दुनिया के भविष्य के लिए बड़ा महत्वपूर्ण होगा २०१५
वो कहते हैं की हर तरफ रौशनी होगी
इस जहाँ में हर तरफ अमन की जिंदगी होगी
अँधेरे और गर्द में डूबे लोगों के लिए
नए साल में कुछ नयी शुरुआत होगी.
जिन्हें नहीं पता दिन रात का फर्क
उनकी झोली में भी खुशियां होगी
ना उम्मीद मत हो बुजदिल मेरे
जहाँ बुझ गए है लौ जलने वाले
वहां भी कोई चिंगारी होगी
जब वो ख रहे हैं जश्न मानलो
भूल कर गम, तुम भी एक बार मुस्कुरादो
रह रह कर पूछता है आज वो मुझ से
हँसते रहे हो हमेशा दूसरों के लिए
क्या वो उधार में एक दिया देंगे
या ये रौशनी भी एक छलावा होगी
कुछ खास है अगला साल
वर्ष २०१५ तो यूनाइटेड नेशंस द्वारा रौशनी के लिए अंतरराष्ट्रीय वर्ष के रूप में मनाया जाएगा. रौशनी यानी शिक्षा, विकास, स्वास्थ्य, और ऊर्जा के क्षेत्र में एक उम्मीद की किरण. रौशनी यानी उन घरों में जहाँ आज भी बिजली नहीं हैं - एक उम्मीद की किरण. रौशनी यानी पूरी दुनिया में विकास की एक नयी पहल. इसी के साथ २०१५ को "सतत विकास के लिए जैव विविधता" के वर्ष के रूप में भी मनाया जाएगा. वर्ष २०१५ में यूनाइटेड नेशंस की तीन शीर्ष समितियों की बैठक होगी. इन बैठकों में पयावरण संरक्षण व् विकास व् इनसे जुड़े मुद्दों के लिए बजट के प्रावधान और भावी रण- नीति तय होगी.
क्या वाकई में है रौशनी?
वर्ष २०१५ भले ही रौशनी का साल हो लेकिन क्या अधिकांश विश्व के लिए इस रौशनी की जगमगाहट पहुँच पाएगी यह तो समय ही बताएगा. विश्व की औसतन आधी जनसँख्या २.५ डॉलर प्रतिदिन से भी कम कमा पाती है. यानी ये लोग एक आदर्श जीवनस्तर और शिक्षा, स्वास्थ्य, और विकास के आदर्शों से बहुत दूर हैं. इनके लिए हम किस रौशनी की बात कर रहे हैं? जहाँ पर लोग सिर्फ भुखमरी और बेकारी के कारण जिंदगी गवा देते हैं - वहां हम रौशनी से क्या मायने रखते हैं?
"घर सजाने का तसब्बुर तो बहुत बाद का है ,
पहले यह तय हो के इस घर को बचाये कैसे ",
खतरे की घंटियां
ऐसा अनुमान है की इस शताब्दी के अंत तक धरती का तापमान औसतन ४ डिग्री या ज्यादा बढ़ जाएगा. यह बहुत खतरनाक होगा. यूनाइटेड नेशंस और सभी संस्थाएं चाहती है की तापमान में बढ़ोतरी किसी भी सूरत में २ डिग्री से ज्यादा न हो. इसके लिए हमें तकनीक में आमूलचूल बदलाव करना पड़ेगा. हमें पेट्रोल डीजल और कोयले की जगह सावर ऊर्जा और पवन ऊर्जा को बढ़ावा देना पड़ेगा. नयी तकनीक का विकास तभी संभव होगा जब हम उसके लिए तकनीक और संसाधनों में निवेश के लिए तैयार हो जाएँ. आज विकसित देश पर्यावरण को सबसे ज्यादा नुक्सान पहुंचा रहे हैं और धरती को सबसे ज्यादा खतरा उनके द्वारा किये जा रहे कार्बन उतसर्जन से है लेकिन विनाश का सबसे ज्यादा भार गरीब देशों पर होगा - खास कर उन देशों पर जो समुद्र के किनारे हैं या टापुओं पर बसे हैं. विकासशील देश नयी तकनीक के विकास के लिए पर्याप्त संसाधन न होने के कारण परेशान हैं. पर्यावरण की चुनौतियों के कारन विकासशील देशों को बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा लेकिन इस हेतु उनको पर्याप्त आर्थिक सहायता भी नहीं मिल रही है.
आगे कुॅआ पीछे खाई
अल्प विकसित देशों की परम्पराएँ आम तौर पर पर्यावरण के साथ तालमेल की होती है. जितनी पिछड़ी जान-जातियां होती हैं - वे उतनी ही प्रकृति के अनुकूल जीवन जीती हैं अतः पर्यावरण के सहयोगी होते हैं. विकास की तथाकथित दौड़ में सभी देश आज विकसित देशों की देखादेखी कर रहे हैं. यह रास्ता विकाश नहीं बल्कि विनाश की तरफ ले जाता है. लेकिन यह एकतरफा रास्ता है जिसमे वापसी का कोई विकल्प नहीं है. जब विनाश निश्चित नजर आ रहा है तो भी आप कुछ नहीं कर सकते हैं. विकसित देशों की इस नक़ल के साथ विकासशील देश अपने गौयवमयी अतीत से विमुख होते जा रहे हैं. उनके पास वर्षों की संजोयी समृद्ध परम्परागत ज्ञान की जो पूंजी थी उसे भी वे गवा बैठे हैं और उनके पास आज कोई भी रौशनी नहीं है.
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