कम्पनी में ड्राइवर थे. आज घर की जिम्मेदारी वो बालक संभाल रहा है. अपनी पढ़ाई के साथ वो बालक मार्बल तराशने का काम भी करता है और उससे उसको ६००० रूपये महीने की आमदनी होती है. इस काम के बावजूद वो बालक पढ़ाई में अव्वल है और १२ की पढ़ाई में उसने डिस्टिंक्शन हासिल की. जिंदगी की कटु सच्चाई ने उसकी चेतना और जागृति को एक नई ऊंचाई दी. मैंने उसको पूछा की तुम क्या करना चाहते हो - तो उसका जवाब था शिक्षा को फैलाना - क्योंकि इससे गरीब लोग भी तरक्की कर सकते हैं. 

बाड़मेर से ७० किलोमीटर दूर के एक गांव जो भारत - पाक सीमा पर है वहां से एक विद्यार्थी से मुलाकात हुई. लालटेन से पढ़ कर उस बालक ने डिस्टिंक्शन हासिल की. जिस गांव में अखबार तक नहीं आता उस गांव का बालक आईएएस बनने के सपने देखे तो सुखद लगता है. मैंने उससे पूछा की तुम आईएएस क्यों बनना चाहते हो - तो उसका जवाब था - अधिकारी बन कर मैं गावों में बिजली पानी और जरुरी दवाइयां जैसी जरुरी चीजें भिजवाऊंगा. मैंने उससे उसका शौक पूछा तो उसका जवाब था "पढ़ाना और पढ़ने के लिए प्रेरित करना" मैंने पूछा की तुमने क्या किया - तो उसने कहा की अपने गांव में नन्हे बच्चों को पढ़ने के लिए प्रेरित किया और उसके कहने से ४-५ बच्चों ने पढ़ाई शुरू कर दी. 

डूंगरपुर के एक बालक से मुलाकात हुई. डिस्टिंक्शन पाने वाले इस बालक ने गणित जैसे मुश्किल विषय को  अपनेआप पढ़ा क्योंकि उसके विद्यालय में गणित का शिक्षक ही नहीं है. 

एक बालिका  की माताजी  का दस साल पहले स्वर्गवास हो गया. उसके बाद उसको घर की सारी जिम्मेदारी उठानी पड़ी. अपने छोटे भाई - बहनों के लिए वो ही माँ के सारे काम करने लग गयी. घर के सारे काम करने के बावजूद भी उसका पढ़ाई में भी उतना ही वर्चस्व रहा और हर साल डिस्टिंक्शन लाती रही. 

इन सभी में एक खासियत है - नियति की क्रूरता को इन विद्यार्थियों ने बहुत ही सकारात्मक सोच के साथ लिया और ईश्वरीय कृत्य का सम्मान कर जीवन की चुनौती को स्वीकार किया . बिना किसी हताशा के इन विद्यार्थियों ने लगन, मेहनत और दृढ संकल्प से मुश्किल से मुश्किल लख्य को हासिल किया. प्रतिभा हर शहर हर गांव में है. जहाँ जहाँ इंसान चुनौती को सकारत्मक रूप में लेता है वहां वहां इंसान अपनी अद्भुत प्रतिभा का विकास कर लेता है. मेरा विश्वास है की ये सभी विद्यार्थी जीवन में अद्भुत तरक्की करेंगे. इन विद्यार्थियों को जिंदगी की चुनौतियों का सामना करना पड़ा लेकिन इन सब ने वो सोच, विश्वास, चरित्र, और दर्शन विक्सित कर लिया है की अब इनको जिंदगी की कोई परीक्षा में असफलता नहीं मिलेगी. मुझे याद आरहें हैं श्री जगदीश भाई पटेल - जो न देख सकते थे - न चल सकते थे  (क्योंकि आधे शरीर में लकवा था) लेकिन उनमे वो बात थी जो हम सब को सीखनी है - अद्भुत सकारात्मक सोच. १९९४ में वो कम्प्यूटर सीख कर अंधे लोगों को कम्प्यूटर सिखाने की योजना बना रहे थे (जब कम्प्यूटर विंडोज पर आधारित नहीं बल्कि बड़े मुश्किल और कम विकसित सॉफ्टवेयर से चलता था). उनका आत्मविश्वास, सकल्प शक्ति और दुनिया को आगे ले जाने का जज्बा ही उनको बाकी लोगों से अलग करता था. 

जीवन में सुख-दुःख आते ही रहते हैं. कई कई लोग तो जीवन में आते ही मुसीबतों को झेलने के लिए हैं. उनका पूरा जीवन ही मुसीबतों के बीच गुजर जाता है.  लेकिन जिस तरह  से वो मुश्किलों का सामना करते हैं और जिस तरह वो विपरीत परिस्थितियों  में भी अपना लक्ष्य नहीं छोड़ते और सही रास्ते पर चलते रहते हैं वो ही इस दुनिया के लिए रह जाता है. उनके रास्ते को देखना और उनसे प्रेरणा लेना ही हम दुनिया वालों का फर्ज है. 
जीवन की विपरीत परिस्थितियों को झेलने वाले इन विद्यार्थियों के अलावा भी मैं ऐसे भी विद्यार्थियों से भी मिला हूँ जो जीवन में सब कुछ सौभाग्यवश प्राप्त कर चुके हैं. ऐसे भी विद्यार्थिओं से मिला हूँ जिनके चारों  तरफ धन दौलत और ऐसो - आराम की बरसात होती रहती है. लेकिन जब उन लोगों को  ये पूछता हूँ की तुम्हारा मकसद क्या है  - तुम जिंदगी में क्या करना चाहते हो - तो मुझ को बड़ी हैरानी होती है की उनके पास वाकई में कोई  ठोस मकसद नहीं होता है. ये देख कर मुझे अक्सर ये विचार आता है की जिंदगी की असली पाढशाला तो जिंदगी है और जो लोग जिंदगी से सीखने और उसको सम्मान देने में महारत हासिल कर लेते हैं वो ही इस जिंदगी को फतह कर लेते हैं. 
धर्म और अध्यात्म ने हमको जीवन के मर्म बहुत बारीकी से समझा दिए हैं या यो कहें की हमारी आदत में डाल दिए हैं. अध्यात्म को अपने आपको खोजने का रास्ता मानते हुए हमें अपने चारो तरफ खुशियों और उत्साह को फैलाने का मकसद बनना है.

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