Thursday, December 28, 2017

मशीनी सोच (संगठित क्षेत्र) और इंसानी सृजनधर्म (असंगठित क्षेत्र) का द्वन्द - फैसला आपका


हाल ही मैं बीकानेर के कुछ साहित्यकारों ने "कथारंग" नामक कहानियों का संग्रह प्रकाशित किया. ये प्रसंशनीय है क्योंकि ये कथारंग का तीसरा अंक है. निरंतरता बनाये रखना बहुत बड़ी बात है. इस कार्य के लिए स्थापित बड़े बड़े सरकारी महकमे जो काम नहीं कर पाए हैं - वो काम इन साहित्यकारों ने किया है. प्रश्न है की साहित्यकारों के इस समूह की इस कला से हम क्या सीख ले सकते हैं?
सृजनशीलता इंसान का धर्म है और इंसान इस कार्य में अद्भुत आनंद पाता है. सृजनशीलता छोटे समूहों की विशेषता है. जैसे जैसे संगठन बड़े होते जाते हैं सृजनशीलता कम होती जाती है. संगठन के बड़े होते ही उसमे नौकरशाही की कमियां आने लग जाती है और उसकी सृजनशीलता कम होने लग जाती है. जितने बड़े संगठन होते हैं वो उतने ही नौकरशाही बन जाते हैं.
इस दुनिया में दो  तरह के संगठन बहुतायत में  हैं - बहुत बड़े और बहुत छोटे - बहुत बड़े संगठन बाहर से बहुत आकर्षक नजर आते हैं (परन्तु अंदर से खोखले  होते हैं). ये वो संगठन हैं जो साधन सम्पन्न होते हैं  (संसाधनों का खुल कर दुरुपयोग भी ये ही करते हैं और पर्यावरण के सर्टिफिकेट भी ये ही ले आते हैं. ) और जिनकी सरकारी महकमों से ले कर उद्योग संगठनों तक सभी मंचों पर बड़ी पहुँच होती है. इन बहुत बड़े संगठनों में कई अच्छी बाते हैं - संगठित क्षेत्र में होने वाली सभी अच्छाइयां  - जैसे अच्छी कार्य दशाएं - अच्छी तनख्वाह, आदि. इन संगठनों को सरकार और अन्य सभी संस्थाओं से सहयोग और सहारा मिलता रहता है. सरकारें इन से पूछ कर नीतियां बनाती हैं. विश्वविद्यालय इन से पूछ कर पाठ्यक्रम बनाते हैं और शोध संस्थाएं इनसे पूछ कर शोध का कार्य करती हैं और इनके हितों को ध्यान में रख कर के ही सारे निर्णय लिए जाते हैं. सरकारी और अन्य सहायता भी इनको आसानी से मिल जाती है. वित्तीय और विपणन की सुविधा के कारण ये संगठन आज बाजार चला रहे हैं और हमारी जिंदगी की दिशा और दशा तय कर रहे हैं. ये समाज के लिए मार्गदर्शक संगठन बन चुके हैं क्योंकि ये ही समाज में परिवर्तन के कारक हैं और समाज की नब्ज इनके हाथ में हैं. ये ही फैशन की शुरुआत करते हैं तो ये ही नए जीवन मूल्य स्थापित करते हैं.

बहुत छोटे संगठन बहुत कम साधनों से चलते हैं. ये वो संगठन हैं जो समाज के कम से कम संसाधन काम में लेते हैं लेकिन समाज के अधिकतम लोग इस तरह के संगठनों में ही काम करते हैं. ये संगठन वो हैं जो न तो सरकार से मदद पाते हैं न अन्य संगठनों से लेकिन सिर्फ अपनी सृजनशीलता और जूनून के सहारे सफल होते जाते हैं. इन संगठनों के पास न तो सरकारी मशीनरी है न बाजार हैं लेकिन सिर्फ अपनी जुझारू क्षमता है जो इनको जीवित रखे हुए है. ये ही वो संगठन है जो हमारी अद्भुत जीवन शैली, जीवन मूल्य और पर्यावरण अनुकूल नीतियों को बचाये हुए हैं. ये ही वो संगठन हैं जो हमारे देश की अधिकाँश सृजनशील लोगों की सृजनशीलता को आज के मुश्किल झझावत में भी  मंच प्रदान किये हुए हैं. 
संगठित और असंगठित क्षेत्र के बीच एक अघोषित युद्ध चल रहा है. संगठित क्षेत्र असंगठित क्षेत्र को समाप्त करने के लिए कृतसंकल्प है - लेकिन अभी उसको इसमें सफलता नहीं मिल रही है अतः वो असंगठित क्षेत्र का उपयोग अपने फायदे के लिए कर रहा है.
गाँधी - विनोबा जैसे दार्शनिकों ने एक बात महसूस की थी की भारत जैसे देशों को असंगठित क्षेत्र को मदद प्रदान करनी चाहिए क्योंकि वे ही भारत की ताकत है और वो ही भारत की अधिकाँश जनसंख्या को सृजनशील रोजगार प्रदार कर सकता है. लेकिन आजादी के बाद महालनोबिस जैसे अर्थशास्त्रियों को ये लगा की देश को संगठित क्षेत्र को ज्यादा तबज्जु देनी चाहिए. नतीजा आपके सामने हैं.
आप चाहें या न चाहें आपको इस द्वन्द में भाग लेना ही पड़ेगा - आप या तो संगठित क्षेत्र की मदद करेंगे  या असंगठित क्षेत्र की - और आप जैसे लोगों की मदद से ही भविष्य तय होगा. संगठित क्षेत्र का भविष्य आपको शानदार नौकर बनाने पर अटका  है तो असंगठित क्षेत्र तो पूरी तरह से आप पर ही (और आपकी सृजनशील उद्यमिता पर निर्भर है) निर्भर है - क्योंकि सरकारें और बड़े समूह तो संगठित क्षेत्र को ही मदद प्रदान करेंगे.
असंगठित क्षेत्र की सफलता का आधार नवाचार और सूक्ष्म  तकनीक है - जो उनको बाजार में बचाये हुए है. नवाचार इस बात पर निर्भर है की आप कितनी शिद्द्त से अपना काम करते हैं और सूक्ष्म तकनीक इस बात पर निर्भर है की आप छोटे स्तर पर काम आ सके ऐसी तकनीक के विकास के लिए क्या कर रहे हो.
रोज कोई न कोई कानून कोई न कोई व्यवस्था ऐसी आ जाती है जो संगठित क्षेत्र की मदद करने के लिए बनायीं गयी होती है. रोज कोई  न कोई ऐसे निर्णय लागू कर दिए जाते हैं जो संगठित क्षेत्र को मदद करते हैं. नई पीढ़ी को शिक्षा ही ऐसी दी जारही है ताकि वो संगठित क्षेत्र के काम आएं. असंगठित क्षेत्र अपनी अद्भुत प्रतिभा, नवाचार और सृजनशीलता को कब तक बचाये रख पायेगा? उसके साथ ही एक युग का अंत हो जाएगा.
हाल ही में शोध से पता चला है की लोगों को इस साल (बिजली की लाइटों की जगह पर ) दीयों को खरीद कर उनसे अपनी दिवाली बनाने की फैशन आ गयी है - ये खबर असंगठित क्षेत्र के लिए खुशखबरी है - काश ऐसी और खुश खबरियां आएं.
आज सरकारें भी संगठित क्षेत्र की राह पर चल रही है. उनको लाखों करोड़ों के प्रोजेक्ट्स सुहाते हैं लेकिन असंगठित क्षेत्र की दाल रोटी भी नहीं सुहाती. उन्हें अधिक से अधिक उत्पादन चाहिए अधिक से अधिक स्पीड चाहिए - असंगठित क्षेत्र ये नहीं दे सकता. यहाँ तो संतोष है, मौज है, जूनून है और सृजनशीलता है जो हर व्यक्ति को आदर्श जीवन जीने के लिए प्रेरित करती है न की ज्यादा उत्पादन और ज्यादा उपभोग के लिए.
संगठित क्षेत्र हमें पूरी तरफ से पश्चिमी विचार-धारा की तरफ ले जाएगा लेकिन असंगठित क्षेत्र हमें हमारे ही जमीन की 'ग्राम स्वराज्य' की परिकल्पना और जन-कल्याण की विचारधारा के नजदीक ले जाएगा. मैं तो असंगठित क्षेत्र को सलाम करता हूँ - आप से भी इस अद्भुत सृजनशील क्षेत्र को सलाम करने के लिए अनुरोध करता हूँ. हर शहर और हर गांव में बसे सृजनशील समूहों को सलाम. विज्ञापन और प्रचार की संस्कृति हमें उपभोगवाद की तरफ ले जा रही है जिसका मकसद है अधिक से अधिक उपभोग को प्रोत्साहन देना - लेकिन ये तो हमारा मकसद नहीं है. हम जो पाना चाहते हैं वो तो असंगठित क्षेत्र ही दे सकता है. अगर आप संगठित क्षेत्र की चक्रव्यूह में फंस चुके हैं तो मेरी बाते आपको बेमानी लगेगी. लेकिन अगर इस मिटटी से जुड़े हैं तो 'कथारंग' जैसे समूहों को सम्मान दीजिये और इस दिवाली दिए खरीदिये.

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