Wednesday, December 31, 2014

दिए और तूफ़ान की लड़ाई : अपने अंदर के दिए (वैज्ञानिक) को बचाइये
लेखन और तकनीक हमारे जीवन का वैसे ही हिस्सा हैं जैसे भोजन और नींद. हम सभी तकनीक को अपनाते हैं, आविष्कार करते हैं और भूल जाते हैंजहाँ जहाँ पर भी विज्ञानं और तकनीक की उपेक्षा होती है, वहां वहां पर  प्रगति रुक जाती है. जहाँ जहाँ पर भी वैज्ञानिकों और आविष्कारकों को सम्मान नहीं दिया जाता है, वहां वहां पर नए आविष्कार रुक जाते हैं. आज फिर से समय की पुकार है की हम विज्ञानं और तकनीक के क्षेत्र में कुछ नया करें.
भयंकर चुनौतियां हमें बड़े आविष्कार करने के लिए मजबूर कर देती है. मुश्किलें हमारे अंदर छुपे  महा -मानव को जन्म दे देती हैं. जहाँ जहाँ पर भी हमारा तिरस्कार होता है, वहां वहां हमें एक अद्भुत कार्य करने की सोच मिल जाती है. समस्या यह नहीं है की हम क्या कर सकते हैं, समस्या हमें कार्य करने से रोकने वालों की है.और ये रोकने वाले हमारे अपने भाई ही हैं. 
जब में बहुत छोटा था तब मैं जब भी बीमार पड़ता था तो मेरे पिताजी मुझ को लिछु महाराज के पास ले जाय करते थे. उनका ज्ञान अद्भुत था. वे हाथ पर हाथ रखते थे और बता देते थे की क्या खाया है और क्या गड़बड़ हुआ है. फिर वे छोटी छोटी गोलियां बना कर देते थे. उनकी गोलियों का भी बड़ा नाम था. वे फीस भी नहीं लेते थे. कभी कभार हम उनको उनकी दवाई बनाने में काम आने वाली सामग्री प्रदान कर देते थे. उन गोलियों की वजह से मुझे आज तक तंदुरुस्ती नसीब है. लिछु महाराज आज नहीं हैं लेकिन मैं उनके हुनर को सलाम करता हूँ. उनको उनकी शोध और नवाचार के लिए कभी सरकारी सहयोग नहीं मिला. उलटे सरकारी महकमे की तरफ से रोज विज्ञापन जारी होता रहा - नाड़ी वैद्यों से सावधान. लिछु महाराज के जैसे अनेक उम्दा वैद्य इस देश में सरकारी असहयोग के बावजूद स्वास्थ्य लाभ देते रहें हैं. उन्होंने पूरी जिंदगी स्वास्थ्य चेतना को समर्पित कर दी थी. क्या यह देश इन लोगों का नहीं है? क्या यह देश इसी देश में वर्षों से चली आ रही ज्ञान और शोध की समृद्ध परम्पराओं को संरक्षित और विकसित करने में असमर्थ है?
एक वरिष्ठ पत्रकार ने मुझसे पूछा की देश को क्या चाहिए "रॉकेट साइंटिस्ट्स या कुम्हार". मैं कुछ जवाब नहीं दे पाया क्योंकि इसी बीच उन्होंने नया प्रश्न पूछ लिया. जवाब तो आज आप सबको दूंगा. देश को कुम्हार की रॉकेट साइंटिस्ट्स से ज्यादा जरुरत है. अगर आप कुम्हार को वैज्ञानिक नहीं मानते हैं तो फिर आप भूल कर रहें हैं. ये वे वैज्ञानिक हैं जो आज नहीं वर्षों से भारत भूमि पर कार्य कर रहें वे भी बिना सरकारी सहायता के या सरकारी पेंसन के. क्या कोई वैज्ञानिक बिना सरकारी सहायता के कार्य कर सकता है? अगर कुम्हार को मदद दी जाती तो शायद रेफ्रिजरेटर नमक उत्पाद की जरुरत ही नहीं पड़ती और पर्यावरण को हो रहा नुक्सान बच जाता. कुम्हार को डिज़ाइन, मार्केटिंग और  नवाचार का  प्रशिक्षण दिया जाता तो शायद लोगों की पेट सम्बन्धी सभी समस्याएं छू मंतर हो जाती. परन्तु हम उसको वैज्ञानिक मानने को तैयार नहीं हैं.
आज आम भारतीय वैज्ञानिक विदेशी जर्नल (पत्रिका) में अपने लेख छपवाने के लिए दिन रात परिश्रम करता है और लेख छप जाने पर खुश हो जाता है और उसको सरकारी व्यवश्था से भी फायदा मिलता  है. लेकिन वही वैज्ञानिक अपने पड़ोस में निकलने वाले अखबार में अपना लेख लिखने की कोशिश नहीं करता - जिसका फायदा  उसके गाव और शहर के लोगों को ज्यादा मिल सकता है. हम किस के लिए काम कर रहें हैं? क्या भारत का वैज्ञानिक आम भारत वासी   के लिए काम कर रहा है या फिर विदेशी जर्नल के लिए काम कर रहा है? आज इस प्रश्न  का उत्तर देने को कोई वैज्ञानिक तैयार नहीं है. एक वैज्ञानिक के बायोडाटा देखेंगे तो पाएंगे की अंग्रेजी में उसने सैकड़ों शोध पत्र प्रकाशित किये हैं (जो विदेशों में प्रकाशित हुए हैं) परन्तु स्वदेशी पत्रिकाओं में अपनी मातृ भाषा में उसका एक भी पत्र (लेख) प्रकाशित नहीं हुआ है. उसको  UGC   भी सम्मानित करती है. जो लोग आम भारतीय के विकास के लिए के लिए काम कर रहें हैं उनको    UGC  भी नजरअंदाज कर रही है.  हमारी सरकारी व्यवस्थाएं आज भी गुलामी के दौर में हैं.
हमारी यूनिवर्सिटी में शैलेश तिवारी और उसके कुछ साथी हमेशा कुछ नया सोचते रहते हैं. जब उनको प्रक्टिकल प्रोजेक्ट्स का मौका मिला तब उन्होंने लार्सन & टूब्रो कंपनी में अपने प्रोजेक्ट के दौरान पिजो इलेक्ट्रिक रोड बनाने की वकालात की. एक किलोमीटर की रोड को बनाने में १००करोद की लागत आणि थी परन्तु यह सड़क ३० साल तक लगभग १० से  २० करोड़ की बिजली हर साल बना सकती है. एक ऐसा प्रयोग जिससे एक नयी शुरुआत हो सकती है.  वे रेलवे में प्रयोग होते वाले पल पर सीढ़ियों में ऐसा संयंत्र लगाना चाहते हैं जिससे रेलवे को बिजली चलती रहे (लोगों के चलने से सीढ़ियों पर जो भर पड़ेगा उससे बिजली पैदा होगी). शैलेश और उसके दोस्त आज कल एक नया प्रोजेक्ट सोच रहें है. कांच का फालतू टुकड़ा सीमेंट  बना सकता है. कांच बनाने वाली हर कम्पनी में कुछ वास्ते होता है जिससे सीमेंट  बनायीं जा जसकती है. सीमेंट  का यह फर्नेस रेल की इंजन में फिट किया जा सकता है. और इस प्रकार निशुल्क में सीमेंट  बन सकती है. जब तक रेल का इंजिन एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन जक जाएगा तब तक पांच टन सीमेंट तैयार हो जायेगी. इस सीमेंट की क्षमता भी v  सामान्य सीमेंट से काफी ज्यादा होगी. शैलेश जैसे बहुत लड़के हैं जो सिर्फ जुनिनि हैं. कुछ नया करना ही इनका मकसद होता है. ये लोग नौकरशाही की व्यवस्थाओं से ग्रांट नहीं ले सकते और अपने शोध को अंजाम नहीं दे सकते हैं. तकनीक के आविष्कारकों को आप नौकरशाही के व्यूहचक्र से ख़त्म कर रहें हैं.
अँधा बांटे रेवड़ियां  - मूड़ मूड़ अपनों को दे जाए
कोई भी ग्रांट या सरकारी सहायता देते समय यह देखा जाता है की फलां व्यक्ति की डिग्री क्या है? फलां व्यक्ति किस संस्था में काम कर रहा है? इस नजरिये को बदलने की जरुरत है. सवाल यह होना चाहिए की फलां व्यक्ति नयी तकनीक को विकसित कर पायेगा या नहीं? फलां व्यक्ति नयी तकनीक को विकसित कर के कब दे देगा? नयी तकनीक को कब तक बाजार में उतारा जा सकेगा? नयी तकनीक से कितने लोगों को फायदा मिलेगा? नयी तकनीक की कितनी मांग होगी? नही तकनीक से उत्पादन में फायदा कैसे होगा? नयी तकनीक से विकास को गति कैसे मिलेगी? नयी तकनीक से आम आदमी कैसे लाभान्वित हो पाएंगे? जो भी सरकारी बिभाग हों, उनको तकनीक विकसित करने के लिए ही ग्रांट देनी चाहिए और उस तकनीक के बाजार में उतरने के लिए भी प्रयास करना चाहिए.
नवाचारी व्यक्ति अक्सर नौकरशाही में  दक्ष नहीं होते हैं. अगर आप उनको नौकरशाही के पेचों में फंसा देंगे तो वे कुछ भी नहीं कर पाएंगे. वैसे भी भारत में नौकरशाही बहुत ज्यादा हावी है. जो लोग नौकरशाही में दक्ष हैं और  येन केन प्रकरेण नौकरशाही से  ग्रांट्स लेना जानते हैं, वे नवाचार और शोध में दक्ष नहीं होते हैं. आज के समय में जब देश फिर से विकास की करवट लेना छह रहा है, तो जरुरत है की सरकारी तंत्र और कार्य व्यवस्था में आमूल चूल परिवर्तन हों
आप विज्ञानं और तकनीक विभाग की वेबसाइट को देखिये जिसमे आप को पता चलेगा की किन किन प्रोजेक्ट्स को सरकार ने वित्तीय सहायता दी है. आप पाएंगे की एक भी कुम्हार को सहायता नहीं दी गयी है. जिन को सहायता दी गयी हैं उनका एक भी प्रोजेक्ट मार्किट में नहीं आया है और एक भी प्रोजेक्ट से आम जनता को फायदा नहीं मिला है.उनको फिर से एक और प्रोजेक्ट के लिए पैसा मिल जाता है और वे फिर ग्रांट लेने में कामयाब हो जाते हैं. उनसे कोई यह नहीं पूछता है की पिछले प्रोजेक्ट को मार्किट में कब उतारेंगे. उनको फिर से एक और प्रोजेक्ट के लिए पैसा मिल जाता है और वे फिर ग्रांट लेने में कामयाब हो जाते हैं. उनसे कोई यह नहीं पूछता है की पिछले प्रोजेक्ट को मार्किट में कब उतारेंगे. 
जिन प्रोजेक्ट्स से जनता को फायदा मिला है वे सभी वे हैं जो जनता ने अपने खून पसीने की कमाई से सींचे हैं या उद्यमियों ने अपने पैसों से बनाये हैं. यानी एक तरफ जनता का पैसा लुटाया जा रहा है दूसरी तरफ जनता नवाचार करने के लिए व्याकुल है. लेकिन इसके कुछ अपवाद भी हैं. भारत सरकार द्वारा ही स्थापित नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन के द्वारा सहयोग ले कर अनेक नवाचार करने वाले लोग आज उद्यमी बन गएँ हैं और उनके नवाचार आज जनता की भलाई कर रहें है. आप को जान कर सुखद आश्चर्य होगा की नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन के ये वैज्ञानिक कोई डीग्री धारक नहीं बल्कि मेकेनिक या किसान या भारत भूमि की कारीगर हैं. इनको अपने आविष्कारों को दिखने और पेटेंट करवाने का मौका मिल रहा है यही सच्ची आजादी है.  नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन और हनी बी नेटवर्क ने लगभग ७०००० से ज्यादा आविष्कार के बारे में जानकारी इकठा की है - और ये सभी आविष्कार भारत के गली कूंचों से भारतीय कारीगरों के द्वारा किये गए हैं न की विज्ञानं और गकनीकी विभाग द्वारा प्रायोजित शोध कार्यक्रमों के द्वारा. जरा देखिये इन शोध के बारे में आप भी : बिहार के मोहम्मद सैदुल्लाह ने एक ऐसी साईकिल बनाई जिसको आप सड़क पर भी चला सकते हैं और पानी पर भी. बिहार के ही संदीप कुमार ने एक फोल्डिंग साइकिल बनायीं जिसको आप जब चाहे मोड़ कर अपने साथ बेग में डाल कर ले जा सकते हैं. बिहार के ही ग़ुलाम रसूल ने एक सोलर साइकिल का निर्माण किया जिसमे सोलर से चलने वाली बैटरी और टोर्च भी साथ में है. बिहार के ही मोहम्मद राजदीन ने कूकर को बदल कर के उसको एक्सप्रेसो कोफ़ी बनाने की मशीन में तब्दील कर दिया. बंगाल के नसीरुद्दीन ने एक ऐसा मोटर पम्प बनाया है जो पानी निकालने के लिए बिना बिजली के काम करता है. उसमे एक साइकिल फिट है जिसको चलने से पानी निकलता है. यह किसानों के बहुत काम का उत्पाद है. बंगाल के ही अरिन्दम ने एक ऐसा पेन बनाया है जिसको सिर्फ एक अंगुली से काम में लिया जा सकता है. किसी भी व्यक्ति जिसके हाथ में चोट हो या अंगुलियां काम नहीं कर रही हो, इस को काम में ले सकता है. बंगाल के ही बप्पी रॉय ने एक ऐसा टी वि  (Television) बनाया है जिसको आप चारों तरफ से देख सकते हैं. यानी इस टी वि (Television) को घर के आँगन के बीच में लगाओ तो सब तरफ बैठ कर लोग देख सकते हैं. बंगाल के ही पुलक ने एक ऐसी मशीन बनायीं है जिस का उपयोग पेशाब घर को साफ़ करने में किया जा सकता है. कोई बिजली नहीं चाहिए कोई औजार नहीं चाहिए. यह मशीन अपने आप काम करती है.
कल तक भारतीय किसानों को जो पुराने और खराब तकनीक वाले बताते थे, वे ही आज गोबर खाद की वकालात कर रहें हैं और आर्गेनिक फार्मिंग को श्रेष्ठ कृषि बता रहें हैं. कृषि का उनका तरीका भारतीय किसानों ने अपना लिया और भारतीय किसानों के तरीके को वे ओर्गानिक कृषि के नाम से पूरी दुनिया में बेच रहें हैं. कल तक भारतीय ज्योतिषियों को बेवकूफ बताने वाले आज भारतीय ज्योतिष को सीख कर उससे तारों की गति को मापने की कोशिश कर रहें हैं. कल तक भारतीय गृहणियों को तिरस्कार   से  देखने वाले आज भारतीय व्यंजन की अच्छाइयों को समझ रहें हैं और उसको सीखने का प्रयास कर रहें हैं.
मेरी पूरी चर्चा से निम्न बातें अगर आप को ठीक लगे तो आगे बढाइये  : -
·        आप हम सब के अंदर एक वैज्ञानिक छुपा हुआ है. अपने अंदर के वैज्ञानिक को मरने मत दीजिये
·        वैज्ञानिक की डिग्री नहीं उसके आविष्कार तय करे की वह कैसा वैज्ञानिक है
·        इस भारत भूमि पर वर्षों से चल रही ज्ञान और तकनीक की परम्पराओं को तिरस्कार नहीं आप का सम्मान चाहिए. यह आपकी परंपरागत धरोहर है, जो कभी भीलुप्त हो सकती है.
·        सरकारी महकमों की कार्य व्यवस्था में बदलाव के लिए आवाज उठायें. आज विज्ञानं और तकनीक विभाग हमारा अपना है इसको तो भारतीय  परंपरागत ज्ञान को सम्बल देना ही चाहिए
·        ग्रांटोलॉजी  के खिलाफ आवाज उढ़ाईये - बन्दर बाँट की जगह आविष्कार के लिए ग्रांट हो तो इस देश में आविष्कारों की झड़ी लग जायेगी

No comments:

Post a Comment