Wednesday, December 31, 2014

चलो भारत जश्न मनाएं
 छुपी शक्तियों को जगाएं
आज हर तरफ एक ही बात हो रही है की क्या हम फिर से गौरवशाली भारत को बना सकते हैं जिसके लिए भारत सोने की चिड़िया के रूप में जाना जाता था? क्या हम फिर से भारत के सृजनशील व रचनात्मक पहलु को दुनिया के सामने रख सकते हैं? क्या हम फिर से भारत को ज्ञान व नवाचार के केंद्र के रूप में स्थापित कर सकते हैं? नई सरकार ने हमें सपनों के उड़न खटोलों पर बिठा दिया है. जरुरत है की हम अपने आप को पहचाने और अपनी शक्तियों को फिर से जगाएं. फिर से युवा वर्ग को झकझोरने की जरुरत है. हमें फिर से युवा वर्ग में उद्यमिता, स्व-रोजगार, परिश्रम, नवाचार, व सृजनशीलता के जीवन-मूल्य जगाने पड़ेंगे व पढ़ने, पढ़ाने व संवाद - चर्चा करने की संस्कृति को पुनः स्थापित करना पड़ेगा. भारत हमेशा से सृजनशीलता व रचनात्मकता का केंद्र रहा है. आज अगर फिर से भारत की  (दबी कुचली हुई) सृजनशीलता को जगाया जाये तो भारत फिर से अग्रणी देश बन कर उभर सकता है.
सृजनशीलता सीधे तौर पर उन लोगों से जुडी होती है जो अपने हाथ से कार्य करते हैं. सृजनशीलता दो चीजों का संगम है - 1. परिश्रम, 2.कुछ नया करने की सोच. परिश्रम हर भारत वासी के साथ जुड़ा है. कुछ नया करने की सोच आत्मविश्वास व सकारात्मक पहल पर निर्भर करती है.इसमें कोई दो राय नहीं है की भारतीय लोग अभी आत्मविश्वास व सकारात्मक पहल की कमी से गुजर रहें है.  सृजन शीलता कार्य कर्ताओं का आभूषण है. भारत में गत कई दशकों  से यहाँ के कर्मठ कार्यकर्ताओं को कोई प्रेरक नहीं मिला है. आज फिर से वक्त आ गया है की हम यहाँ के कार्यकर्ताओं को उनका हुनर याद दिलाएं और उनको आत्मविश्वास से भर देवें.
भारत के अनपढ़ गरीब किसान व मजदुर सृजनशीलता की मिसाल हैं. हमें उनके अनपढ़ होने के लिए उनका उपहास करना छोड़ कर उनकी सृजनशीलता के लिए उनका सम्मान करना शुरू करना चाहिए. पीढ़ी दर पीढ़ी ज्ञान को संजो कर रख कर इन लोगों ने हम पर बहुत उपकार किया है. आज जिस तरह से ट्रेडिशनल नॉलेज लुप्त हो रहा है उसी तरह ये लोग भी कल लुप्त हो जायेंगे. आज हमें लोहार, सोनार, ठंठेरे, व कुम्हार मिल जाते हैं. इन लोगों के पास पीढ़ियों से संजोया ज्ञान है तथा एक ऐसी तकनीक है जो पर्यावरण के अनुकूल है. इन लोगों को सम्बल व प्रोत्साहन दिया जाये तो ये लोग अपने आविष्कारों को आगे ल सकते हैं तथा उनका पेटेंट भी करवा सकते हैं. किसानों के पास पीढ़ियों से संजोया हुआ ज्ञान है जिसके सहारे वे बिना आधुनिक खाद या बिना आधुनिक पेस्टिसाइड के अच्छी फसल उगा सकते हैं. उनको पर्यारण व प्रकृति के अनुकूल रह कर कार्य करना आता है. उनको विपरीत परिस्थियों में भी अपने खेतों को बचाना आता है.  उनकी इस कला के लिए उनकी उपेक्षा नहीं बल्कि उनका सम्मान करने की जरुरत है.
पाश्चात्य शिक्षा से निकले हमारे इंजीनियर व वैज्ञानिक आज भी हर अगले कदम के लिए पश्चिम की तरफ देखते हैं. अगर वह डरते डरते पेटेंट ऑफिस पहुँच भी जाता है तो उसको फटकार दिया जाता है और बिचौलों के चक्कर में आकर उसका सारा उत्साह खत्म हो जाता है. वह जिससे भी बात करता है वह उसकी हंसी उडा देता है तथा कह हटा है की पेटेंट या अविष्कार उसके बस की बात नहीं है.  यह उनमे छुपी हीन भावना का परिचायक है. जब पढ़े लिखे विद्वान व प्रोफेस्सर भी पेटेंट करवाने में परेशान हो जाते हैं तो फिर युवा वर्ग से या मजदुर वर्ग से क्या अपेक्षा करें.  विद्यार्थी अक्सर अपने अविष्कार को दर्ज करवाना चाहते है लेकिन उनको प्रोत्साहित करने वाला कोई नहीं होता है. आज फिर से एक नै व्यवस्था की जरुरत है जिसमे युवा वर्ग, विद्यार्थी, मजदुर वर्ग, किसान, कारीगर, तथा लेबोरेटरी में काम करने वाला कार्यकर्त्ता भी अपने अविष्कार दर्ज करवा सके उन पर पेटेंट प्राप्त कर सके व समुचित मार्गदर्शन प्राप्त कर सके. भारत सरकार ने कुछ वर्ष पहले नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन की शुरुआत की थी. यह एक बेहतरीन पहल है. जरुरत है की इससे आम आदमियों को जोड़ना.
स्वरोजगार हमेशा  से भारत के लोगों का स्वाभाव व जीवन का सहारा रहा है. आज की नई शिक्षा के साथ नौकरी के प्रति ललक आ गई है. कुछ वर्षों का नौकरी का अनुभव व्यक्ति को परिपक्व बना देता है. लेकिन आम भारतीय आज भी स्वरोजगार के सपने देखता है. विगत कुछ दशकों से हमारी आर्थिक नीतियां इस प्रकार की रही है की स्वरोजगार करने वाले को चोर व नौकरी करने वाले को सच्चा व्यक्ति मन जाता था. अंग्रेजों ने भारत में आ कर भारतीय लोगों के व्यापर और उद्योगों को ख़त्म करने के लिए ६-७ तरह के टैक्स लगाये. वे टैक्स आज भी बरक़रार है. उन्होंने ऐसे कानून बनाये की व्यापर, उद्योग और स्वरोजगार करना मुश्किल हो जाये, वे कानून आज भी बरक़रार है. शिक्षा व्यवस्था एक ऐसे ढर्रे पर चल रही है की विदेश जाने के लिए व बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करने के लिए प्रोत्साहन है परन्तु स्वरोजगार के लिए नहीं. बड़े व्यापार और उद्योगों के लिए सहारा है लेकिन छोटे व सूक्ष्म उद्योगों के लिए नहीं. आज हम शिक्षा में विद्यार्थिओं को बहुराष्ट्रीय कंपनियों में कार्य करने के लिए तैयार कर रहें हैं न की अपने देश के लिए कार्य करने के लिए.  हर शिक्षण संस्था प्लेसमेंट में आंकड़े बताती है तथा पहले दिन से ही प्लेसमेंट की तयारी शुरू कर देती है. यह प्लेसमेंट और कुछ नहीं बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए तयारी है. इस प्लैमेनेट की प्रोसेस में व्यक्ति अपने देश के लिए कुछ करने के सपने न्योछावर कर देता है. अपने परिवार, अपने समाज व अपने क्षेत्र के विकास के लिए कुछ करना छोटी बात मानी जाती है. सॉफ्ट स्किल ट्रेनर विद्यार्थिओं को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सपनों में ऐसा फंसा देता है की विद्यार्थी दिन रात विदेश के सपने लेने लगता है. संस्कार व सदाचार की शिक्षा तो गायब हो गई है.
ख़ुशी की बात यह है की आज नई सरकार से एक आशा की किरण नजर आ रही है. में अनुरोध करना चाहता हूँ सभी पाठकों से की वे कृपया निम्न के लिए प्रयास करें : -
१. भारत में युवा वर्ग, मजदुर वर्ग, किसान वर्ग को सम्मान के साथ देखा जाये, उनके परिश्रम को सम्मान मिले तथा उनको अपने हुनर के लिए जाना जाये
२. भारतीय शिक्षा व्यवस्था में संस्कार व सदाचार को बल मिले.
३. स्वरोजगार फिर से भारतीय लोगों की पहचान बन जाये. भारतीय लोगों को सरकारी नौकरी से हतोत्साहित कर उद्यमिता के लिए प्रेरित किया जाये. उद्यमिता का नियमित प्रशिक्षण हो तथा उद्यमिता की राह चुनने वाले विद्यार्थियों को ब्याज मुक्त ऋण उपलब्ध करवाया जाये. भारतीय लोगों को सरकारी नौकरी से हतोत्साहित कर उद्यमिता के लिए प्रेरित किया जाये. उद्यमिता का नियमित प्रशिक्षण हो तथा उद्यमिता की राह चुनने वाले विद्यार्थियों को ब्याज मुक्त ऋण उपलब्ध करवाया जाये.
४. शिक्षा में भारतीय परम्पराओं, ट्रेडिशनल नॉलेज, (परंपरागत ज्ञान) को उचित जगह मिले
५. पेटेंट ऑफिस व नए ज़माने की जरूरतों के अनुसार नए ज़माने के ओफ्फिकेस हर जगह हों. 

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