Wednesday, December 27, 2017

ये दिल्ली में धुंआ क्यों हैं भाई?

ये दिल्ली में धुंआ क्यों हैं भाई?

दिल्ली आज फिर सबको जगा रही है - ये धुंआ नहीं  है - ये आपको जगाने का एक विकल्प है - अब तो जाग जाओ. वर्ष २०१४ में दिल्ली दुनिया का सबसे ज्यादा प्रदूषित शहर  बन गया था. दुनिया के दूसरे प्रदूषित शहरों की हालत हमसे छुपी नहीं है - रोम, बीजिंग, अहवाज (ईरान), उलान बटोर (मंगोलिया), लाहौर, मेक्सिको, काहिरा, ढाका, मास्को, रियाध, करांची आदि शहरों के क्या हाल है - कई शहरों में सरकारों के कड़े फैसले लिए और प्रदुषण को कम करने के लिए जनता ने भी सहयोग दिया. ज़रा सोचिये - अगर इसी तरह प्रदुषण बढ़ता रहा तो अगले ५० साल बाद क्या हाल होगा? जरा सोचिये अगर इसी तरह शहरीकरण बढ़ता रहा तो आने वाले वर्षों में लोगों का जीना भी दुश्वार हो जाएगा.


ज्यादातर लोग आज सिर्फ प्रदुषण की बात कर रहे हैं. प्रश्न है अगर कहीं पर धुंआ नजर आ रहा है तो आप धुए को रोकेंगे या आग को? अगर आप सिर्फ धुंए को रोकने की बात करेंगे -  तो क्या समाधान हो जाएगा? हम लोग एक बार अगर वाहनों और उद्योगों पर रोक लगा कर के प्रदूषण रोक भी लेंगे तो क्या होगा? आखिर ये समाधान कब तक प्रभावी होगा? छोटे कुटीर उद्योगों और वाहनों पर रोक लगाने से उन लाखों लोगों की रोजी रोटी छीन लेंगे जो रोज कमाते हैं - रोज खाते है. श्री जगजीत का गाया ये गाना याद करिये -

    अब  मैं  राशन  की  क़तारों  में   नज़र  आता  हूँ
  
    अपने  खेतों  से  बिछड़ने  की  सजा  पाता हूँ


मंत्रियों  के साथ तो कारों का काफिला पहले की तरह ही दौड़ेगा. आड़-इवन फॉर्मूले से धनाढ्य वर्ग दो नंबरों की कार रखनी शुरू कर देगा - पर उस छोटे व्यापारी का क्या होगा जो एक कार भी बड़ी मुश्किल से चला पा रहा है? क्या इस प्रकार के समाधान कोई समाधान हैं? सिर्फ पांच साल की सोचने वाले इससे आगे नहीं सोचेंगे.

आज जरुरत है की हम हमारी इस अंध-दौड़ को समझें. आज जरुरत है की हम शहरीकरण के दुष्परिणाम को समझें. आज जरुरत है की हम ये समझें की हमें हमारी नीतिओं को फिर से देखने की जरुरत है. आज जरुरत है की हम हमारे नीति-निर्माताओं  को झकझोरें. आजादी के आंदोलन तक हमारे नेता - सिर्फ सत्तालोलुप नहीं होते थे - वे विचारक, चिंतक और बौद्धिक विश्लेषक होते थे. वे अध्ययन - मनन और वैचारिक चर्चा के लिए समय निकालते थे. श्री भगत सिंह तो अपने आखिरी समय तक पुस्तकें पढ़ते रहे. उस वक्त के नेताओं ने अपने हर व्यक्तव्य को वैचारिक चिंतन की भट्टी  में तपा कर अभिव्यक्त किया था. वो लोग देश के भविष्य की सोच सकते थे - लेकिन आज क्या हो रहा है? सभी नीतिगत निर्णयों के लिए हम विदेशों पर या विदेशों में प्रशिक्षित लोगों पर निर्भर  हो रहे हैं और हर वो नीति अपनाने की सोचते हैं जो विदेशों में अपनायी  गयी है. इसी का नतीजा है की गावों के विकास को दरकिनार कर शहरीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है.

एक उदाहरण देता हूँ - अगर आप अपने लड़के को कॉन्वेंट स्कुल में पढ़ाओ और फिर इस बात पर अफ़सोस करो की उसको ५९ (उनसठ)  और ६९ (उनहत्तर) को हिंदी में बोलना  नहीं आता  तो ये गलती तो आपकी ही है. ये ही हालत सरकार की है.   आज भी ग्रामीण विकास सरकार की प्राथमिकता नहीं बना है.  पुरे देश के छह लाख गावों में विद्युतीकरण के लिए ४.5 हजार करोड़ का बजट है लेकिन १५० शहरों के विकास के लिए इससे दुगुना बजट है - क्योंकि सरकार स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट को बहुत तबज्जो दे रही है. मेक इन इंडिया योजना हो या डिजिटल इंडिया - ये सभी योजनाएं शहरीकरण और बड़े उद्योगों को प्रोत्साहन के लिए है - लेकिन ग्रामीण उद्योगों और  कृषि को प्रोत्साहन के लिए क्या है? आप कहेंगे की उर्वरकों और कीटनाशकों के लिए सब्सिडी है न - लेकिन ये (कीटनाशक) तो समाज के विनाश के लिए है - होना तो ये चाहिए की सरकार इनकी जगह पर जैविक (आर्गेनिक) खेती को प्रोत्साहन प्रदान करे और फिर से  कीटनाशकों की जगह गोबर और गोमूत्र ले लेवे. बड़े उद्योग समूहों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सरकार पर पकड़ इतनी मजबूत है की उर्वरक और कीटनाशकों को सरकार हमेशा प्रोत्साहन प्रदान करती रहेगी. ऐसी ही अनेक योजनाओं के कारण लोग खेतों को छोड़ शहरों की तरफ भाग रहे हैं.

केन्द्रीयकरण और विकेन्द्रीयकरण दो अलग अलग रास्ते हैं - अगर सरकार एक रास्ते को लेती है तो फिर दूसरा रास्ता नहीं आ सकता. सरकार ने केन्द्रीयकरण का रास्ता चुना है - फिर विकेन्द्रीकृत व्यवस्था कैसे आ सकती है?  हर मुद्दे पर केंद्र हावी हो रहा है और हर दिन शहरीकरण बढ़ रहा है. ये सिर्फ एक संयोग नहीं है बल्कि हमारी व्यवस्थाओं का नतीजा है. गावों में विकास कैसे हो और किसान ज्यादा खुशहाल कैसे बनेगा  - ये गावो के लोग और गावों से जुड़े लोग ही तय करें तो बेहतर होगा - विदेशों में पढ़ाई करने से कोई व्यक्ति इन पर चिंतन कर के इनकी योजना बना पायेगा - ये बात समझ से परे है. 

हम जो योजना बनाते हैं वो ही हमारा भविष्य बनाती है. एक कहानी से अपनी बात रखता हूँ. अमंडसन और स्कॉट नामक दो लोग दक्षिणी ध्रुव को फतह करने के लिए लगभग साथ- साथ रवाना हुए (१९११-१२ में) - एक (अमंडसन) ने दक्षिणी ध्रुव के अनुसार अपनी तैयारी की तो दूसरे (स्कॉट)  ने अपनी अपार धन दौलत से  दक्षिणी ध्रुव पर अपनी मर्जी से जाने की तैयारी की. पहला सफल हुआ और सुरक्षित लोट आया.  दूसरा इतनी तैयारी और इतने साजो सामान के बावजूद ज़िंदा नहीं आ पाया. मतलब साफ़ है - हमें अपनी परिस्थिति के अनुसार अपनी योजना बनानी चाहिए न की परिस्थिति पर अपनी धन की ताकत के बलबूते विजय पाने  की जिद. हमारे देश में क्या हो रहा है? हमारा देश गावों का देश है - लेकिन योजना बनाने वाले तो शहरी व्यवस्था (विदेशों में प्रशिक्षित) के पक्षधर हैं - वे बड़ी बड़ी योजनाएं बनाते हैं. ये स्कॉट की तरह अपार धनराशि लुटा कर के भी देश का भला नहीं कर पाएंगे. रोज नयी- नयी योजनाएं बनायी जाती है - जो करोड़ों का बजट लुटाती है - लेकिन गावों के लोगों की जरुरत को नहीं समझा जाता है. अगर गावों को समझ कर के योजनाएं बनायी जाए तो गांव फिर से चमन  बन सकते हैं(और दिल्ली का प्रदुषण भी कम हो सकता है). परन्तु क्या उस विकेन्द्रीकृत व्यवस्था के लिए सत्ता लोलुप नेता और प्रशा
क तैयार होंगे?



महान  वैज्ञानिक थॉमस एडिसन को एक ऐसी माँ मिली जो उसके विकास का रास्ता जानती थी - अतः जब स्कुल ने उनको मुर्ख बता कर के निष्काषित कर दिया तो भी उसने हिम्मत नहीं हारी. दुनिया में हर माँ अपने लाडले के लिए सही निर्णय ही लेती है. भारत के गावों की हालत आज एडिसन जैसी है क्योंकि नीति-निर्माताओं के लिए उनके पास कोई योजना नहीं है.  लेकिन क्या कभी भारत के गावों को उनकी माँ मिल पाएगी? महात्मा  गांधी, आचार्य विनोबा व् लोहिया जी ये सपने देखते रह गए की हर गांव अपनी नीतियां स्वयं बनाएं और स्वावलम्बी  बने - लेकिन विकास का जो रास्ता हमने चुना उसमे उनकी योजना के लिए कोई जगह ही नहीं हैं. चाहे कोई भी राजनीतिक दल हो - आज किसी के पास स्वतंत्र चिंतन नहीं है की कैसे हम ग्राम - स्वराज्य की परिकल्पना को पूरा करें? चाहे कोई भी राजनीतिक पार्टी हो - भारतीय सोच पर आधारित विकास का किसी का भी रास्ता नहीं है - एक लक्ष्य - सत्ता  - फिर योजना बनाने का काम विदेशो से आयातित लोगों के भरोसे.


दिल्ली में  फैले प्रदुषण ने युवाओं के सामने कुछ नए अवसर खोल दिए हैं. अब पर्यावरण अभियांत्रिकी, पर्यावरण संरक्षण और पर्यावरण अनुकूल जीवनशैली के क्षेत्र में रोजगार, प्रशिक्षण, उद्यमिता और शोध के प्रचुर अवसर उपलभ्द होंगे. अब विद्यार्थियों को इन क्षेत्रों में आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहन मिलेंगे और कंपनियां भी मजबूर हो कर इन क्षेत्रों में निवेश करेंगी. नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) को मजबूर हो कर कठोर कदम उठाने ही पड़ेंगे और उनसे उद्योगों को दीर्धकाल में फायदा होगा और युवाओं को नए क्षेत्र मिलेंगे.

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