ज़रा हवा के विपरीत चल
आज
कई लोग ये कहने लग गए हैं की - "विकास की जिस दिशा में हम बढ़ रहे हैं वो
पूरी तरह से विनाश की तरफ ले जा रहा है". विकसित देशों का सपना है की पूरी
दुनिया में उनका होकुम चले - यह सपना आज का नहीं है - कभी नेपोलियन ,
कभी सिकंदर, कभी चंगेज खान , कभी ईस्ट इंडिया कंपनी - नाम बदलते रहते हैं -
परन्तु मनसूबे वही रहते हैं . आज इंटरनेट और नयी तकनीक के कारण पूरी
दुनिया पर अपना वर्चस्व फैलाना आसान हो गया है .
ऍफ़ डी आई (FDI) का सच
बहुराष्ट्रीय
कंपनियों को पूरी दुनिया मैं पैर पसारने में सबसे ज्यादा सहूलियत वित्तीय
ताकत से होती है. वो डालर दिखा कर किसी भी राष्ट्राध्यक्ष को लट्टू कर लेते
हैं और जितना पैसा लगाते हैं उससे कितना ही गुना वापिस ले जाते हैं. हम
तो जहांगीर के समय से देख रहे हैं - कैसे बादशाह भी ईस्ट इंडिया कम्पनी
के लालच में फंस गए और उनकी अगली पीढ़ियों ने अपना पूरा राज ही गवा दिया.
इतिहास से सीख न हमने ली न उन्होंने - और आज फिर वो ही नीतियां - वो ही
रास्ते. क्या कर सकती है कोई सरकार - क्योंकि उस पर भी पूरा दबाव है की वो
विदेशी कम्पनी को अपना उद्यम शुरू करने देवे और अपनी मन-मर्जी चलाने देवे -
अंतरास्ट्रीय संस्थाओं का दबाव, ऋण देने वालों का दबाव और बहुराष्ट्रीय
कंपनियों का दबाव.
जर्जर आर्थिक नीतियां
अर्थशाष्त्री और नीति-निर्माता आप को उपभोग बढ़ाने के
लिए कहेंगे (और इस प्रकार के अनेक प्रलोभन देंगे) - क्योंकि तभी
बहुराष्ट्रीय कंपनियों की दिवाली होगी. वे आपसे आधुनिक जीवनशैली और शहरीकरण
को अपनाने के लिए कहेंगे - और आधुनिक शिक्षा से आप और आपकी अगली पीढ़ी को
बदल के रख देंगे. मैं तो ये ही कहूंगा की इस समय भी आप उसी नीति का पालन
करें जिसने भारत को वर्षों तक बचाये रखा है - यानी बचत करें - अपने पडोसी
की मदद करें और पडोसी के उत्पाद को खरीदें (न की बहुराष्ट्रीय कम्पनी के
उत्पाद को ). जिस देश में नीति-निर्माता बनने के लिए "विदेश में अध्ययन" ही
एक मात्र आधार होता है - उस देश की नीतियों का क्या हश्र होगा ये आप सोच
सकते हैं. बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अधिकाँश विकाशशील देशों के
नीति-निर्माताओं को प्रभावित करने में सक्षम हैं. लेकिन विकासशील देश अपने
आम नागरिक को समझने और उनको आगे बढ़ने का मौका कब देंगे ये तो समय ही
बताएगा.
मेगा प्रोजेक्ट्स का सच
मेगा
प्रोजेक्ट्स यानी अरबों - खरबों का प्रोजेक्ट . आप भी ताज्जुब करते होंगे
की जो सरकारें अपने टूटे फूटे खस्ता -हाल भवनों की मरम्मत के लिए लाखों
रूपये का बजट नहीं पास करती - वो सरकारें अरबों - खरबों के मेगा -
प्रोजेक्ट्स चुटकियों में कैसे पास कर देती है? बहु राष्ट्रीय कंपनियों
और अंतरास्ट्रीय संस्थाओं का एक पूरा समूह है जो हर देश की नीतियों को
प्रभावित कर रहा है . सरकारें अरबों - खरबों रूपये (तथाकथित सस्ते) ऋण
पर ले लेती है और बड़े बड़े प्रोजेक्ट्स पास कर देती है . ऋणदाता अपनी शर्तें
मानवता है - और फिर वो अपनी नीतियों को सरकारी नीतियों में शामिल करवा
लेते हैं . जो मंत्री होता है वो अगले ५ साल देखता है और जो सौदागर (बहुराष्ट्रीय कं पनियां)
है वो अगले ५० साल देखते हैं . भोली भाली जनता को दिवा स्वप्न दिखाए
जाते हैं की फलां प्रोजेक्ट से उनकी जिंदगी बदल जायेगी - और वो जनता
बेवकूफ बन जाती है . देश ऋण के भार
में दबता चला जाता है . ये प्रोजेक्ट बड़े सरकारी अफसरों के दिन तो बदल
देता है लेकिन आम आअदमी पर इनका भार बहुत पड़ता है . बढ़ता टैक्स और बढ़ते
सरकारी खर्च देश की अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ देते हैं . अंतरास्ट्रीय
संस्थाएं अपना सिकंजा भी कस लेती है .
अंतरास्ट्रीय संस्थाओं का सच
अधिकाँश
अंतरास्ट्रीय संस्थाएं गिने चुने विकसित देशों के इशारे पर काम करती हैं .
कुछ विकसित देश पूरी दुनिया पर अपनी हुकूमत चलाना चाहते हैं और इस
उद्देश्य से इन संस्थाओं का इस्तेमाल करते हैं. आज विश्व के सामने जो
चुनौतियां हैं वो सभी देशों के एक साथ मिल कर काम करने से ही दूर होगी जैसे
- आतंकवाद, भूमंडलीय तापमान में वृद्धि, जल संसाधनों की कमी आदि. लेकिन
अफ़सोस ये है की इन सभी वैश्विक समस्याओं में विकासशील देशों के हितों की
अनदेखी होती है और विक्सित देशों की सोच को विकासशील देशों पर थोप दिया
जाता है. विकास के इस रास्ते पर विकसित देश तो अपनी हर समस्या का समाधान
खोज लेते हैं लेकिन विकासशील देश पिछड़ते चले जाते हैं.
वैश्विक शिक्षा व् शोध
विकासशील
देश पर्यावरण अनुकूल ग्रामीण व्यवस्था पर आधारित अद्भुत तकनीक के खजाने
हैं लेकिन इन तकनीकों को आगे बढ़ाने और उन पर शोध करने के लिए कोई संसाधन
नहीं हैं. हर विकासशील देश विकसित देशों के लिए (पढ़े लिखे अंग्रेजी बोलने
वाले) मजदुर और कर्मचारी तैयार करने
में व्यस्त हैं. वो पढ़ाई करवाई जाती है जिससे बहुराष्ट्रीय कंपनियों को
कर्मचारी मिलें - यानी विकसित देशों को फायदा मिले. विकासशील देशों की
तकनीक और जरूरतों को नजरअंदाज कर दिया जाता है. शोध संस्थान वो शोध करते
हैं जिनकी जरुरत सिर्फ बहुराष्ट्रीय कंपनियों को हो. लेकिन उस देश की मौलिक
तकनीक को आगे बढ़ाने के लिए कोई बजट नहीं होता है. शिक्षा ऐसी प्रदान की
जाती है जिससे विद्यार्थी में राष्ट्रीयता की भावना न फैले बल्कि
बहुराष्ट्रीय कंपनियों की जरुरत के अनुसार मानसिकता तैयार हो.
क्या हो समाधान?
सबसे
पहले शिक्षा से अच्छी शुरुआत हो. जमीनी हकीकत और प्रादेशिक जरूरतों के
अनुसार शिक्षा हो - न की बहुराष्ट्रीय कंपनियों की जरुरत के अनुसार.
विद्यार्थी को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कर्मचारी बनाने की बजाय अपने
प्रदेश के विकास में योगदान देने वाला सक्षम युवक बनाने पर जोर हो - और उसी
अनुसार शिक्षा व्यवस्था बदली जाए. किसी भी विदेशी पाठ्यक्रम को अपनाने की
बजाय विद्यार्थी को आस - पास के परिवेश से सीखने के लिए प्रेरित करने पर
जोर हो और उसको अखबार, पत्र पत्रिका और मीडिया का विश्लेषण कर के सच और झूठ
में फर्क करना और उसका विवेक जागृत करना ही शिक्षा का मकसद हो. जब
विद्यार्थी आज हो रहे बदलाव का आकलन करना और इस बदलाव के पीछे की राजनीति
को समझने लग जाएंगे तो वो देश को एक मजबूत आधार प्रदान करेंगे.
विद्यार्थिओं में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नौकरी की बढ़ती लालसा देश के लिए
हानिकारक है और इसके पीछे भी सरकारी नीतियां ही जिम्मेदार हैं जो जान बुझ
कर नौकरी पेशा लोगों को जबरदस्त तनख्वाह, अनेक सहूलियत और छोटे और माध्यम
उद्यमियों को परेशानियां दे रहीं हैं. सरकार की नीतियों को कौन तय कर रहे
हैं ये भी साफ़ हो रहा है.
क्या हो हमारे लाडलों के सपने ?
हमारे
लाडलों और नौनिहालों को एक नए ज़माने की सौगात देने का ही तो हमारा मकसद है
जिसके कारण हम वो सब काम कर रहे हैं जो हम सिर्फ और सिर्फ विदेशियों और
उनके दलालों के कहने पर कर रहे हैं. तो पहले तो ये ही तय कर लें की हमें
अपने लाडलों को बहुरास्ट्रीय कंपनियों के नौकर नहीं बल्कि सक्षम उद्यमी के
रूप में देखने के सपने देखेंगे . हमें ग्रामीण उद्यमिता और भारतीय तकनीक को
बढ़ावा देना पड़ेगा. हमें अपने लाड़लो में नेतृत्व क्षमता, निर्णय क्षमता,
विश्लेषण क्षमता और विश्व राजनीति की समझ तैयार करनी पड़ेगी और हमारे लाडलों
को दुनिया के सामने एक अद्भुत भारत का पक्ष प्रस्तुत करने के लिए तैयार
करना पड़ेगा. इस हेतु उनको फिर से अद्भुत भारतीय जीवन मूल्य, संयम, योग,
ध्यान, जीवन विज्ञानं, और अनुशाशन के सूत्र देने पड़ेंगे. पहल हमको ही करनी
पड़ेगी. तथाकथित नेताओं और नीति-निर्माताओं से उम्मीद रखना ज्यादती होगा.
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