Thursday, December 28, 2017

मन हल्का - कठोती में गंगा - हर कोई रहे चंगा


मन हल्का - कठोती में गंगा -  हर कोई  रहे चंगा

क्या कभी सोचा है की बच्चे इतने प्यारे, इतने जोशीले, और इतने जीवंत क्यों नजर आते हैं - क्योंकि उनकी स्मृति में किसी के प्रति नफरत या नाराजगी के लिए जगह नहीं होती है. अगर वे गुस्सा होते हैं तो ये क्षणिक होता है - वे शीघ्र भूल जाते हैं और फिर से उनलोगों को गले लगा लेते हैं जिनसे वे गुस्सा थे. उनकी ये विशेषता ही उनको हर पल प्रफुल्लित रह कर जीने का मौका देती है और हम तो उनके इस बाल रूप में ही ईश्वर का दर्शन कर लेते हैं. जैसे जैसे उम्र बढ़ती जाती है हम जीने की कला भूलने लग जाते हैं और अनावश्यक स्मृतियों को अपने मन-मस्तिष्क में जगह देना शुरू कर देते हैं. जैसे जैसे अनुभव बढ़ता जाता है वैसे वैसे दिमाग में द्वेष, घृणा और नफरत का भार बढ़ता जाता है और ये भार हमारी सारी जिजीविषा को समाप्त कर के हमें जीते जी हरा देता है.

जितना हम दिमाग में भार ले कर जीते हैं - उतने ही हम कम जी पाते हैं - जितना भार कम करते जाते हैं - उतने ही ज्यादा जी पाते हैं - तो क्यों न हम ज्यादा जियें. इस दुनिया में कौन ऐसा है जिसको धोखा, फरेब, झूठ, और मक्कारी का सामना नहीं करना पड़ता? इस दुनिया मैं कौन ऐसा है जिसको अपने ही सामने अपने सपनों को टूटते हुए नहीं देखना पड़ता? कभी न कभी  तो हम सब लोगों को इस दुनिया के नकारात्मक पहलु का सामना करना ही पड़ता है. यही तो इस दुनिया का सच है. फिर भी इस दुनिया में सबको माफ़ करना ही तो सबसे बड़ी जीने की कला है. इसा मसीह ने तो उनको भी माफ़ कर दिया जिन्होंने उनकी जिंदगी ले ली. इससे बड़ा माफ़ क्या होगा. दुनिया में जीवन को जीना सबसे मुश्किल कला है और जो इस कला को सीख लेता है वो हर पल खुश रह सकता है हर पाल का आनंद ले सकता है.

हर इंसान से भूल होती है - उन भूलों को याद रखने से जीवन एक भार बन जाता है और जीवन जीने का आनंद ही खत्म हो जाता है. उन भूलों को भूल मानते हुए  भुला देना ही जीवन जीने की कला है. अतः सबसे पहले तो हमें अपने आप को माफ़ करना आना चाहिए. अपने आप को तभी प्यार कर पाएंगे जब हम अपने आप को खुल कर माफ़ कर पाएंगे. कई व्यक्ति पछतावे और अफ़सोस को अपने दिमाग  में जगह दे देते हैं और फिर पूरी जिंदगी मन ही मन उसको याद कर के अपने आपको कोसते रहते हैं. एक गलती हम से अनेक गलती करवाती जाती है. गौतम बुद्ध ने हम से कहा है की वर्तमान में जीवो. जो भूतकाल आप याद कर रहे हो वो बीत गया - और उस वक्त का आप भी बदल गया. आज आप हैं और आज का वक्त - आज पूरी ताकत से अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करो और अपने आपको आह्लादित करो.

जितना हम अपने आपको या दूसरों को कोसते रहते हैं उतने ही दुखी होते जाते हैं और जीवन के आनद से वंचित होते जाते हैं. ये स्थिति  अगर लगातार लम्बे समय तक जारी रहे तो हमें अनेक बीमारियां घेर लेती है और फिर हमारे लिए जीना दुश्वार हो जाता है. आज विज्ञान भी मानने लगा है की हमारी मानसिक दशा हमारी बीमारियों के लिए जिम्मेदार है और स्वस्थ होने के लिए सबसे ज्यादा जरुरी है की हम स्वस्थ विचार लाएं - स्वस्थ चिंतन रखें और सदैव खुश रहने का प्रयास करें.


दुनिया की जानी मानी  अस्पताल जॉन हॉपकिंस अस्पताल (मेरीलैंड अमेरिका) के डॉक्टर कारेन स्वार्ट्ज़ मरीजों को स्वस्थ रहने के लिए सबसे ज्यादा "फॉरगिवनेस्स हीलिंग" अपनाने के लिए कहते हैं. फॉरगिवनेस्स यानी माफ़ करना. डॉक्टर स्वार्ट्ज़ कहते हैं की जब लोग दूसरे लोगों को और स्वयं अपने आप को माफ़ करना सीख जाते हैं तो जीवन को हल्का बना लेते हैं और तनाव और कुंठा से मुक्त हो जाते हैं और इस प्रकार वे स्वस्थ जीवन की शुरुआत करते हैं. अपने इन प्रयोगों से डॉक्टर स्वार्ट्ज़ ने अनेकों मरीजों को स्वस्थ किया है. उनकी तरह आज पूरी दुनिया में इसे लोगों को स्वस्थ रखने के लिए अपनाया जाता है.  जिसे आज का विज्ञान एक जरुरी दवाई के रूप में इस्तेमाल कर रहा है उस व्यवस्था को एक  परम्परा के रूप में भारत में अनंत काल से मनाया जा रहा है. भारत में हर धर्म - हर व्यवस्था में लोगों को त्योंहारों के मोके पर एक दूसरे को गले लगाने की व्यवस्था है - और असल में वो ही असली त्योंहार है - जिसका उद्देश्य है गीले शिकवे दूर कर अपनापन फैलाना -एक दूसरे को क्षमा करना और अपने आपको भी क्षमा कर के हल्का होना - और इस प्रकार अपने मन को सभी वैचारिक बाधावों से मुक्त करना.

जैन धर्म मानने वाले लोगों के लिए क्षमा  सबसे बड़ा पर्व है. पर्युषण महापर्व के आखिरी दिन क्षमावाणी या क्षमापना का दिन होता है जिस दिन हर व्यक्ति से क्षमा मांगी जाती है.

शताब्दियों से जैन लोग इस दिन निम्न वाक्यों का उच्चारण करते आये हैं -

खामेमि  सव्वे  जीवा  यानी मैं सभी जीवों को क्षमा करता हूँ.
सव्वे  जीवा  खमंतु  में  यानी मैं सभी जीवों से क्षमा माँगता हूँ.
मिति में  सव्वा  भूसु  यानी मैं सभी प्राणियों से मित्रवत हूँ.
विराम  मज्झम  न  केन  वि  यानी मेरा किसी प्राणी से बैर नहीं है.
मिच्छामि  दुक्कडम यानी मेरे सारे क्लेश भाव समाप्त हो जाएँ.
इस प्रकार सभी जैन धर्मावलम्बी प्राणी मात्र से क्षमा मांगते हैं और क्षमा प्रदान करते हैं. वे इस दिन बार बार ये वाक्य दोहराते हैं : -
 खम्मामि सव्व  जीवेषु सव्वे जीवा खमन्तु में, मित्ति में सव्व भू ए सू वैरम् मज्झणम् केण इ यानी   सब जीवों को मै क्षमा करता हूं, सब जीव मुझे क्षमा करे सब जीवो से मेरा मैत्री भाव रहे, किसी से वैर-भाव नही रहे

जहाँ पश्चिमी विज्ञान में क्षमा मानसिक स्वास्थ्य के लिए एक जरुरी तत्व है - वहां भारतीय दर्शन में क्षमा मोक्ष की तरफ अग्रसर होने के लिए जरुरी पहला कदम है. जहाँ पश्चिमी दर्शन में क्षमा मन को हल्का करने के लिए जरुरी माना जाता है वहां भारतीय दर्शन में हमारे पुद्गलों की निर्जरा के लिए इसे जरुरी माना गया है.

क्षमा की व्यापकता :
यहाँ क्षमा बहुत ही व्यापक है. हम अपने आप से क्षमा मांगते हैं तो इस दुनिया में हर प्राणी से क्षमा मांगते हैं. क्षमा की इस प्रक्रिया से हम स्वयं भी प्रतिक्रिया से मुक्त होते हैं और वैर - वैमनस्य के भाव से अपने आपको मुक्त करने का प्रयास करते हैं.

व्यक्ति जैसे जैसे क्षमा को अपने जीवन में उतारता जाता है वैसे वैसे वो जीवन को एक निरपेक्ष भाव से जीने लग जाता है और इस प्रकार क्षमा जीवन को एक नया नजरिया प्रदान करता है. क्षमा एक जीवन दर्शन है जो जीवन को उसके आखिरी मंजिल यानी मोक्ष की तरफ ले जाने की शुरुआत है.

जैन धर्म में अनेक कहानियां है जो इसके सिद्धांतों को व्यवहारिक रूप में प्रस्तुत करती है. ये कहानियां क्षमा को जीवन में कैसे अपनाना इस बात का व्यवहारिक पक्ष प्रस्तुत करती है. क्षमा वो शक्ति है जो व्यक्ति का स्वयं का कल्याण तो करती है ही परन्तु दूसरे व्यक्तियों को भी कल्याण के रास्ते पर ले जाती है.  ये कहानियां निश्चित रूप से जीवन का आदर्श स्वरुप प्रस्तुत करती है. २४वे तीर्थंकर  श्री महावीर स्वामी को चंडकौशिक नामक जहरीले कोबरा  सांप ने काटने की कोशिश की. क्षमा भाव से महावीर स्वयं भी वीतराग रहे और उस सांप को भी वीतराग बना दिया.

क्षमापना महापर्व को मनाना एक जीवन दर्शन को स्वीकार करने जैसा है जिसमे इंसान प्राणी मात्र से अपने कर्मों के लिए क्षमा मांगता है और अपने आपको भी क्षमा प्रदान करके मुक्त हो जाता है.

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