जीएसटी नहीं केएसटी  -  हमारी जरुरत
गावों
 के गट्टों और शहर के पाटों पर बैठे लोगों से पूछिए की लोगों को ख़ुशी कैसे 
मिलेगी और लोगों की ख़ुशी के लिए सरकार को क्या करना चाहिए? कैसा माहौल 
बनाना चाहिए? कैसी व्यवस्थाएं स्थापित करनी चाहिए? 
पिछले
 २५ वर्षों से चीन में लोगों में खुशहाली में कमी आ रही है. रिचर्ड 
इस्टेरलीन नामक विख्यात अर्थशाष्त्री के अनुसार पिछले २५ वर्षों में जीडीपी
 लगातार बढ़ रही है लेकिन लोगों की खुशियां कम हो रही है. अमेरिका पिछले १० 
सालों से लगातार खुशहाली के क्षेत्र में पिछड़ रहा है - और उसका बड़ा कारण है
 लोगों का बढ़ता मानसिक असंतुलन. मनोरोगी बढ़ रहे है, तनाव बढ़ रहा है, आपसी 
मन-मुटाव बढ़ रहा है. प्रश्न है फिर इतनी ताबड़तोड़ किस लिए? कुछ तो सोचना 
चाहिए चीन और अमेरिका जैसे देशों के नीतिनिर्माताओं को. नॉर्वे जैसे देशों 
में हर व्यक्ति को बचत के लिए प्रेरित किया जाता है और हर व्यक्ति की 
शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा की जिम्मेदारी सरकार की है. नॉर्वे, 
डेनमार्क, आइसलैंड, स्विट्ज़रलैंड जैसे देश दुनिया में सबसे ज्यादा खुशहाली 
वाले देश हैं - आखिर क्यों? उन्होंने किस चीज को प्राथमिकता दी? दुनिया में
 कैसी भी मंदी आये - इन देशों ने अपने नागरिकों की खुशहाली के लिए ऐसी 
व्यवस्थाएं की हुई है की उस मंदी का लोगों पर कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ेगा. 
अपने पडोसी मुल्क भूटान को ही देखिये. पूरी दुनिया में भूटान पहला देश था 
जिसने जीडीपी की जगह पर खुशहाली को अपने देश की प्रगति का आधार बनाया. 
उन्होंने दुनिया के सामने ये साबित कर दिया की एक छोटा सा देश भी पूरी 
दुनिया की बेवकूफियों का डट कर सामना कर सकता है और पूरी दुनिया को अपने 
आगे झुका सकता है. मजबूर हो कर २०१२ से यूनाइटेड नेशंस ने भी खुशहाली को 
प्रगति का आधार बनाया. भूटान की ये पहल पूरी दुनिया के सामने एक नयी रौशनी 
ले कर आयी. जीडीपी के पीछे अंधे हो कर भाग रहे नीति-निर्माताओं को अक्ल आयी
 की असल में वे लोगों को खुशहाली नहीं बदहाली की तरफ धकेल  रहे थे. भूटान 
आज भी हमारे देश से खुशहाली के पायदान पर बहुत आगे है और इस दिशा में 
लगातार प्रयास कर रहा है. वहां हर विद्यार्थी को निशुल्क शिक्षा, प्रशिक्षण
 और तकनीकी हुनर प्रदान किया जाता है - बेरोजगार को रोजगार के सक्षम बनाना 
सरकार की जिम्मेदारी है. सरकार लोगोंकी खुशहाली बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध है.
 नतीजे सामने नजर आ रहे हैं. 
अपने देश पर नजर डालें तो पाते हैं की देश की नीतियां किसी प्रकार से 
जीडीपी बढ़ाने पर केंद्रित हैं. सरकार का पूरा ध्यान टैक्स बढ़ाने पर है - 
इसकी जगह सरकार को नॉर्वे जैसे देशों की तरह बचत बढ़ाने पर जोर देना चाहिए. 
सरकार का पूरा ध्यान छोटे छोटे उद्यमियों को टैक्स की सीमा में लाने पर है -
 इससे ज्यादा ध्यान करोड़ों बेरोजगारों को उद्यमी बनाने पर देना चाहिए. 
सरकार का पूरा ध्यान मुट्ठी भर राजनेताओं और  अधिकारियों  की तनख्वाह व् 
भत्ते बढ़ाने पर है - इससे ज्यादा ध्यान करोड़ों लोगों को स्वास्थ्य, और 
सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने पर होना चाहिए. सरकार का पूरा ध्यान विदेशी 
कंपनियों को भारत में निवेश करने के लिए आमंत्रित करने पर है - इससे जयदादा
 ध्यान देश में स्वदेशी आंदोलन को पुनः स्थापित करने और लोगों में आपसी 
विश्वास को बढ़ावा देने पर होना चाहिए.  उत्तर पूर्व के राज्यों में शिक्षा 
और स्वास्थ्य पर प्राथमिकता दी जाती है और वहां के हर विद्यार्थी की शिक्षा
 और तकनीकी प्रशिक्षण का व्यय सरकार उठाती है - ऐसे ही कश्मीर के 
विद्यार्थियों की शिक्षा व् तकनीकी प्रशिक्षण  का व्यय सरकार उठाती है - 
वहां के विद्यार्थियों की प्रगति साफ़ नजर आती है. गुजरात में लड़कियों की 
पढ़ाई (उच्च शिक्षा भी ) की जिम्मेदारी सरकार उठाती है - इससे वहां लड़कियों 
की शिक्षा में बहुत सुधार हुआ. जहाँ जहाँ पर इस प्रकार के प्रयास हुए हैं 
विकास नजर आ रहा है. 
पुरे देश में आज भी इस बात का अफ़सोस है की 
देश के करोड़ों युवाओं के विकास और प्रशिक्षण पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया 
जा रहा है. १२५ करोड़ के इस मुल्क में सरकार सिर्फ मुट्ठी भर लोगों के भत्ते
 व् तनख्वाह बढ़ा कर ये सोच लेती है की उसने अपने कर्तव्य का निर्वाह कर 
लिया है.सरकार द्वारा छप्पर फाड़ तनख्वाह बढ़ाने के बाद भी कई लोगों के 
चेहरों पर ख़ुशी नजर नहीं आयी. कई लोग इस लिए दुखी थे क्योंकि उनको लग रहा 
था की अगर वो निजी क्षेत्र में होते तो शायद क्या कर डालते. कई इस लिए दुखी
 थे क्योंकि वो सरकारी नौकरी नहीं हासिल कर पाए. मैंने एक ठेला चालाने वाले
  व्यक्ति से पूछ लिया - आपको नहीं लगता की सरकार के इस फैसले से देश में 
ज्यादा पैसा आएगा ज्यादा तरक्की होगी? वो कुछ उदास हो मेरी तरफ देखने लगा. 
बोला : "हम तो कम पढ़े लिखे हैं साहिब - इतना ही जानते हैं की जैसे ही 
आम्दानी बढ़ेगी लोग विदेशी माल खरीदेंगे - मेरी दुकानदारी चौपट हो जायेगी. "
 कही उसकी बात में सच्चाई तो नहीं है? मुझे नहीं पता पर ये लगता है की जैसे
 जैसे लोगों का जीवन स्तर ऊपर उठ रहा है उनकी दृस्टि विदेशी सामान की तरफ 
बढ़ रही है और वो पड़ोसियों से कट रहे हैं. अगर वाकई में ऐसा होता है तो ये 
एक खतरनाक संकेत है. 
आजादी से पहले देश में 
स्वदेशी आंदोलन का आधार सिर्फ ये बात थी की हमें अपने प्रदेश के उद्यमी को 
सम्बल प्रदान करना है और विदेश के सामान को नहीं खरीदना है. उस विचार के 
पीछे ये ही सच्चाई है की अगर हर व्यक्ति अपने क्षेत्र के लोगों को सहारा 
देने की सोचेगा तो एक स्वस्थ समाज की आधारशिला बनेगी और अगर हर व्यक्ति 
विदेशी सामान के पीछे भागेगा तो देश की अर्थव्यवस्था और देश के उद्यमी लोग 
तबाह हो जाएंगे. स्वदेशी आंदोलन से हमको एक बात समझ में आ गयी की किसी भी 
देश और किसी भी अर्थव्यवस्था को कमजोर करने का सबसे सशक्त उपाय है की उस 
देश के उत्पादों का बहिष्कार कर दिया जाए. हम ये भी समझ गए की देश की 
तरक्की के लिए एक ऐसी विचारधारा चाहिए जो देश के उद्यमियों को सर्वोपरि 
स्थान देती है तथा उनके उत्पाद को प्रथम प्राथमिकता देती है. देश की जनता 
को सशक्त बनाने के लिए स्वदेशी आंदोलन बहुत ही प्रभावी आंदोलन साबित हुआ. 
उस समय लोग ख़ुशी ख़ुशी देश में बने उत्पाद खरीदते थे भले ही कम गुणवत्ता का 
या ज्यादा महंगा हो - लेकिन ख़ुशी होती थी ये देख कर की "किसी न किसी रूप 
में अपने देश की तरक्की में मदद कर रहा हूँ". 
एक
 गरीब व्यक्ति जब १००० रुपए खर्च करता है तो ये रूपये उसके आस-पास के लोगों
 तक ही जाते हैं और इन रुपयों से उसके आस पास कुछ खुशहाली आ जाती है. जैसे 
वो इन रुपयों से अनाज, तेल,  घर के अन्य जरुरी सामान, और आस-पड़ोस से कोई 
जरुरी सामान खरीदता है. एक बहुत ही अमीर व्यक्ति अगर १००० रूपये खर्च करता 
है तो वो इन रुपयों को किसी पार्टी, पांचसितारा होटल, या किसी विदेशी 
ब्रांड के सामान या किसी लग्ज़री सामान  को खरीदने पर खर्च करता है. मतलब 
सरकार को ये प्रयास करने चाहिए की गरीब व्यक्ति की आम्दानी और बढे और 
अमीरों की आम्दानी का एक बड़ा हिस्सा देश के विकास पर खर्च हो. देश में ऐसे 
आर्थिक ढाँचे का निर्माण हो जिसमे गरीब से गरीब व्यक्ति के लिए परिश्रम से 
अर्थोपार्जन आसान हो और अमीर से टैक्स वसूल किया जाए. पूरी आर्थिक नीति का 
ये ही आधार होना चाहिए. 
कुछ देशों ने "मुक्त 
व्यापार" की नीति को अपनाया और अपने देश में लोगों को व्यापार करने के लिए 
बिना रोकटोक के नियम बनाये जिससे ज्यादा से ज्यादा लोग व्यापार और उदम कर 
सकें. उन देशों में लोगों ने कमाल की तरक्की की. सिंगापुर का उदहारण लीजिये
 - ली कुआं येव सरकार ने वहां पर उद्यमिता की बहार ला दी. वहां हर व्यक्ति 
उद्यमी बनने के सपने देखता है और उद्यमिता हर बालक के सपनो में है. वहीँ 
हमारे जैसे कुछ देश हैं जिन्होंने उद्यमिता का रास्ता ही मुश्किलों भरा बना
 दिया, मुश्किल कानून और कानूनी प्रक्रियाएं बना दी, सरकारी नौकरी को बहुत 
आकर्षक बना दिया और नतीजा ये निकला की हर उद्यमी अपने बच्चों को सरकारी 
नौकरी करने के लिए प्रेरित करने लगा और देश में उद्यमिता चौपट हो गयी. देश 
की आर्थिक तरक्की रुक गयी. जीएसटी लागू करने से जीडीपी तो निश्चित रूप से 
बढ़ जायेगी. पर क्या इससे लोगों की खुशहाली में बढ़ोतरी होगी? क्या लोगों में
 ज्यादा आत्मविश्वास और उद्यमिता की भावना होगी - वक्त ही बताएगा. 
तो
 क्या अब सरकार की प्राथमिकता लोगों की खुशहाली और उनमे बढ़ता अपनापन होगा? 
लोगों में आपसी विश्वास, प्रेम, सामाजिक संरचना, सौहार्द और स्वदेशी की 
भावना को बढ़ावा देने के लिए क्या योजना आएगी? ये अफ़सोस की बात है की हर 
उद्यमी आज नवाचार और हुनर की बात भूल गया है सिर्फ और सिर्फ जीएसटी और 
सरकारी नियमों के बारे में सोच रहा है - होना ये चाहिए की वो अपने हुनर पर 
ध्यान देवे, अपने उद्यम में नवाचार लाने पर अपनी पूरी ऊर्जा और संसाधन लगाए
 - और सरकार ये सुनिश्चित करे की उसकी सृजनशीलता और उद्यमिता के रास्ते में
 कोई बाधा नहीं आये. लोगों की खुशहाली में सरकार अपने सारे मकसद हासिल कर 
लेगी लेकिन लोगों को जटिल सरकारी प्रक्रियाओं में फंसा देने से न वो उद्यमी
 बन पाएंगे और न खुस रह पाएंगे. के यानी खुशहाली, ऐस यानी स्वदेशी और टी 
यानी तकनीकी नवाचार - ये ही देश की प्राथमिकता होनी चाहिए अब तो. 
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