Thursday, December 28, 2017

बैंकिंग सुधार: २ लाख करोड़ की जीवनदायनी बनाम जीवनसञ्जीवनी


बैंकिंग सुधार: २ लाख करोड़ की जीवनदायनी  बनाम जीवनसञ्जीवनी

सरकारी और निजी क्षेत्र की तुलना करने के लिए किसी ने मुझे एक कहानी सुनाई -एक व्यक्ति के दो बेटे थे - एक कम काम करता लेकिन लाडला था - दूसरा परिश्रम करता और ज्यादा कमाता था - वह व्यक्ति कमाऊ बेटे से पैसे ले कर पहले बेटे को दे देता क्योंकि वो लाडला था. ये पहला बेटा सरकारी क्षेत्र है और दुसरा बेटा निजी क्षेत्र. लम्बे समय तक इसी तरह चलता रहा तो निजी क्षेत्र की कमर टूट जायेगी - उनको दो तरफ से प्रतिस्पर्धा करनी है - एक तो सरकारी क्षेत्र से और दूसरी बहुराष्ट्रीय कंपनियों से. किसी भी दिन सरकार का दिल आ गया तो सरकार सरकारीकरण कर लेगी और फिर क्या होगा ये आप खुद देख रहे हो (आज के सरकारी बैंकों में).

भारत ने पूरी दुनिया को योग, ध्यान और जीवन का मकसद और जीवन मूल्य दिया है तो पश्चिम ने पूरी दुनिया को आज की दिखावे की संस्कृति, विपणन और तथाकथित आधुनिक प्रबंध दिया है जिसमे ये माना जाता है की -  "वही बिकता है जो दीखता है". भारत की सरकारों और सरकारी संगठनों ने अंग्रेजों की दी हुई व्यवस्था को आज भी जीवंत बनाये रखा हुआ है, हाँ विगत कुछ वर्षों में उन्होंने पश्चिम से विपणन और प्रबंध कौशल  सीख कर अपने आप को सुधारने की असफल कोशिश जरूर की है. अब चुनाव नजदीक आ रहे हैं और विपणन के सिद्धांत के आधार पर अब कुछ दिखावा करना जरुरी है ताकि लोगों को लगे की सरकार और सरकारी महकमे कुछ कर रहे हैं. आज धड़ाधड़ बजट आबंटित हो रहे हैं - टूटी सड़कें ठीक हो रही है, अखबारों पर सरकारी खर्च पर बड़े बड़े विज्ञापन शुरू हो रहे हैं जिनमे सरकारी "विकास" का प्रचार हो रहा है.
क्यों जरुरत पड़ी २ लाख करोड़ की सरकारी बैशाखी की  हाल ही मैं सरकार ने  दो लाख करोड़ से ज्यादा की राशि सरकारी बैंकों को प्रदान करने की घोषणा की है - जिसका कई अर्थशाष्त्री स्वागत कर रहे हैं. ऐसे निर्णय सरकारें लेती ही रहती हैं और हर बार किसी न किसी सरकारी महकमे को इसी प्रकार से मदद प्रदान की जाती है. आज हम एक ऐसे दौर में हैं जहाँ पर हर सरकारी महकमा नवीनतम तकनीक (जैसे कम्प्यूटर) अपनाता है लेकिन काम पुराने ढर्रे पर ही करता है. मैंने कई महकमों में फ़ाइल सिस्टम को देखा है - वहां पूछा जब आज आप इंटरनेट और ईमेल से काम कर सकते हैं तो फिर फ़ाइल सिस्टम से ही क्यों अनुमति मांगते हो - इसमें समय ज्यादा लगता है और नुक्सान तो जनता का होता है - जवाब मिला - नहीं काम तो फ़ाइल सिस्टम से ही होगा - यानी काम तो अंग्रेजों के बनाये हुए सिस्टम से ही करेंगे लेकिन ऑफिस में कम्प्यूटर तो चाहिए. अब आप समझ गए होंगे की क्यों सरकारी कंपनियों को इतना घाटा होता है जबकि उनकी ही तरह काम करने वाले निजी क्षेत्र को बिना सरकारी सहायता के भी लाभ ही होता है.

क्यों होता है सरकारी क्षेत्र में घाटा? ये वो ही बैंकें हैं जो निजी क्षेत्र मैं थी और वहां मुनाफ़ा कमा रही थी लेकिन सरकार ने इनका सरकारीकरण कर दिया था. जब से सरकारीकरण किया गया - ये घाटे मैं हैं या बहुत कम मुनाफे में हैं. सरकारीकरन करने के पीछे का तर्क ये था की इन बैंकों को छोटे और कुटीर उद्योगों को ऋण देने के लिए प्रेरित करना और समाज के विकास में इन बैंकों को काम में लेना
था. लेकिन आज भी इन बैंकों से छोटे और कुटीर उद्योगों को ऋण लेना उतना ही मुश्किल है जितना आजादी से पहले था. बड़ी कंपनियों को आज भी आसानी से ऋण मिल जाते हैं जैसे की पहले होता था. सरकारी कंपनियों का लाखों करोड़ रूपये का ऋण बकाया है - किस तरह की कंपनियों में ?  - बड़ी बड़ी कंपनियों में.  अगर ये बैंकें छोटे और कुटीर क्षेत्र को प्राथमिकता देती तो इनके ऋण भी ज्यादा उसी क्षेत्र को होते - लेकिन ऐसा नहीं हुआ. फिर सरकारीकरण का कुछ तो फायदा मिलना चाहिए गरीब और असहाय जनता को?

बैंकिंग का कार्य पूरी तरह से जागरूकता और सजगता का काम है - बैंकिंग के कार्य में एक एक पैसे के ब्याज का हिसाब रखा जाता है. निजी क्षेत्र के बैंक अपने पैसे के सही इस्तेमाल करने के लिए बहुत ही सक्षम ट्रेज़री प्रबंधक नियुक्त करते हैं जो पैसे को सही ढंग से निवेश करते जाते हैं और जोखिम भी नहीं लेते हैं. सरकारी क्षेत्र में करोड़ों रूपये ऐसे ही पड़े रहते हैं और इस प्रकार ब्याज का नुक्सान होता है.

जब आप निजी क्षेत्र से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं तो आप को उन के सामान ही तेज तर्रार और सक्षम कर्मचारियों को प्रोत्साहन देना जरुरी है. आपको अपनी कार्य प्रणाली को बदलना जरुरी है. अंग्रेजों के जमाने की कमिटी व्यवस्था और लाल-फीताशाही आपको कभी भी सफलता से काम नहीं करने देगी. आज बैंकों की खस्ता हाल के पीछे का कारण ये है की ये आज भी लाल-फीताशाही और पुराने तरीके से काम कर रहे हैं.

कमिटियों का सच जो निर्णय निजी क्षेत्र में एक दिन में एक व्यक्ति के द्वारा लिए जाते हैं उसके लिए सरकारी तंत्र में एक समिति बना दी जाती है जिसको कमिटी कहा जाता है - वो कमिटी एक बरस तक मीटिंग करती रहती है और फिर भी निर्णय नहीं ले पाती - और अगर उसमे किसी व्यक्ति का कोई हित जुड़ा हुआ होता है तो दो मिनट में निर्णय ले लिया जाता है. निर्णय की प्रक्रिया को कदम कदम पर कमिटी के हवाले करने का मकसद एक ही होता है - ताकि कोई भी व्यक्ति जिम्मेदारी न ले. हम लाखों  रूपये तनख्वाह ले सकते हैं लेकिन व्यक्तिगत जिम्मेदारी नहीं लेना चाहते. हम तनख्वाह बढ़ाने के लिए हड़ताल कर सकते हैं लेकिन निजी क्षेत्र की तरह कुशलता और सरल व्यवस्था से काम नहीं करेंगे.

भारतीय प्रबंधन व्यवस्था और भारतीय जनमानस की अनदेखी वर्षों पहले भारत में हर क्षेत्र में अद्भुत प्रबंध व्यवस्था थी - और ये बात शायद किसी को हजम न हो की भारतीय विपणन व्यवस्था और भारतीय बैंकिंग व्यवस्था उतनी खराब भी नहीं थी जितनी की आधुनिक विद्वान कह रहे हैं. भारत की अद्भुत व्यवस्थाओं को पहले तो अंग्रेजों ने फिर अंग्रेजों से पढ़े हुए लोगों ने नकार दिया. खैर व्यवस्थाएं खत्म हो जाती है लेकिन उनके अवशेष रह जाते हैं. भारत की अद्भुत व्यवस्थाओं में हमेशा गरीब और लाचार लोगों की वित्तीय जरूरतों को पूरा करने के लिए कुछ व्यवस्थाएं थी लेकिन आधुनिक तंत्र में उनके लिए कोई व्यवस्थाएं नहीं थी. बांग्लादेश में श्री मोहम्मद यूनुस ने इसी कमी को पूरा करने के लिए "ग्रामीण बैंक" की शुरुआत की. ग्रामीण बैंक उन लोगों को मदद प्रदान करती थी जिनकी बड़े बैंक (सरकारी बैंक)  कोई मदद नहीं करते थे. यानी जो बैंक गरीबों के लिए शुरू किये गए वो तो कोई काम नहीं कर पाए. प्रोफ़ेसर यूनुस की पहल से एक ऐसी बैंकिंग व्यवस्था की शुरुआत की जो वाकई ऐसे लोगों के लिए थी जिनके लिए सरकारी क्षेत्र चाह के भी कुछ नहीं कर पाया था. मोहम्मद यूनुस ने जो शुरुआत की उससे प्रभावित हो कर अनेक देशों में नवाचार किये गए और बैंकिंग व्यवस्था का एक विकल्प शुरू हुआ. कमाल की बात ये है की इन बैंकों ने उन लोगों को मदद प्रदान की जो बिलकुल सक्षम नहीं थे फिर भी कोई भी ऋण नहीं डूबा. बड़े सरकारी बैंकों को ग्रामीण बैंक से सीख लेनी चाहिए - बैंकों को वाकई उनकी मदद करनी चाहिए जिनको कोई मदद नहीं करता है. सरकारीकरण से बैंकिंग उद्योग में एक नए युग का सूत्रपात जरूर हुआ - वो ये की बैंकों में भी सरकारी तंत्र की तरह अफसरसाही, नौकरशाही, और यूनियनबाजी हावी हो गयी. सरकारों को ये समझ लेना चाहिए की उनका काम देश की सुरक्षा करना, गरीबों की मदद करना और देश में कानून व्यवस्था स्थापित करना ही है. सरकारी ढर्रे से काम कर के बैंकें आज क्या अगले ५० वर्षों में भी वो काम नहीं कर पाएंगी जिनके लिए उनकी स्थापना की गयी है. बैंकों में सुधार करने के लिए बैंकों की कार्यप्रणाली को बदलना पड़ेगा और उनको सरकारी तरह से नहीं बल्कि "ग्रामीण बैंक" की तरह जन-हित के आधार पर काम करना होगा - जो आज मुश्किल लग रहा है.  प्रश्न है की क्या इस प्रकार सरकारी उपक्रमों को जीवनदायनी उचित है - जब की निजी क्षेत्र ज्यादा कुशलता और प्रभाव से कार्य कर रहा है और हर तरफ उसको सरकारी प्रतिस्पर्धा और सरकारी महकमे की प्रताड़ना मिलती रहती है.

क्या हो जीवनसञ्जीवनी ?एक समय में एक सरकारी कम्पनी  भयंकर घाटे में थी. सरकार हर साल मदद करती थी - लेकिन कोई फायदा नहीं था. सरकार ने कम्पनी को दी जा रही बैसाखी को हटाने का फैसला किया और कम्पनी को आंतरिक सुधार करने के लिए प्रेरित किया. वो कर्मचारी जो पहले हड़ताल और यूनियनबाजी में व्यस्त रहते थे - अब सजग हो गए. सभी कर्मचारियों ने मिल कर कम्पनी को सुधारने और खूब मेहनत करने का प्रण किया और कम्पनी मुनाफे में आ गयी. सुधार के ये कदम वाकई लाभदायक साबित हुए. मतलब ये की सरकारी बैशाखी से किसी का भला नहीं होता है - जोर कंपनियों और लोगों को सक्षम बनाने पर होना चाहिए न की बैशाखी का सहारा देने पर.

No comments:

Post a Comment