Thursday, December 28, 2017

पटाखों से नहीं - रौशनी से मनाइये दिवाली.



पटाखों से नहीं - रौशनी से मनाइये दिवाली.

मुझे ऐसा लगा की हम लोग दिवाली नहीं मना रहे - हम लोग सियासत खेल रहे हैं और उन लोगों की कठपुतली बन रहे हैं जो इस देश को बाँट कर के अपनी रोटियां सेक रहे हैं. मुझे ऐसा इस लिए लगा क्योंकि  दिवाली आने से पहले ही सोशल मीडिया गरमा रहा है और उसमे रोज कोई न कोई मैसेज आ रहे हैं. आज कल सभी लोग लिख रहें हैं की दिवाली पर पटाखों पर रोक उचित नहीं है. उनको ये आपत्ति है  की दिवाली और होली जैसे त्योहारों पर ही कोई क्यों उंगुली उठाता है. वे ये क्यों भूल जाते हैं की ये छिद्रान्वेषण (यानी कमी दूर करने के प्रयास) ही तो भारतीय दर्शन की खासियत है जो हमारी हजारों वर्षों की संस्कृति को बचाये हुए है. चाहे कोई भी संस्कृति हो या कोई भी धर्म हो वक्त के साथ उसमे कमिया आ जाती है - लेकिन जो लोग अपनी कमियों को दूर करने के लिए कृतसंकल्प होते हैं वो ही अपनी संस्कृति और अपने धर्म को बचाये रख सकते हैं. कुरीतियां, गलत प्रथाएं, हठधर्मिता न तो धर्म न संस्कृति को शोभा देते हैं. पठाखे दिवाली का आधार न तो थे न कभी  होने  चाहिए. दिवाली तो रौशनी और खुशियां मनाने का त्योंहार है और पठाखे कभी भी भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा नहीं रहे हैं. दिवाली तो हजारों वर्षों से मनाई जा रही है. पठाखे तो सातवीं शताब्दी में चीन में ईजाद किये गए.  भारत में बारूद का इस्तेमाल भी उसी बाबर ने बढ़ाया जिसने श्री राम का मंदिर तोडा - और आज आप श्री राम को याद करने के लिए दिया नहीं जलाते, रौशनी नहीं फैलाते - सिर्फ और सिर्फ पठाखे जलाते हो - आखिर क्यों?  पठाखे किसी भी रूप में दिवाली की भावना या दिवाली के आयोजन से सम्बंधित नहीं है. मैं अपने बचपन को याद करता हूँ - तब पटाखे छोटे बच्चों के मनोरंजन के लिए होते थे जो छोटे और कम आवाज करते थे. उस वक्त के मुख्य पठाखे होते थे - साम्प, टिकड़ी, फुलझड़ी, अनार आदि. देखते ही देखते पटाखों की जगह बड़े बड़े बारूद के बमों और रॉकेटों ने ले लिए जो न तो पर्यावरण के लिए अनुकूल हैं न आस पास रहने वाले अन्य प्राणियों (जैसे पशु - पक्षियों आदि) के लिए अनुकूल हैं. धीरे धीरे पठाखे इस कदर बढ़ गए हैं की अब तो रात भर पटाखे चालाये जाते हैं.  (ध्यान रहे - श्री राम तो पूरी कायनात के थे. जानवर तो श्री राम के लिए कुछ भी कर सकते थे - बन्दर और गरुड़ तो उनके लिए अपनी जान देने को तैयार थे  - उन्ही जानवरों के वंशजों के जीवन में आपके  पठाखे  अँधियारा ला रहे हैं. जो जानवर श्री राम और सीता को प्रिय थे - आप उन्ही को सबसे जयदा कष्ट पहुंचा रहे हैं)


पटाखों के पीछे अलग अगल तर्क आ रहे हैं - लोग कहते हैं "हमारे पैसे हैं हम जैसे चाहे खर्च करें - आप कौन होते हैं रोकने वाले". मगर कोई कुरीति अगर पुरे समाज को जकड ले तो उस कुरीति को दूर करना भी तो समाज का ही कर्तव्य है. भारतीय संस्कृति की सबसे बढ़ी खासियत ही ये ही है की यहाँ पर निंदा, ाआत्मविश्लेषण और वाद-विवाद को हमेशा से प्रश्रय और प्रोत्साहन दिया गया है और इसी कारण से बड़ी  से बड़ी कुरीतियों को आसानी से दूर कर दिया गया (जैसे सती प्रथा की कुरीति को समूल नष्ट कर दिया गया). हजारों वर्षों तक सांस्कृतिक विरासत को बकाये रखने का कीर्तिमान सिर्फ भारतवासियों के पास है और वो भी सिर्फ इसी लिए क्योंकि हमारे समाज में खुला पन है और समाज आत्मविश्लेषण के लिए हमेशा तैयार रहता है.

दिवाली आखिर है क्या? - ये अन्धकार से प्रकाश की यात्रा है, ये अधर्म पर धर्म की जीत की अभिव्यक्ति है, ये आदर्श जीवन का नमन है, ये श्री राम व् सीता के आदर्शों का स्मरण है, ये भारत की हजारों वर्षों की सांस्कृतिक विरासत का स्मरण  है. जब आप दिवाली मनाते हैं तो आप एक तरह से उस अद्भुत भारतीय संस्कृति का नमन करते हैं जो हजारों वर्षों पहले इस धरती पर थी और जिसके प्रतीक के रूप में हम श्री राम का स्मरण करते हैं. अफ़सोस ये है की लोग दिवाली को सिर्फ हिन्दुओं का त्यौहार कहते है जबकि ये इस महान देश के हर निवासी का त्यौहार कहा जाना चाहिए क्योंकि राम हम सब के पूर्वज हैं और जब वे थे तब भारतवासी धर्म के नाम पर बंटे हुए नहीं थे. अतः वे हर भारतवासी के पूर्वज है और हम सब के आदर्श पुरुष हैं. हकीकत में तो भारत सरकार को भी दिवाली मनानी चाहिए - क्योंकि जब हम भारत के महान सपूतों को याद करते हैं तो श्री राम उनमे सर्वोपरि हैं और कोई भी सरकार अपने देश के सपूतों को नजरअंदाज नहीं कर सकती है. अगर हम भारत सरकार से अपेक्षाओं  की बात करें तो फिर सबसे पहले तो अयोध्या में राम जन्म भूमि पर राम मंदिर के निर्माण की बात आती है. निष्पक्ष दृष्टि से देखें तो इस देश के हर निवासी ने राम मंदिर का समर्थन किया है (मुस्लिम नेता भी आगे आ आ कर के राम जन्म स्थल पर मंदिर का समर्थन करते आये हैं). लोगों को धर्म या संकीर्ण हितों के नाम पर लड़ाना हमेशा से एक सियासी चाल रही है. लेकिन जब बात उस समय की है जब देश में धर्म को लेकर दीवारें ही नहीं खींची थी तो फिर ये तो पुरे देश के इतिहास और संस्कृति की बात है. अगर महात्मा गाँधी पुरे देश के राष्ट्र पिता हैं तो श्री राम पुरे देश के लिए मर्यादा पुरुष क्यों नहीं है?

हजारों वर्षों पहले भी मानव सभ्यता थी और शायद आज से ज्यादा सुसभ्य, सुसंस्कृत, और विकसित थी लेकिन अधिकाँश सभ्यताएं पूरी तरह से ओझल हो गयी. मिश्र के पिरामिड से आभास होता है की उनकी सभ्यता हमसे कई गुना ज्यादा सभ्य और विकसित थी लेकिन आज हम उनके बारे में कुछ भी नहीं जान सकते क्योंकि पूरी की पूरी सभ्यता ही विलीन हो गयी और हमारे पास उस अद्भुत संस्कृति का कोई भी ऐसा पहलु नहीं है जो आज भी बरकरार हो न हमारे पास उस युग की कहानियाँ या उस युग के किस्से बचे हैं. हजारों वर्ष पुरानी सुमेर,चीन और अन्य सभ्यताएं भी लुप्त हो चुकी हैं. ये कहना गलत है की आज का मानव सबसे ज्यादा विकसित है और आज की सभ्यता सबसे ज्यादा सुसंस्कृत सभ्यता है. दुनिया में एक मात्र जीवंत सभ्यता सिर्फ और सिर्फ भारत में है जो हजारों वर्षों से अपनी सांस्कृतिक विरासत को बचाये हुए हैं. तथाकथित दम्भी वैज्ञानिकों और समाज-शास्त्रियों को इस तथ्य को स्वीकार करना चाहिए की हाँ पूरी दुनिया के लिए श्री राम और सीता (वर्तमान) मानव इतिहास के  सबसे प्राचीन आदर्श हैं अतः इनकी कहानी को पूरी दुनिया को पढ़ना चाहिए और इनकी संस्र्कतिक विरासत को बचाना चाहिए. इस नाते दिवाली पूरी दुनिया को मनानी चाहिए. 

जब आप एक कदम सीढ़ी पर आगे चलते हो तो आप अब ज्यादा ऊपर उठ गए हो लेकिन इस का मतलब ये नहीं की जहाँ आप पहले थे वहां पर आप पिछड़े हुए थे. जो समाज शास्त्री ये कहते हैं की हम पहले पिछड़े हुए थे और आज बहुत विकसित हैं उनको ये चुनौती हैं की अगर आज के युग में (किसी भी देश में) श्री राम और सीता के जैसे आदर्श व् सुसंस्कृत  जीवन की एक भी मिसाल वो ला के दिखा सकें तो उनकी बात में मान लूंगा. जिस युग में श्री राम और सीता रहे, उस युग तक मिश्र में पिरामिड भी नहीं बने थे - इस लिहाज से ये पूरी दुनिया की सबसे प्राचीन सांस्कृतिक विरासत  है और आप इसको बचाने में अपने आपको "सांप्रदायिक" मान कर क्यों इतने चिंतित हो रहे हो? आप हर चीज को धर्म और संकीर्ण दायरों में क्यों देख रहे हो और क्यों उनकी सुन रहे हो जो सियासत खेल रहे हैं?

जीवन में रौशनी कैसे आये, अन्धकार से प्रकाश कैसे आये, दिया तो एक प्रतीक है - असल मुद्दा है - श्री राम हमारे जीवन में कैसे आये?मैंने एक शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किया क्योंकि इस दुनिया में प्रकाश फैलाने में शिक्षक बहुत काम कर सकते हैं. श्री संतोष रांगणेकर को बुलाया. उन्होंने अपने जीवन की किताब खोली. तीस साल पहले उनके पास दो नौकरियां के विकल्प थे  - एक १८०० रूपये की और एक ५०० रूपये की - पहली उच्च सरकारी नौकरी थी दूसरी साधारण सी निजी क्षेत्र की नौकरी. उन्होंने अपने माता पिता से पूछा - और उनके कहे अनुसार दूसरी नौकरी चुनी. मकसद साफ़ था - माता पिता की सेवा करना. कुछ वर्ष बाद माता पिता दोनों को भयंकर बीमारियां हो गयी और दोनों लाचार हो गए. दोनों बिस्तर से उठ भी नहीं सकते थे. श्री रांगणेकर उनकी सेवा करते थे - रात रात भर जागते रहते थे. उनके रिश्तेदारों ने उनसे कहा की किसी नौकर को रख लो ताकि वो उनकी देख भाल कर सके - उन्होंने साफ़ कहा नहीं - मैं स्वयं सेवा का लाभ लेना चाहता हूँ.  जीवन के इस मुश्किल दौर में उनकी जीवनसंगिनी भी उनको छोड़ कर अलग हो गयी लेकिन उन्होंने अपने माता - पिता को नहीं छोड़ा. आखिर २००३ में उनके माता पिता दुनिया छोड़ गए. उस समय तक श्री रांगणेकर ने दुनिया के सारे ललचाने वाले प्रलोभन ठुकरा दिए - और सिर्फ और सिर्फ अपने माता पिता की सेवा को ही अपना मकसद बना लिया. २००३ के बाद ही वे अपने कार्य और अपने "करियर" को ध्यान दे पाए. आज वे शिक्षकों को पूछते हैं "आप हार्वर्ड और स्लोअन से सिलेबस क्यों नक़ल करते हो - क्या उनके विद्यार्थियों और आपके विद्यार्थियों की जरूरतों में फर्क नहीं है? क्या आप अपने विद्यार्थियों को उनकी जरुरत के अनुसार नहीं पढ़ा सकते? क्या आप "लीडरशिप" जैसे विषय पढ़ाने के लिए श्री कृष्ण और श्री हनुमान जैसे महान नायकों की कहानी नहीं सीखा सकते या "स्ट्रेटेजी पालिसी" पढ़ाते हुए  चाणक्य के उद्धहरण नहीं दे सकते?" श्री रांगणेकर अपने विद्यार्थिओं को नेतृत्व कला पढ़ाने के लिए "श्री राम" और
श्री कृष्ण" को पढ़ने की सलाह देते हैं और फिर उन पर चिंतन करते हैं. वे साफ़ कहते हैं की मूल प्रश्न है "विद्यार्थी महाविद्यालय में प्रवेश ले कर कक्षा में क्यों नहीं आना चाहता है - क्यों उसको ये लगता है की उसको कुछ नया ज्ञान नहीं मिल रहा है - क्यों वो ज्ञान पाने के लिए इधर उधर भटक रहा है लेकिन कक्षा में नहीं बैठना चाहता - हमें इन पर मंधन करने की जरुरत है".  श्री रांगणेकर के साथ शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित कर के मैंने तो दिवाली माना ली - अब देखना है की आप सिर्फ पठाखे ही छोड़ते रहोगे या वाकई श्री राम का अनुकरण करोगे? क्या आप वाकई मैं रौशनी फैलाने का जतन (जतन एक मारवाड़ी शब्द है जिसका मतलब है यत्न या प्रयास मगर जतन जैसा शब्द और कोई नहीं है इसी लिए मैं इसका ही इस्तेमाल कर रहा हूँ) करेंगे या इस दिवाली को भी पठाखे छोड़ कर अन्धकार फैलाओगे?

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