Tuesday, December 30, 2014

स्वतंत्र भारत  के निर्माताओं  - शुरू करो  एक नयी उड़ान 
अब आजादी पाना बहुत आसान है, क्योंकि अब आजादी हमें किसी विदेशी से नहीं, अपने ही भाइयों से चाहिए. आज गुलामी के अवशेष मौजूद हैं, लेकिन आज हर व्यक्ति गुलाम है, कोई शोषक नहीं. गुलाम व्यक्ति को आजादी का हल्का सा स्पंदन मात्र ही रोमांच से भर देगा. आज फिर से देश को रोमांचित करने की जरुरत है. 
"हम लाएं हैं तूफान से कश्ती निकाल के, मेरे देश के बच्चों इसे रखना संभाल  के..." 
आज हर व्यक्ति में हीन भावना, नफरत और भय भरा हुआ है. ३०० वर्षों के गुलामी के संस्कार अभी भी हमें परेशान कर रहें हैं. यह गुलामी के संस्कार ही हैं की आज हमारे देश में कदम कदम पर चलते समय डर लगता है, इस डर को आप सभी महसूस करते हैं. यही लेख जो आप पढ़ रहें हैं, वह किसी विदेशी का लिखा होता तो शायद बहुत सारे लोग इसको पढ़ते और उसका उद्धरण भी देते. लेकिन ख़ुशी है की इस गुलाम देश में आप जैसे लोग भी हैं जो भारतीय व्यक्तियों को भी उतनी ही तबज्जु दे रहें हैं जितनी विदेशी लोगों को दी जाती हैं (तभी तो आप मेरा लेख पढ़ रहें हैं) 
आम लोगों को भ्रांतियां और भ्रामक धारणाएं गुलाम बना रही है. कुछ (सात भ्रांतियां ) भ्रम यहाँ वर्णित हैं : - 
1. विद्यार्थी आज वैसे नहीं हैं जैसे पहले थे 
हमारे विश्वविद्यालय के कुछ विद्यार्थियों ने सोलर कार  बनायीं है. यह कार बिना डीजल, बिना पेट्रोल, बिना अन्य किसी प्रकार के ईंधन के चलती है. अपने आप में अद्भुत है.कार को बनाने में विद्यार्थियों को किसी ऑटोमोबाइल कंपनी ने मदद नहीं की बल्कि हमारे ही विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर पी  बी एल चोरसिया ने नवाचार के द्वारा सीमित साधनों से यह कार बनवायी.  यही कार किसी अमेरिकी विस्वविद्यालय ने बनायीं होती तो पूरी दुनिया में उसकी खबर होती. हमारे अखबार भी उस खबर को छापते. परन्तु चूँकि हमारे  ही लाल ने यह अविष्कार है तो शायद यह खबर राष्ट्रिय अख़बारों को न छू पाये . जब उन विद्यार्थियों से मैंने बात की तो मैं हैरान रह गया. पूरी दुनिया में बिकने वाली सभी कारों के बारे में इन विद्यार्थियों को इतना ज्ञान है और एक एक तकनीकी बारीकी को वे इतना समझते हैं की आप भी हैरान रह जाएंगे. ऐसी ही बातें आप को अधिकांश विद्यार्थियों में मिलेगी. आज का हर विद्यार्थी तकनीक में रूचि रखता है और आप उससे आधुनिक तकनीक और आधुनिक उपकरणों के बारे में बात करिये, आप हैरान रह जाएंगे. 
2. विद्यार्थी आज परिश्रम नहीं करते 
मेरे देश के गावों के विद्यार्थी किसी भी अन्य देश के विद्यार्थियों से काम नहीं हैं. वे परिश्रम में कभी भी पीछे नहीं रहते हैं. ये ही वे विद्यार्थी हैं जो देखा देखि में कम्पीटीशन की तैयारी करते हैं, विदेशी भाषा सीखता हैं, और रोज १०-१० घंटे पढ़ कर के प्रतियोगी परीक्षा देता है, वह भी घर की जिम्मेदारियों के साथ. जब विद्यार्थी अपने शिक्षण संस्थान में जाता है तो उसको यह भी बताया जाता है की इस पढाई का उसके जीवन में कोई उपयोग नहीं है और यह डिग्री उसको सिर्फ सरकारी नौकरी के लिए ही मदद देगी. फिर भी वह अपने सपनों को ताक पर रख कर पढाई करता है और दिल मसोस कर अपने गाँव और अपने शहर को छोड़ देता है. अगर वह अपने गावं और शहर को नहीं छोड़ता, तो लोग ही उसको परेशान कर देते हैं यह पूछ पूछ कर की क्यों नहीं जाता 
3. अपने गाँव और अपने शहर में क्या रखा है, पैतृक  धंधे बेकार हैं
 अपने गावं और अपने शहर में रह कर हर विद्यार्थी अपना सुन्दर भविष्य बना सकता है और अपने शहर के विकास में योगदान दे सकता है. अपने शहर में अपने पैतृक धंधे को नयी उंचाईयों पर ले जा सकता है. लेकिन उसको शुरू से ही हम यह कहते हैं की प्रगति करनी है तो बड़े शहर जाना पड़ेगा, शहर छोड़ना पड़ेगा. प्रोफेशनल बनना पड़ेगा. 
4. तरक्की का भ्रम और माया जाल और फायदा उठाते नवाचारी 
लोगों में भ्रम है की ज्यादा दिखावा करने से ही उनकी तरक्की होगी. लोगों को लग रहा है की ज्यादा खर्च करने से ही उनका सम्मान होगा. जहाँ पिछले ज़माने में लोग बचत को एक अच्छी आदत मानते थे, आज उसे कंजूसी कहा जा रहा है और दुगुना तिगुना खर्च कर के वह वाही लूटने के सपने देखे जा रहे हैं. आज कल फिजूलखर्ची का फैशन बढ़ रहा है लेकिन जरुरत के समय पैसे ही नहीं होते. आडम्बर और पार्टियों पर उड़ाने  के लिए करोड़ों है, परन्तु शिक्षा, स्वास्थ्य, और मौलिक जरूरतों के लिए पैसा ही नहीं है. मेरे एक विद्यार्थी ने इस बढ़ते सामजिक विद्रूप में भी एक अवसर ढूंढने का प्रयास किया. उसने देखा की लोग शादियों, पार्टियों और इस प्रकार के आयोजनों पर बेतहाशा खर्च करने को तैयार हैं. जब वह हमारी यूनिवर्सिटी में BBA कर रहा था, तब उसने इस के लिए अध्ययन किया. कुछ तैयारी BBA की पढाई के दौरान ही कर ली. जैसे ही BBA पूरा हुआ, उसने अपनी एक इवेंट मैनेजमेंट कंपनी शुरू की. जयपुर की कई पांच सितारा होटलों से संपर्क किया. आज उसके पास बहुत कार्य है. वह डेस्टिनेशन वेडिंग, बर्थडे पार्टी, आदि के कार्य करवाता है और इस हेतु उसको बहुत सारे ऑर्डर्स मिल जाते हैं. यूँ तो लोगों के पास पैसे नहीं होते हैं, परन्तु दिखावा करने के लिए वे करोड़ों खर्च करने को तैयार हो जाते हैं. 
5. डिग्री ही सब कुछ है.  
आज हम सब में डिग्री की लालसे बढ़ रही है. हम यह भूल रहें हैं की डिग्री तो एक प्रमाण है की हम ने कुछ सीखा है. लेकिन हमें तो सिर्फ डिग्री चाहिए, आज के समाज में सिर्फ डिग्री की कीमत है. विद्यार्थियों को पहले दिन से ही लोग यह सीखा देते हैं की तुम तो डिग्री ले आओ नौकरी हम दिल देंगे (किसी न किसी जान पहचान से). एक व्यापारी के पास एक व्यक्ति नौकरी के लिए गया, उस व्यक्ति ने कहा की उसके MBA किया हुआ है. व्यापारी ने पूछा "तुम मेरे व्यापर को बढ़ने में कैसे मदद करोगे?" डिग्री का महत्त्व कम करके, योग्यता और कार्य-अनुभव का महत्त्व ज्यादा होना चाहिए. स्कूलों में सालाना परीक्षा का महत्त्व कम कर के विद्यार्थियों की  नाटक, वाद-विवाद, पुस्तक चर्चा, भाषण प्रतियोगिता, समूह कार्य, सामाजिक कार्य, फिल्म-मेकिंग, खेल-कूद आदि में भागीदारी बढ़ानी चाहिए तथा इस भागीदारी का भी सतत मूल्याङ्कन में हिस्सा होना चाहिए. आज केविद्यार्थी   अपने मोबाइल   से भी खूबसूरत   फिल्म बना  सकते हैं, जिसके  लिए उनको  सम्मानित  किया जाना   चाहिए. २००३-४ में एक विदेशी  युवती ने कलकत्ता में बहुत कम बजट से एक फिल्म बनायी "बोर्न ईंटो ब्रॉथेल्स" और उसको ऑस्कर अवार्ड मिल गया.  उसी पिक्चर के कथानक में गरीब बच्चों को फोटोग्राफी सीखते हुए  बताया गया है. यह सच  है की आज के विद्यार्थी नयी तकनीक सीखने में बहुत होशियार हैं. तो क्यों न इनको हर क्षेत्र में नयी नयी तकनीक सिखाएं. शिक्षा में हम जो पढ़ा रहें हैं उस पर भी मंथन करें. 
6. एक नए इन्स्पेक्टर राज का उदय 
एक सेठ ने एक फैक्टरी लगायी. उसमे कुछ कर्मचारियों को नियुक्त किया. वे ही कर्मचारी सब कुछ चलाते थे बिना किसी सुपरवाइज़र के. न कोई सुपरविसर, न कोई ऑडिटर, न कोई इंस्पेक्टर और सेठ भी उनके साथ कंधे से कंधे मिला कर काम करता था. काम बहुत बढ़ गया. सेठ विदेश  गया और वहां देखा की फैक्टरियों में काम करने वालों पर उच्च अधिकारीयों द्वारा प्रबंध किया जाता है. उसको वहां के प्रबंधकों ने प्रबंध की महिमा बताई. सेठ ने आ कर तुरंत प्रबंधक नियुक्त कर लिए. फिर प्रबंधकों की मांग पर कुछ सुपरवाइज़र नियुक्त किये. फिर उनकी मांग  पर कुछ और ऑफिसर नियुक्त किये, फिर इन सब पर निगरानी करने के लिए कुछ ऑडिटर नियुक्त किये. फिर थोड़े समय में फैक्टरी की उत्पादकता काम हो गई. फैक्टरी बंद करने की नौबत  आ गई. जब सेठ ने पूछा तो सबने कहा की कर्मचारी काम नहीं करते हैं, बाकी सब अधिकारी तो काम करते ही हैं. सेठ को समझ आया की उसने फैक्ट्री में काम करने वाला कोई नहीं रखा, सब हुकुम चलने वाले रख लिए. फैक्ट्री की उत्पादकता और सफलता तो काम करने वाले लोगों से ही होनी थी. यही फैशन आज पुरे देश में चल पड़ा है. हर जगह अधिकारी हैं, काम करने वाला कोई नहीं बचा. जोधपुर में एक नए पुलिस विस्वविद्यालय की शुरुआत हुई है. मेने कई विद्यार्थियों को इसके बारे में बताया और उनसे कहा की आप ये कोर्स कर के तुरंत सरकारी नौकरी पा  जावोगे (क्योंकि सरकार पुलिस, मिलिट्री, और इन्सपेकर्स की नियुक्ति हर साल करती है). परन्तु मुझे एक टीस सी हुई. कई बार ऐसा होता है की जो चीज एक व्यक्ति के लिए अच्छी है वह पुरे राष्ट्र के लिए अच्छी नहीं होती.  दरअसल हमारे देश को अब फिर से परिश्रमी लोग चाहिए जो खुद उत्पादन व्  सृजनशील कार्य करें, शोध करें, नवाचार करें.  हमें हकीकत में अधिकारी, इन्स्पेक्टर, और ऑडिटर नहीं कर्मठ कार्यकर्त्ता चाहिए. 
7. पहल मैं ही क्यों करूँ, इससे मुझे क्या मिलेंगे 
एक छोटा लड़का एक समुद्र के किनारे खड़ा था. वहां पर लहरों के साथ मछलियाँ जमीन पर आ जाती थी और फिर जब पानी नीचे चला जाता, तो वे तड़पड़ाती थी. वह लड़का उन मछलियों को उठा कर फिर से पानी में फेंक देता था. एक आदमी ने उससे कहा "हजारों मछलियाँ ऐसे ही मरती हैं, तुम किस किस की मदद करोगे. क्या फर्क पड़ता है तुम्हारे काम से".  लड़के ने एक  तड़पती हुई मछली को उठाया और बोला बोला "मेरे काम से इस दुनिया पर या समुद्र पर कोई फर्क नहीं पड़ता, परन्तु इसकी जिंदगी पर पड़ता है."  यही जिंदगी का नियम है . आप क्या कर सकते हैं, यह इस बात पर निर्भर है की आप क्या सोचते हैं.   हमारी शिक्षा व्यवस्था बनाती  है हमारी सोच. तो घूम फिर कर सारी  समस्या का समाधान तो शिक्षा व्यवस्था से ही होना है. कहीं पर भी कोई कमी होती है, तो हम पहल करने से कतराते हैं. हम यह पूछते हैं, इससे मुझे क्या मिलेगा? मैं ही क्यों पहल करूँ. अंग्रेजों के ज़माने में अंग्रेजों को नुक्सान पहुँचाने के लिए हड़ताल, असहयोग, बहिष्कार  आदि साधन उपयोग में लाये जाते थे. हम जानते थे की सारी फैक्टरियां अंग्रेजों की थी अतः उनकी रख-रखाव में हम अपना मन नहीं लगाते थे. अंग्रेज चले गए, परन्तु हम अपनी आदतें नहीं भूले. आज भी हम हड़ताल, असहयोग का वैसे ही इस्तेमाल कर रहें हैं जैसे अंग्रेजों के समय में करते थे. अब तो अंग्रेजों की जगह पर हमारे भाई ही कार्य कर रहें हैं, लेकिन गुलामी की मानसिकता हमें जकड़े हुए है.
कैसे तोड़ें यह कुचक्र? 
आज के समय में उपर्यक्त भ्रांतियों में जकड़े भारतीय लोगों को फिर से आजाद करने के लिए कोई बोहत बड़े काम की नहीं छोटे छोटे नवाचारों की जरुरत है, जिसको आप हम सभी कर सकते हैं और अपने मन में पनप रहे इस भारत वर्ष को हमारी थोड़ी सी पुष्पांजलि अर्पित कर सकते हैं. 
व्यक्तिगत  प्रशिक्षण की जरुरत  
शिक्षा का आज का हमारा ढांचा फैक्टरी मॉडल पर आधारित है, जहाँ खूब सारे विद्यार्थी एक साथ व्याख्यान सुनते हैं. आने वाले समय की जरूरतों के अनुसार इसमें हमें बदलाव करने पड़ेंगे. अगर हम चाहते हैं की हमारे हर विद्यार्थी के पास कोई न कोई हुनर हो और उसके पास एक ऐसी दक्षता हो की वह देश के विकास में योगदान दे सके, तो हमें व्यक्तिगर प्रशिक्षण का भी प्रावधान करना पड़ेगा. कुछ प्रशिक्षण व्याख्याता दे सकते हैं, कुछ उद्योगों के प्रशिक्षित लोग, कुछ पुराने विद्यार्थी. इस प्रकार इस व्यक्तिगत प्रशिक्षण से हर विद्यार्थी में छुपा हुनर प्रकट हो पायेगे और उसकी जिज्ञासा को उन्मुक्त उड़ान मिलेगी. प्रशिक्षित विद्यार्थी भी अपने से छोटे विद्यार्थियों का मार्गदर्शन कर सकते हैं. एक एक विद्यार्थी एक एक आविष्कारक है, एक एक विद्यार्थी एक एक प्रशिक्षक है. 
शिक्षा में नवचारियों को प्रोत्साहन देवें. 
दिल्ली में एक विश्वविद्यालय के कुलपति ने शिक्षा में कुछ प्रयोग करने चाहे, सबने विरोध किया. जो लोग कुछ भी प्रयोग नहीं कर रहे, वे ही सबसे ज्यादा मुखर थे. आज हमें इन प्रस्तर लोगों से मुक्ति चाहिए और कुछ आमूल चूल बदलाव लाने वाले लोग चाहिए. उदयपुर में एक संस्था है शिक्षान्तर जो शिक्षा की व्यवस्था को बदलने के लिए प्रयास कर रही है. यह एक अनूठा प्रयास है. 
आज  ऐसे एनीमेशन  सॉफ्टवेयर की जरुरत है जिससे विज्ञानं की पढाई आसानी से हो सके. यह तभी हो पायेगा जब सॉफ्टवेयर बनाने वाले विज्ञानं को समझेंगे और विज्ञानं पढ़ाने  वाले सॉफ्टवेयर को समझेंगे 
आज ऐसे सॉफ्टवेयर की जरुरत है जिससे प्रबंध की पढाई सिमुलेशन के माध्यम से हो सके. यह तभी हो पायेगा जब सॉफ्टवेयर बनाने वाले प्रबंध को समझेंगे और प्रबंध पढ़ाने  वाले सॉफ्टवेयर को समझेंगे 
आज ऐसे सॉफ्टवेयर की जरुरत है जिससे वाणिज्य  की पढाई में एकाउंटिंग और बैंकिंग की पढाई सिमुलेशन के माध्यम से हो सके. यह तभी हो पायेगा जब सॉफ्टवेयर बनाने वाले वाणिज्य  को समझेंगे और वाणिज्य  पढ़ाने  वाले सॉफ्टवेयर को समझेंगे 
संक्षेप में बात करें तो मुझे आप का समर्थन निम्न बिन्दुओं पर चाहिए  : - 
हमें अलग अलग विषयों का मिश्रण करना पड़ेगा तभी हम कुछ नया क्रांति-कारी बदलाव  ला   पाएंगे 
विद्यार्थियों को फिल्म बनाना सिखाएं 
विद्यार्थियों को पत्रकारिता और मीडिया मैनेजमेंट सिखाएं 
विद्यार्थियों को एनीमेशन से विज्ञानं के क्षेत्र में क्रांति लाने में मदद करें और स्कूलों और कॉलेजों में विज्ञानं की पढाई की व्यवस्था को बदल देवें

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