Wednesday, December 31, 2014

MY OLD ARTICLE : -


आईये दीवारें तोड़ें और बर्लिन-वाल तोड़ने  की २५वि वर्षगाँठ मनाएं 

आज से २५ वर्ष पहले यानी ९/११/८९ को जर्मनी के लोगों ने मिल कर बर्लिन दिवार को तोड़ दिया था. यह सिर्फ दिवार तोडना नहीं था, परन्तु आम जनता की इच्छाशक्ति और पहल की प्रतिनिधि घटना थी. आज उसकी २५ वि वर्षगाँठ हैं. यह एक मौका है को फिर से उसी जज्बे को याद किया जाए और मानवता को ट्रस्ट कर रही दीवारों को ध्वस्त करने के लिए कुछ पहल की जाए. तभी हम सच्चे अर्थ में उस असाधारण मानवीय प्रयास को याद कर पाएंगे. जहाँ जहाँ पर भी सरकारें लोगों के बीच दीवारें कड़ी कर के उनके बीच दूरियां पैदा कर रहीं हैं, उन सभी प्रयासों को फिर से देखने की जरुरत है. जहाँ जहाँ पर भी जान-मानस की इच्छा के खिलाफ उनके ऊपर सरकारी नियम और कानून थोपे जा रहें हैं उनको फिर से देखने की जरुरत है. जहाँ जहाँ भी आम व्यक्ति के हितों की सिर्फ कुछ निहित हितों के लिए बलि चढ़ाई जा रही है उसको फिर से देखने की जरुरत है. आईये हम सब मिल कर इन सभी प्रक्रियाओं को देखें और इनको सुधरने और सवांरने के लिए प्रयास करें. आईये आज फिर से मानव निर्मित दीवारों और बाधाओं को हटाने के लिए प्रयास शुरू करें. 

दीवारें जो हम को जकड़े हुए हैं : 
बहुत साड़ी दीवारें हैं लेकिन में यहाँ सिर्फ कुछ गिनी चुनी दीवारों की बात करूँगा. चुकी मैं शिक्षण संस्थाओं से काफी समय से जुड़ा हूँ अतः उनकी दीवारों की भी बात करूँगा. 
देशों के बीच की दीवारें -  वैश्वीकरण के घोर और अनियंत्रित स्वरुप के बावजूद देशों के बीच आज भी दिवारी ज्यों की त्यों हैं. विकसित देश अपने यहाँ  विकासशील देशों से आने वाले लोगों को रोकने के लिए जी जान से लगे हुए हैं. एक तरफ वे बजरी संस्कृति से विकसित देशों को तहस नहस कर रहें हैं और दूसरी तरफ वे विकासशील देशों के युवाओं को आकर्षित कर रहें हैं ताकि उनकी यहाँ के युवा उनकी जरूरतों को पूरी कर सके. देशों के बीच की दीवारें लगातार बढ़ रही है.  

राज्यों के बीच की दीवारें
भारत में अलग अलग राज्यों के बीच की दीवारें मजबूत होती जा रही हैं. एक राज्य से दूसरे राज्य स्थानांतरित होते ही समस्याएं शुरू हो जाती हैं. ये समस्याएं यहाँ के युवाओं को 
तोड़ रही हैं और झकझोर रही है. आज फिर से जरुरी है की हम राज्यों के बीच की दीवारों को फिर से देखें. हो सकता है की इन बाधाओं से राज्यों की आय बढ़ती हो परन्तु हमें लोगों के आपसी तालमेल और सामंजस्य से होने वाले सामजिक और मनोविज्ञानिक फायदों को भी ध्यान में रखना चाहिए. हमको प्रयास करने चाहिए की हमारे युवा राज्यों की संकीर्ण सीमाओं से पर सोच कर देश और पुरे समाज के विकास के लिए प्रयास कर सकें. संचार और सुचना तंत्र के साधनों को आसान और सुगम बनाना पड़ेगा. एक राज्य से दूसरे राज्य के बीच संवाद और आपसी व्यापर को सुगम और किफायती बनाना पड़ेगा. 

जनता और प्रशाशन के बीच की दिवार 
जनता जो चाहती है और सरकार जो कर रही है उस के बीच में बहुत फर्क है. सरकार घोषणा पत्र में कुछ कहती है और हकीकत में कुछ और करती है. जनता की मांग अनसुनी कर दी जाती है. आप देख सकते हैं की ५८ साल बाद भी (राजस्थान ५८ साल पहले नवम्बर महीने में ही बना था) राजस्थानी भाषा को मान्यता नहीं मिली है - राजस्थान की क्षेत्रीय भाषाओँ की तो क्या बात करें. जिस हेतु राजस्थान के लोग इतने वर्षों से प्रयास कर रहें हैं उस के लिए कोई भी कदम नहीं उठाया गया है. कई बार ऐसा होता है की जनता के एक पक्ष की मान दूसरे पक्ष की मांग के विपरीत होती है, तब यह संभव है की सरकार देर करे. परन्तु राजस्थानी भाषा की मान्यता के साथ तो ऐसी कोई बात भी नहीं हैं. 

शिक्षण संस्थाओं के बीच की दीवारें

आज भी अलग अलग शिक्षण संस्थाओं में तालमेल और आपसी सहयोग का आभाव है. इसी के कारण आम विद्यार्थियों को उतना फायदा नहीं मिल पाटा जितना मिलना चाहिए तथा शोध और अनुसांथन में वह प्रगति नहीं हो पाई जो होनी चाहिए. आज भी हमें वही दिक्क्तें आ रहीं हैं जो कल आती थी. विद्यार्थी की लागत भी बढ़ रही है. जरुरत है की शिक्षण संस्थाओं में आपसी तालमेल बढे फिर अन्य संस्थाएं और संगठन भी उसका अनुसरण करें जिससे सबका भला हो. दिल्ली यूनिवर्सिटी ने मेटा यूनिवर्सिटी की बात शुरू की थी जिसमे अलग अलग यूनिवर्सिटी मिल कर श्रेष्ठतम प्रयास करने वाले थे. देखें ऐसे प्रयास आगे कैसे सफल होते हैं और किस प्रकार से प्रभाव स्थापित कर पाते हैं. हमें इस प्रकार के प्रायोसों को प्रोत्साहित करना चाहिए. 

शिक्षण  संस्थाओं की अपनी दीवारें 
आज भी आप को ऐसे विद्यार्थी मिल जाएंगे जो शिक्षण संस्थाओं की दीवारों के शिकार हैं. यानी वे विद्यार्थी पढ़ना चाहते हैं, योग्य हैं, सक्षम हैं, फिर भी शिक्षा से वंचित हैं. कई ऐसे विद्यार्थी हैं जो परिस्थिति के गुलाम हैं, कई विद्यार्थी सब कुछ प्रयास कर के भी खली हाथ लोट जाते हैं. इन सब समस्याओं का समाधान यही है की हमें शिक्षण संस्थाओं में अधिक पारदर्शिता, अधिक खुलापन और अधिक व्यवहारिक सोच की जरुरत है.आज भी बहुत कम शिक्षण संस्थाओं का उद्योगों के साथ अनुबंध है जिस कारण विद्यार्थी को व्यवहारतीक ज्ञान नहीं मिल पाता.  आईये हम सब मिल कर इन दीवारों को गिराने के लिए प्रयास करें. क्या हम सब यह संभव बना पाएंगे की कोई भी विद्यार्थी शिक्षा, संचार, ज्ञान, और अनुभव के अवसरों से वंचित न हो. कोई भी विद्यार्थी सिर्फ हमारी बनायीं हुई दीवारों के कारण शिक्षण व्यवस्था से बहार न निकला जाये. कोई भी विद्यार्थी अपने सपनो को संजोने के लिए मानव-कृत दीवारों के आगे नत मस्तक न हो और उसको ज्ञान, समझ, शिक्षा, और परामर्श के विकल्प हर पल मिलते रहें. 

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