सपने सुहाने मेरे मुल्क के 
(नए भारत को जरुरत  है  नए संगठन व् नयी व्यवस्था की) 
एक
 समय था जब इस देश में कुछ अंग्रेज लोगों के हितों के लिए ही सारे निर्णय 
लिए जाते थे और बाकी जनता को नजरअंदाज किया जाता था. गरीबों की कमाई से 
विदेशी लोग गुलछर्री उड़ाते थे और मजबूर भारतियों को रौंदा जाता था. तभी लोग
 सपने देखने लगे - एक ऐसे देश की जो हर भारतीय के लिए सोचे - जहाँ पर ऐसी 
नीतियां हो जो इस देश की भलाई के लिए हो न की विदेशों के हितों के लिए. 
क्या ये वही देश है जिसके लिए अनगिनत देशप्रेमियों ने अपनी जिंदगी न्योछावर
 कर दी थी? क्या ये वो ही देश है जहाँ पर हर देश वासी को सम्मान मिलता है 
और देश की विरासत को गर्व से देखा  जाता है? 
संगठन
 की व्यवस्थाएं और प्रारूप तय करते हैं भविष्य. जब राजतंत्र था तब लोग 
लोकतंत्र के सपने  देखते थे  - और उन सपनों का आज फायदा मिल रहा है की हम 
लोकतंत्र में जी रहे हैं. लेकिन आप सपने देखना मत छोड़िये. आज सपने देखिये 
भविष्य के लिए बेहतर संगठन  व्यवस्थाओं की -  संगठन की ताकत ही हमारे विकास
 की चाबी है.  मुझे नजर आ रहे हैं आपकी आँखों में कुछ टिमटिमाते से सपने - 
जो फिर से इस मुल्क को जन्नत में तब्दील कर देंगे. 
बांग्लादेश में 
श्री मोहम्मद यूनुस ने ग्रामीण बैंक की शुरुआत की जहाँ पर गरीबों को आसानी 
से ऋण प्रदान किया जाता है. गरीब लोग छोटे छोटे ऋण के द्वारा अपने हुनर पर 
आधारित कार्य शुरू करते हैं और जैसे जैसे कमाते जाते हैं वैसे वैसे लौटते 
जाते हैं. हर महीने १००-२०० रूपये जमा करते जाते हैं और इस प्रकार छोटी 
छोटी बचत से एक दिन  स्वावलम्बी बन जाते  हैं. ये ही है असली विकास का 
मॉडल. बैंक ऋण देते समय न बॅलन्स शीट मांगती है न चार्टर्ड अकाउंटेंट  का 
सर्टिफिकेट, न दुनिया भर के हस्ताक्षर करवाती है.  गरीब लोगों का समूह मिल 
कर एक दूसरे की मदद करता है और अपने समूह को बैंक से जोड़ लेता है और बैंक 
लोगों को उनके हुनर के लिए जरुरी ऋण देती जाती है. लोगों को उनकी व्यक्तिगत
 जरूरतों के लिए भी ऋण दिया जाता है. ब्याजदर बहुत काम होती है और लोगों को
 अपनी बचत के अनुसार भुगतान करने की छूट होती है. 
आज भी हमारे पास ७० साल की स्व-व्यवस्था में ऐसे संगठन के प्रारूप और उनके लिए व्यवस्था बनाने के लिए समय नहीं निकल पाया है.
 पश्चिमी देशों से देखा- देखि कम्पनी, सोसाइटी व् कुछ इस प्रकार के प्रारूप
 ही हमारे पास हैं. हमने अपने देश के लोगों की जरूरतों के अनुसार नए 
प्रारूप नहीं ईजाद किये हैं. इन संगठनों के लिए जिन सरकारी कार्यालओं को 
जिम्मेदारी दी गयी है वो स्वयं "नौकरशाही" नामक बिमारी से ग्रसित है. 
धन्यवाद देना चाहिए वर्तमान प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी का जिन्होंने 
कहा है की सिर्फ २ दिन में कम्पनी बनायीं जा सकेगी. अन्यथा सरकारी 
रजिस्ट्रार और इस प्रकार के अन्य अधिकारी तो इन प्रक्रियाओं को इतना धीमा 
और मुश्किल करने पर तुले थे की हमारी सारी उद्यमिता यहीं पर रुक जाती थी. 
देश
 में ४० करोड़ लोग गरीबी की मार झेल रहे हैं. ये वो लोग हैं जो हुनर रखते 
हैं, दक्ष है, अपना काम कर सकते हैं और करना भी चाहते हैं लेकिन साधनों की 
कमी के कारण अपनी क्षमता से कम कमा पाते हैं और जितना काम करना चाहते हैं 
उसका आधा ही कर पाते हैं. जरुरत है आज इन लोगों को आसान और कम ब्याज पर ऋण 
प्रदान करने की व्यवस्था का . बांग्लादेश के श्री मोहम्मद यूनुस ने जो 
व्यवस्था शुरू की उसमे सभी  लोग अपना ऋण चूका देते हैं. उस व्यवस्था में 
गरीब और अंगूठा छाप व्यक्ति भी आसानी से ऋण प्राप्त कर सकता है और लोग 
संगठित को कर प्रयास करते हैं. उस तरह की कुछ व्यवस्थाएं हमारी सरकार को भी
 शुरू करनी चाहिए. निजी क्षेत्र में हालांकि "सूक्ष्म बैंकिंग" की शुरुआत 
हुई है लेकिन लाभ कमाने की मानसिकता के कारण निजी क्षेत्र ज्यादा मदद नहीं 
कर पायेगा. इस क्षेत्र में सरकारी बैंकों और सरकार को ही पहल करनी पड़ेगी. 
हमारे देश में सरकारी बैंकों का ही वर्चस्व है. लोगों को उन्ही पर विश्वास 
है और वे ही सरकारी उद्देश्यों के लिए "घाटा उठा कर भी" काम कर सकते हैं. 
तो फिर क्यों नहीं होती कोई ठोस शुरुआत. लोगों को दान की जरुरत नहीं है लोग
 अपने आप अपना भविष्य लिख सकते हैं अगर उनको आसान ऋण और आसान व्यवस्था 
मिले. 
क्या
 आप जानते हैं की हमारे देश में सालाना ५ लाख करोड़ के ऋण डूब  जाते हैं. ये
 ऋण  बड़े और सक्षम उद्योगों को दिए जाते हैं और छोटे श्रमिकों और कारीगरों 
को नहीं दिए जाते हैं. जिनको ९००० करोड़ के ऋण दिए वो तो देश छोड़ के चले गए.
 लेकिन जो लोग अधिक परिश्रम करते हैं, काबिल हैं,  हुनरबक्ष हैं, और अपने 
परिश्रम से अपना भाग्य लिख रहे हैं उनको ऋण नहीं दिए जाते हैं. इन 
व्यवस्थाओं में बदलाव की जरुरत है. कम से कम इस मामले में तो हमें 
बांग्लादेश के ग्रामीण बैंक से सीख लेनी चाहिए. 
देश
 की २०  करोड़ गरीब कारीगरों को ५०००० का ऋण भी दिया जाता है तो ये राशि 
बैंकों द्वारा वर्तमान में बांटे जाने वाले ऋण की राशि का बहुत छोटा हिस्सा
 होगा. जिन धनाढ्य लोगों को बैंकें ऋण बाँट रहीं है उनका पता नहीं परन्तु 
ये २० करोड़ लोग अपने ऋण का भुगतान अवश्य करेंगे. सबसे बड़ी बात की ये २० 
करोड़ लोग सफल हो जाएंगे और गरीबी रेखा के ऊपर उठ जाएंगे. अगर सरकार गरीबी 
की वाकई में मिटाना चाहती है (या सिर्फ गरीबी हटावो का नारा लगाना चाहती 
है) तो उसको इस दिशा में सोचना पड़ेगा.  
देश
 के पिछड़े और गरीब क्षेत्रों में बढ़ रहे असंतोष के कारण को समझना पड़ेगा. 
जिस देश की रीढ़ की हड्डी ही किसान है और जहां पर हर रोज २१ किसान आत्महत्या
 कर रहे हों उस देश को किसाओं और पशुपालकों को ध्यान में रख के ही नीतियां 
बनानी चाहिए. आज ये लोग बैंकों के चक्कर लगा लगा कर थक जाते हैं - आप के 
साथ मैं भी  सपने देखता हूँ ऐसे भारत की जहा पर ऐसी व्यवस्थाएं हो की इनको 
अपनी जरूरत का ऋण आसान किस्तों  पर और कम ब्याज पर घर बैठे मिले और ये अपना
 पूरा ध्यान सिर्फ अपने काम पर लगा सकें. मैं सपने देखता हूँ उस भारत 
का  जहाँ पर हर भारतीय हुनर सीखे और अपने हुनर के बल पर अपने ही गांव में 
 आत्मविश्वास से जीवन बिताये (न की झूठे आश्वासनों और सपनों से गुमराह हो 
और अपने गाँव से उजाड़ जाए). मैं सपने देखता हूँ एक ऐसे भारत का  जहाँ पर 
लोगों को भारतीय संस्कृति पर इतना गर्व हो की फिर से पूरी दुनिया के लोग 
भारत की संस्कृति को सीखने और समझने के लिए भारत आना शुरू कर देवें. ये 
सपने हमें सोने नहीं देंगे और अगर हम ये सपने नहीं देखेंगे तो खो जाएंगे. 
No comments:
Post a Comment