Wednesday, December 27, 2017

मेरे शहर के बच्चों - ज़रा याद करो कुर्बानी (शिक्षा सुधार पर एक सलाह)

मेरे शहर के बच्चों -  ज़रा याद करो  कुर्बानी  (शिक्षा सुधार पर एक सलाह)

गौर करिये - थलसेनाध्यक्ष जी की सलाह -
भारत के थलसेनाध्यक्ष श्री बिपिन रावत ने हाल ही में एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही है जो हर शिक्षाविद को गौर करनी चाहिए - उन्होंने कहा है की देश के लिए अपने आपको न्योछावर करने वालों पर एक पुस्तक होनी चाहिए जो पाठ्यक्रम का हिस्सा हो - ये एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात है. आज देश में शिक्षा और शिक्षा-व्यवस्था पर चर्चा चल रही है. लोग अगल अगल सुझाव दे रहे हैं. ये बहुत ही महत्वपूर्ण है की हम विद्यार्थियों को वो पढ़ाएं जो उनको देश के लिए समर्पित कर सके.

विद्यार्थी को हम जैसे चाहें वैसे ढाल सकते हैं. बड़ा अफ़सोस होता है ये देख कर की उच्च अधिकारी ये कहते हैं की आज के विद्यार्थी "रोजगार योग्य" नहीं है - यानी अयोग्य हैं. उनको क्या पढ़ाना है वो भी तो हम ही तय करते हैं. अंग्रेजी मैं कहावत है "GIGO गार्बेज इन गार्बेज आउट" यानी आप जो पढ़ाओगे  वो ही पाओगे. आज हम विद्यार्थियों को क्या पढ़ा रहे हैं - सिर्फ कोचिंग - जिसमे पहले दिन से ये ही बताया जाता है की आप के उत्तीर्ण होने की संभावना बहुत कम है - विद्यार्थी पहले से ही बहुत तनाव और परेशानी में रहता है -फिर उससे ये अपेक्षा करना की वो शानदार परिणाम लाएगा - संभव नहीं है - आप विद्यार्थी से क्या चाहते हैं - वो उसको कभी खुल कर के बताइये - फिर समय दीजिये और फिर देखिये क्या होता है

एक व्यक्ति ने मुझसे कहा की वो गावों के बच्चों की शिक्षा को ले कर बहुत दुखी है - क्योंकि उनको अंग्रेजी मैं एक पत्र लिखना भी नहीं आता  है - मैं बोला  - मैं शहरी बच्चों की शिक्षा को ले कर बहुत दुखी हूँ - उनको श्रवण कुमार की कहानी भी नहीं पता. उन्होंने अंग्रेजी फ़िल्में देखी हैं - अंग्रेजी धारावाहिक देखें हैं - हिंगलिश सीखी हैं और विदेशी संस्कृति का जयजयकार सुनी  है. उन्होंने बचपन नोविता और पोकेमान (pokemon) की कहानियों में बिताया है - तो जवानी मैं कदम रखते ही प्रवेश परीक्षाओं में असफलता की ठोकरें  खाई है - उनकी हताशा है की उनके सामने न कोई मंजिल है न कोई रास्ता है - बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नौकरी करने के लिए उनको वो सब सीखना पड़ता है जो उन्होंने कभी नहीं किया - फिर प्रताड़ना झेलते झेलते वे जब बहुराष्ट्रीय कंपनियों के रंग में रंग जाते हैं तो आप उनसे ये क्यों अपेक्षा करते हैं की वो भी अद्भुत भारतीय जीवन मूल्यों को अपनाएंगे और अपने बुजुर्गों की सेवा करेंगे? 


उत्तरी भारत में अधिकाँश विद्यार्थियों को सिर्फ इसीलिए प्रताड़ना मिलती है की उनको अंग्रेजी अंग्रेजों की तरह बोलनी नहीं आती. ये उनके साथ और इस देश की मिटटी के साथ खिलवाड़ है. ये बात समझ में आती है की बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अंग्रेजी में बोलने वाल लोग चाहियें. लेकिन अधिकाँश कंपनियां तो भारतीय है - आज ये जरुरत है की उनको ये समझाया जाए की हिंदी मैं भी सारे काम किये जा सकते हैं. शालीनता, शिष्टाचार और व्यापारिक समझौते हिंदी मैं भी किये जा सकते हैं. सिर्फ हिंदी जानने के कारण हीन भावना के शिकार युवाओं को सहारा दीजिये - हाँ अगर उनको शिष्टाचार और मर्यादित आचरण नहीं आता हो तो बताएं.

शिक्षा क्षेत्र में मुनाफे की अधिकता के कारण आज अनेक कम्पनियाँ इस क्षेत्र में आ रही हैं और बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भी इस क्षेत्र में दखल रखती हैं. उन सब के हित जुड़े हैं और परिणामस्वरुप शिक्षा व्यवस्था और शिक्षा में क्या पढ़ाया जाना है वो सब अब आधुनिक प्रचार - प्रसार और विपणन की कंपनियां तय कर रही हैं. परिणाम हो रहा है एक ऐसी व्यवस्था जिसमे दिखावे को ज्यादा तरजीह दी जा रही है न की विद्यार्थी और समाज की जरुरत को. आज हमें फिर से विचारणा चाहिए की भारत के अद्भुत संस्र्कतिक विरासत को नजरअंदाज कर के हम उन लोगों की कहानियों को क्यों पढ़ाएं जिन्होंने अपनी पूरी जिंदगी खून-खराबे, युद्ध, और लूट-खसोट को समर्पित कर दी. हम कितने भाग्यशाली हैं की हमारे पास एक से एक अद्भुत आदर्श व्यक्तियों की  कहानियां है जो देश और समाज के विकास के लिए अपने आपको समर्पित कर एक अद्भुत मिसाल कायम कर गए. उन लोगों की कहानियों को अगर हम शिक्षा व्यवस्था में शामिल करेंगे - तो हमारे विद्यार्थी भी अद्भुत आदर्शों को आत्मसात करेंगे और फिर उनके अनुशाशन, आचरण और देश प्रेम को एक नयी ऊंचाई पर देख पाएंगे.

आप सभी से अनुरोध है की सरकार की तरफ मत देखिये - जिस शिक्षण  संस्थान में आपकी बात सुनी जाती है उस से अनुरोध करिये की भारत के वीर सपूतों की कहानियों को शिक्षा व्यवस्था का हिस्सा बनाया जाए.

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