Thursday, December 28, 2017

जरा मन की तो सुन, पकड़ अपनी धुन

जरा मन की तो सुन, पकड़ अपनी धुन

आइये कुछ मशीनी सी इन जिंदगी से हट कर कुछ चिंतन करें. आइये आज कुछ उन  लोगों की बात करते हैं जो भेड़चाल से अलग हट कर अपने मन की धुन पर काम करते हैं . ऊँची नौकरियों की ख्वाइश तो सभी रखते हैं - कुछ उन लोगों की बात करें जो उन लोगों के लिए काम करके खुश होते हैं जिनके लिए  इस दुनिया में वाकई कोई नहीं सोचता है.

हाल ही में  विख्यात शिक्षाविद श्री पवन गुप्ता  जी  से मिलने का मौका मिला. उनके दादा जी राजस्थान से कलकत्ता  चले  गए और फिर वे लोग कलकत्ता के ही हो गए. श्री पवन  ने  भारतीय तकनीकी संस्थान दिल्ली से पढ़ाई करने के बाद  अपना  जीवन मसूरी में शिक्षा के नाम समर्पित कर दिया. जब उन्होंने मसूरी में "सिद्ध" नामक संस्था शुरू की और शिक्षा का काम शुरू किया तब ये सोचा था की वो लोगों को शिक्षा के द्वारा बहुत कुछ बदल डालेंगे - लेकिन मसूरी में अपने इस प्रयास में वे स्वयं पूरी तरह से बदल गए. उनके जीवन की यात्रा हर युवा के लिए प्रेरणास्पद है.


श्री पवन ने जब विद्यार्थियों को पढ़ाई के लिए प्रेरित किया तो कुछ महिलाओं ने पूछा - :"पढ़ाई लिखाई करवाने के बाद मेरा बेटा मुझे छोड़ कर शहर चला जाएगा - मेरे खेत - खलिहान का क्या होगा?" ये प्रश्न आप और मैं तो नजरअंदाज कर देते हैं लेकिन श्री पवन ने इसे गंभीरता से लिया. गावों के बड़े बूढ़ों का कहना था की पढ़ाई के बाद लोग शहरों की तरफ पलायन शुरू कर देते हैं और गांव में रहने वाले अपने बुजुर्गों को हेय दृस्टि से देखने लग जाते हैं.

श्री पवन  ने देखा की पढ़ाई के बाद युवा अपने घर पर अपने से  बड़ों की इज्जत नहीं करते हैं. उन्होंने इस का कारण ढूंढने का प्रयास किया. उन्होंने अपने गुरु श्री धर्मपाल जी से इस मामले में राय मांगी. श्री धर्मपाल ने उनको गाँधी वांग्मय पढ़ने की सलाह दी. श्री पवन  ने सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय पढ़ डाला - जिसमे लगभग १०० से ज्यादा  पुस्तकें हैं जिनमे ५०००० से ज्यादा पेजों में गाँधी जी का साहित्य है - गांधी जी के लिखे हुए पत्र, लेख, उनके भाषण और उनके व्यक्तव्य आदि. इस अध्ययन से उनके जीवन में एक नयी शुरुआत हुई. उनको समझ में आ गया की भारत की शिक्षा में क्या सुधार चाहिए और वो कैसे आ सकता है. आजादी के आंदोलन के दौरान १९३७ में गाँधी जी ने नै तालीम नामक शिक्षा व्यवस्था शुरू की जो पूरी तरह से भारतीय शिक्षा व्यवस्था थी. इस व्यवस्था में आज कल भी भाषा में "स्किल ट्रेनिंग" यानी हुनर और श्रम आधारित शिक्षा व्यवस्था थी जिसमे विद्यार्थी कुशल कार्यकर्ता भी बन जाता था और श्रम को भी जीवन में अपनाता था. आजादी के बाद पता नहीं क्यों उस व्यवस्था को न अपना कर हमारे देश ने फिर से उसी  पश्चिमी शिक्षा प्रणाली को अपनाया जिसके नकारात्मक परिणामों के कारण गांधी जी जैसे नेताओं ने विरोध किया था. इस बात की तह में जाने के बाद श्री पवन ने "नयी तालीम" पर आधारित शिक्षा शुरू करने का मानस बनाया.

श्री पवन  ने पूछा - " आज का विद्यार्थी अपने पैतृक धंधों से क्यों विमुख हो रहा है - वो अपने पिता के कार्य को नीची नजर से क्यों देखता है? वो अपने से बड़ों का 'खेती - बाड़ी' में मदद क्यों नहीं करता है? "  प्रश्न भी उन्होंने पूछे और  कारण और समाधान भी  बताये. ये वो प्रश्न हैं जिनको आज का शिक्षाविद नजरअंदाज कर देता है लेकिन ये प्रश्न हैं महत्वपूर्ण. मुलभुत बातों को नजरअंदाज करना हमारी आदत सा बन गया है. हम ये मान  के चलते हैं की ऐसा है और ऐसा ही होगा. श्री पवन ने पूछा - "यूनिफार्म का बच्चों पर क्या प्रभाव पड़ रहा है. " उन्होंने  ये देखा की पाठशाला जाने वाले हर विद्यार्थी को एक "यूनिफार्म" में जाना पड़ता है और उसको वो भाषा इस्तेमाल में लेनी पड़ती यही जो उसके घर पर नहीं बोली जाती है. इस प्रकार से विद्यार्थी को घर से तोड़ने का काम शुरू हो जाता है. विद्यार्थी अपने माता पिता को हेय दृस्टि से देखने लग जाता है. उसे अपने अनपढ़ माता पिता बहुत ही अक्षम नजर आने लग जाते हैं और वो आज की आधुनिकता को अपनाने वाले लोगों को सम्मान से देखने लग जाता है. उन्होंने विद्यार्थियों के साथ अनेक प्रयोगकिये : - जैसे विद्यार्थियों को दो फोटो  दिखाए - एक में एक व्यक्ति सूट - टाई में नजर आ रहा है - और एक में व्यक्ति धोती - कुर्ते में नजर आ रहा  है - फिर विद्यार्थियों से पूछा की कौन ज्यादा बुद्धिमान और समझदार है - स्कुल की परवरिश का परिणाम साफ़ नजर आया जब विद्यार्थियों ने 'सूट - टाई' वाले व्यक्ति को बहुत बुद्धिमान व्यक्ति के रूप में पहचाना. हम अपनी ही सांस्कृतिक विरासत और अपने ही लोगों के खिलाफ क्यों काम कर रहे हैं? श्री पवन ने शिक्षा के इस स्वरुप को बदलने के लिए प्रयास शुरू किये और काफी सफलता मिली. उन्होंने विद्यार्थियों को पूछा -" घर पर माँ तुम्हारे इलाज के लिए तुम्हें अदरक खिलाना चाहती है - तुम क्या करोगे" ? उन्होंने पाया की विद्यार्थी अपनी स्कुल में मिले ज्ञान और अपनी पाठ्य पुस्तकों और अन्य पाठ्य सामग्री को ही ज्ञान का स्रोत मानता है - और अपने घर के बुजुर्गों को ज्ञान का स्रोत नहीं मानता है. उन्होंने विद्यार्थियों को ज्ञान अर्जित करने के लिए परम्परागत ज्ञान को देखने और महसूस करने के लिए प्रेरित किया. हमारी शिक्षा प्रणाली में विद्यार्थी के मन मस्तिष्क  में  एक आदर्श "कॅरियर" की अवधारणा को स्थापित कर दिया जाता है. फिर विद्यार्थी उसी कॅरियर के लिए प्रयास करने शुरू कर देता है. क्या ये उचित है?


श्री पवन ने बताया की अंग्रेजों ने सं१७०० के आस  - पास   भारत  में भारत की शिक्षण संस्थाओं का सर्वे किया और पाया की उस समय में भारत में लाखों (परम्परागत) शिक्षण संस्थाएं थी - हर गांव में शिक्षण संस्था थी - उस समय की शिक्षा व्यवस्था बहुत ही श्रेष्ठ थी. उस समय में विषय आधारित शिक्षा की जगह पर वस्तु-परक शिक्षा होती थी. श्री पवन ने उसी शिक्षा व्यवस्था को मसूरी में प्रयोग के तौर पर शुरू किया और बहुत ही अच्छे परिणाम सामने आये. विद्यार्थी ज्ञान अर्जित करते समय किसी उद्देश्य को ध्यान में रख कर के ज्ञान अर्जित करता है और उसका जीवन में इस्तेमाल भी करता है. इसी तरह से विद्यार्थी उस ज्ञान से समाज को कुछ देना भी सीख जाता है जिससे उसको अपने जीविकोपार्जन में परेशानी नहीं आती. श्री पवन के प्रयासों से शिक्षा का जो स्वरुप स्थापित किया गया - उससे निकले विद्यार्थी बेरोजगारों की पंक्ति में खड़े होने की बजाय अपने गांव में कोई न  कोई काम शुरू कर देते  हैं . श्री पवन की शिक्षण संस्था में हर विद्यार्थी रोज १.५ घंटे कोई न कोई श्रम आधारित हुनर का कार्य जरूर करता है (अपनी रूचि के अनुसार).

आइये अब श्री अलोक सागर की बात करते हैं. श्री सागर ने भारतीय प्रोड्यगिकी संस्थान दिल्ली से पढ़ाई की और बाद में वहीँ पर व्याख्याता बन गए. रिज़र्व बैंक के भूतपूर्व गवर्नर श्री राजन भी उनके विद्यार्थी रह चुके हैं. लेकिन  फिर उनको अपने जीवन का उद्देश्य समझ में आने लगा और उन्होंने १९८२ में अपनी नौकरी छोड़ दी और मध्यप्रदेश में बैतूल और होशंगाबाद में जन सेवा का काम शुरू कर दिया. वे आज भी रोज साईकिल पर निकलते हैं - पेड़ लगते हैं और लोगों को पेड़ लगाने और बचाने  के लिए प्रेरित करते हैं. उन्होंने अकेले ही ५०००० से ज्यादा  पेड़ लगा दिए हैं. वे आदिवासियों के बीच उनकी ही तरह लुंगी पहन कर रहते हैं और उनकी ही भाषा में बात करते हैं. श्री सागर की प्रेरणा से आदिवासियों ने पेड़ों को काटना छोड़ कर पेड़ लगाना शुरू कर दिया है. श्री सागर उन आदिवासियों के लिए एक आम आदमी हैं जिनसे वो जब चाहे मिल लेते हैं और अपने जीवन में आयी परेशानियों के बारे में बात करते हैं. श्री सागर खुश हैं क्योंकि आज वो आदिवासियों की जिंदगी में खुशियां लाने में कामयाब हैं और वो एक ऐसी जिंदगी जी रहे हैं जो उनको उनको उनके जीवन के मकसद के करीब ले जा रही हैं.

श्री पवन गुप्ता और श्री अलोक सागर जैसे लोग आज युवाओं के लिए एक आदर्श ले कर उपस्थित हैं - एक सन्देश भी है - क्या हम अपनी (विदेशी)  शिक्षा व्यवस्था और अपनी "नौकरी की मानसिकता" वाली व्यवस्थाओं की जगह  फिर से ग्राम स्वराज्य के मन्त्र को अपनाने के लिए सोच सकते हैं?क्या हम फिर से गाँधी और भारत के मन की बात को समझने के लिए प्रयास कर सकते हैं? सिर्फ भारत को समझने वाला और भारत के गावों और भारत की परम्पराओं की ताकत को समझने वाला ही इन प्रश्नों की तह में जा सकता है.

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