आईआईएम (IIM) अहमदाबाद में विद्यार्थियों के रेस्टोरेंट का नाम है 
"टेनस्टाफेल" जिसका मतलब मुझे शुरू में समझ नहीं आया. वहां प्रोफ़ेसर देवधर 
से उसका मतलब पूछा तो उन्होंने बताया की दुनिया में इंसान को कोई भी चीज 
मुफ्त में नहीं लेनी चाहिए - जो मिल रहा है उसके बदले में इस ब्रह्माण्ड को
 वापस देने का भाव होना चाहिए. उन्होंने इस शब्द का पूरा विस्तार बताते हुए
 कहा की हम विद्यार्थियों को ये कहना चाहते हैं की दुनिया में कुछ भी मुफ्त
 नहीं है - न ही मुफ्त लेने की इच्छा होनी चाहिए - ताकि हम सब में देने का 
भाव हो.
विद्यार्थी जीवन से ही इस दुनिया को कुछ 
देने का भाव जगाना  बहुत महत्वपूर्ण है. समझ पकड़ने से बाद से हर व्यक्ति को
 इस दुनिया को ज्यादा देने की होड़ में लग जाना होता है - जो ज्यादा दे पाता
 है वो ही ज्यादा खुश रह पाता है और उसी को दुनिया भी ज्यादा सम्मान और 
इज्जत देती है. लेकिन हम इस दुनिया को तभी ज्यादा दे सकते हैं जब हम - 
स्वस्थ रहें - फिर से वही मूल मन्त्र - पहला सुख निरोगी काया. हमें 
विद्यार्थियों को फिर से ये समझाना है कि स्वास्थ्य, उम्र, और हमारी 
कार्यदक्षता हमारे अपने प्रयासों और हमारी जीवनशैली पर निर्भर है. 
विद्यार्थी जीवन से ही योग, प्राणायाम, स्वस्थ जीवन-शैली, खेल-कूद, और 
शारीरिक श्रम पर जोर दिया जाना चाहिए. विद्यार्थियों के लिए रोज एक कालांश 
तो शारीरिक - मानसिक स्वास्थ्य और जीवनशैली पर ही होना चाहिए.  पैदल चलना 
स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक है - अतः घर के आस - पास के काम के लिए सबको
 पैदल ही जाने के लिए प्रेरित करना चाहिए - इसी बहाने वो पड़ोसियों से 
बातचीत भी कर पाएंगे और इसी बहाने वो स्वस्थ भी रह पाएंगे. तथाकथित आधुनिक 
जीवनशैली के दुष्परिणाम नजर आ रहे हैं - बचपन से ही मोटापा बढ़ रहा है और 
कार्य-करने की क्षमता कम हो रही है. बीमारियां लगातार बढ़ रही है और 
रोग-प्रतिरोधी क्षमता कम हो रही है. सौभाग्य से आज भी हमारे देश की आधी से 
ज्यादा जनसँख्या गावों में रहती है जो अभी भी हमारी परम्पराओं को जी रही है
 अतः आज भी स्वस्थ और तंदुरुस्त है. 
मैं लोगों 
को ६० साल की उम्र में और ज्यादा जोश और उत्साह से नयी पारी शुरू करते 
देखता हूँ तो  हैरान रह जाता हूँ. उनका तर्क होता है ६० साल की उम्र सरकार 
ने रेटीररेमेंट की उम्र घोषित की हुई है लेकिन इस का मतलब ये नहीं है की ६०
 साल की उम्र में हम सारे काम काज छोड़ कर आराम करना शुरू  कर देवें . 
सरकारी नीति का उद्देश्य युवाओं को रोजगार का मौका देना है और ६० साल के 
लोगों को समाज के कल्याण के लिए कार्यमुक्त करना है ताकि वो लोग अपने 
अनुभवों का लाभ लोगों को दे सकें. ६० साल की उम्र में एक व्यक्ति परिपक्व 
और अनुभवी बन जाता है - यानी इस उम्र में उस व्यक्ति को आम लोगों की भलाई 
के लिए कोई न कोई कार्य तो जरूर करना ही चाहिए. उसके जीवन भर के अनुभव का 
फायदा युवाओं को मिलना चाहिए. हम ये  कह सकते हैं की ६० साल तक का जीवन 
परिवार और पैसे के लिए जिया - लेकिन उसके बाद का जीवन पूरी तरह से समाज और 
देश के लिए न्योछावर. 
मैंने ६० साल के बाद जीवन 
की शानदार पारियों की शुरुआत करने वाले अनेक लोग देखे हैं. उनको देख कर ये 
लगता है की ६० साल उनके लिए एक नया जन्म ले कर आया - यानी कर्तव्य और 
कल्याण के लिए एक नया तोहफा. ये लोग जितने समय तक सक्रीय रहते हैं उतने ही 
ज्यादा स्वस्थ और प्रसन्न रहते हैं. 
व्यक्ति की 
उम्र, स्वास्थ्य और तंदुरुस्ती उसकी सोच और उसकी जीवनशैली पर निर्भर है. 
कुछ उदाहरणों से अपनी बात स्पस्ट करता हूँ.  पश्चिमी हिमालय में गिलगिट 
क्षेत्र में रहने वाले हुंजा जनजाति के लोगों की बात करते हैं . ये वो लोग 
हैं जो आम तौर पर १४५ साल की उम्र जीते हैं. इस क्षेत्र के लोगों को कैंसर,
 हार्ट अटैक जैसी बीमारियां नहीं होती है. यहाँ जीवन का मध्यान ही १०० वर्ष
 की उम्र में होता है. क्या कारण है यहाँ के लोगों की ज्यादा उम्र का राज? 
दक्षिणी
 अमेरिका में बोलीविया के अमेज़न क्षेत्र में रहने वाले टसिमने जनजाति के 
लोगों की बात करते हैं. ये भी १००-१२० से ज्यादा ही जीते हैं. इन लोगों को 
भी कैंसर व् हार्ट अटैक जैसी बीमारियां नहीं होती हैं. वैज्ञानिकों ने पाया
 की  इन लोगों की धमनियां दुनिया की सबसे बेहतरीन धमनियां हैं - जिनमे 
हार्ट अटैक होने की सम्भावना नहीं के बराबर है.  आखिर क्या  है इन लोगों के
 स्वास्थ्य का राज? 
उपरोक्त वर्णित दोनों 
जनजातियों में कुछ बाते समान हैं : -   ये लोग भोजन में ज्यादातर फल, 
कंदमूल और अनाज लेते  हैं. ये लोग दिन में दो बार ही भोजन करते हैं. ये लोग
 कम खाते हैं. ये लोग दिन में ५-६ घंटे पैदल चलते हैं. ये लोग वर्तमान में 
जीते हैं और खुश रहते हैं. और हाँ - इनमे आपको मोटापा नहीं नजर आएगा. 
हुंजा
 जनजाति के  लोगों का मुख्य भोजन है आड़ू, बादाम, आलूबुखारे, और अखरोट. ये 
लोग बहुत कम  भोजन करते हैं लेकिन इस भोजन से इनको अपने काम करने के लिए 
जरुरी ऊर्जा और ताकत मिल जाती है. ये लोग पीढ़ियों से आसन और प्राणायाम करते
 आये हैं और दिन में कई बार आसन  करते हैं. ये लोग अक्सर उपवास करते हैं और
 लम्बे समय तक उपवास पर रहते हैं. 
जो लोग ये 
सोचते हैं की जीवन, स्वास्थ्य, और हमारी तंदुरुस्ती सिर्फ भाग्य की देन है 
वो गलत हैं.  जहाँ जहाँ पर लोग जैसे जीते हैं वैसे ही उनका स्वास्थ्य और 
भविष्य बन जाता है. यानी अपने स्वास्थ्य और तंदुरुस्ती के निर्माता हम 
स्वयं हैं. अपने जीवन के भाग्य निर्माता हम स्वयं हैं. अपने जीवन की उम्र 
को तय करने वाले हम स्वयं हैं. 
हमें विरासत में 
अद्भुत परम्पराएं मिली - जो हमें स्वस्थ जीवन और स्वस्थ सोच प्रदान करती 
थी. पश्चिमीकरण और शहरीकरण के दौर में हम लोगों ने स्वस्थ जीवन के अपने 
अद्भुत सूत्र गवां  दिए. आज हर सातवा व्यक्ति किसी न किसी बीमारी से ग्रसित
 है. हार्ट अटैक, ब्लड प्रेशर, शुगर और कैंसर की बीमारियां घर-घर फ़ैल रही 
है. इन बिमारियों के इलाज के लिए तो हम सब लोग चिंतित हैं और उस के लिए 
स्वास्थ्य - बीमा   भी करवा लेते हैं लेकिन इन बिमारियों को रोकने के लिए 
हम नहीं सोचते हैं. 
ईश्वर ने हमें ये क्षमता दी 
है की हम अपनी जरूरत से कई गुना ज्यादा भोजन कर सकते हैं और अपनी भूख को भी
 बर्दाश्त कर सकते हैं. ये ईश्वर की दी हुई वो चाबी है जिससे हम सारी 
समस्याओं के तालों को खोल सकते हैं. यानी अगर हम फिर से अपनी परम्पराओं को 
अपना लें तो हमें भी हुंजा जनजाति के लोगों की तरह स्वस्थ और आनंददायक जीवन
 मिल सकता है. हमें क्या करना है? - वही जो हमारे पूर्वज किया करते थे 
लेकिन हमने छोड़ दिया. जैसे : - 
ज्यादा भोजन नहीं करना है - उतना ही करना है जितना हमारे लिए जरुरी है
बार बार भोजन नहीं करना है - दिन में २-४ बार ही भोजन करना है. 
अधिक से अधिक फलाहार, अनाज और ताजा वनस्पतियों का सेवन करना है
अधिक से अधिक पैदल चलने पर बल देना है. 
अधिक से अधिक समय शारीरिक  रूप से सक्रिय रहना है. 
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