Tuesday, December 30, 2014

शोध की तरफ विद्यार्थिओं का बढ़ता रुझान - सुझाव व संभावनाएं
भारत हमेशा से सृजनशीलता व रचनात्मकता का केंद्र रहा है. आज अगर फिर से
भारत की सृजनशीलता को जगाया जाये तो भारत फिर से अग्रणी देश बन कर उभर
सकता है. सृजनशीलता सीधे तौर पर उन लोगों से जुडी होती है जो अपने हाथ से
कार्य करते हैं. सृजनशीलता दो चीजों का संगम है - 1. परिश्रम, 2. कुछ नया
करने की सोच. परिश्रम हर भारत वासी के साथ जुड़ा है. कुछ नया करने की सोच
आत्मविश्वास व सकारात्मक पहल पर निर्भर करती है. सिर्फ १७ साल ११ महीने
की लड़की ने हिमालय फतह कर के दिखा दिया की आज के किशोर अदम्य साहस, कुछ
करने की इच्छा शक्ति  व क्षमता से भरे हुए हैं. आज का विद्यार्थी
शोधकर्ता बनना चाहता है, उसमे अदम्य सहस, नवाचार करने की क्षमता व कुछ
नया करने के सपने है. उसकी सृजनशीलता को मार्गदर्शन मिल जाए तो वह कुछ भी
कर सकता है.
आभाव व चुनौतियां मानव को बहुत कुछ सिखाती है. बड़े बड़े अविष्कार आभाव
व चुनौतियों के कारण ही हुए है. रेगिस्तानी क्षेत्रों में पानी के आभाव
के कारन लोगों ने वर्षा के पानी को संजो कर रखने के लिए जल-कुण्ड बनाये
तथा बावड़ियों का निर्माण किया. चुकी यहाँ पर हरियाली बहुत सिमित समय के
लिए होती थी अतः लोगों ने सब्जियों को काट कर सूखने की व्यवस्था का
सूत्रपात किया. ये सभी चीजें आप को साधारण  लग सकती हैं लेकिन ये सभी
अविष्कार व नवाचार हैं, इन की कीमत अनमोल है. हमारे इन आविष्कारों का
हमने पेटेंट नहीं करवा रखा है लेकिन आज भी इन आविष्कारों का लाभ हम लोगों
को दे रहें हैं. अविष्कार  व नवाचार करना मानव मात्र की फितरत में है.
उसको इस हेतु प्रोत्साहन, मार्गदर्शन, प्रेरणा, व प्रशिक्षण देने की
जरुरत है. शोध व अविष्कार  के लिए जिन  गुणों की आवश्यकता है वे
विद्यार्थिओं में होने की सम्भावना ज्यादा है. संक्षेप में निम्नलिखित
विशेषताएं विद्यार्थिओं को मदद कर सकती है: -
१.  वर्तमान तकनीक से असंतोष व कुछ नया करने की इच्छा शक्ति
२. लगातार प्रयोग व प्रयास करने तथा उनका विश्लेषण करने की प्रवृति
३. दूसरे आविष्कारों से सिख लेने व उनसे अपने कार्य के लिएमार्गदर्शन
लेने की प्रवृति
४. नवाचार व नयापन लाने के लिए प्रबल आशावादिता व सकारात्मक सोच
५. धैर्य, उत्साह व निंदा सुनने की शक्ति
विगत कुछ वर्षों में शोध व नवाचार की तरफ विद्यार्थिओं का रुझान बढ़ रहा
है. वे उस प्रकार के पाठ्यक्रम करना चाहते हैं जिससे की वे शोध व नवाचार
के क्षेत्र में आगे आ सकें. लेकिन अफ़सोस है की अधिकांश शिक्षण संस्थाएं
इस के लिए तैयार नहीं हैं. सरकारी तंत्र भी इस के लिए तैयार नहीं हैं.
जयपुर में कॅरियर कॉउंसलिंग के समय में मुझे एक विद्यार्थी मिला जिसने
अपने आविष्कार बताये. वह विद्यार्थी इंजीनियरिंग का विद्यार्थी है और उस
ने कई नए आविष्कार किये हैं. उसकी यह विडम्बना है की उसके पास उनका
पेटेंट करवाने के लिए संसाधन नहीं है. अगर आप चाहते हैं की देश में शोध
और नवाचार की संस्कृति बढे तो इस के लिए आप को पेटेंट व्यवस्था को बदलना
पड़ेगा. पेटेंट में आने वाली लगत को सरकार को वहन करना पड़ेगा, अधिक से
अधिक पेटेंट ऑफिस खोलने पड़ेंगे व उनकी कार्य प्रणाली को सरल व सुगम
बनाना पड़ेगा (आज भारत के पेटेंट ऑफिस के पास ४००० पेटेंट एप्लीकेशन दर्ज
हैं जिसमे से सिर्फ ७२२ भारतीय लोगों के द्वारा है. हमारे पडोसी देश चीन
की तरफ नजर डालें तो पाते हैं की वहां के पेटेंट ऑफिस के पास २१७५०५
पेटेंट एप्लीकेशन दर्ज हैं जिनमे से १४३८०८ पेटेंट चीन के मूल निवासियों
के द्वारा है. यह सिर्फ इस लिए क्योंकि वहां की सरकार ने पेटेंट की
प्रक्रिया को सरल बनाया  व हर शहर में पेटेंट ऑफिस  खोल दिया). खेर, मेने
उस विधार्थी को प्रोफेस्सर अनिल गुप्ता के नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन के
बारे में बताया तथा उसको अपने नवाचार को नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन के
माध्यम से पेटेंट करवाने की सलाह दी.
शोध  का क्षेत्र  कुछ अलग हट कर प्रतिभा के लिए होता है, इस हेतु
व्यक्तित्व में एक बहुत ही धैर्य व आशावादिता  होनी चाहिए. लगातार प्रयोग
करते रहने की क्षमता होनी चाहिए. इन सब के लिए विद्यार्थिओं को अलग
प्रकार का प्रशिक्षण चाहिए. शोध के क्षेत्र में कार्य करने के लिए एक अलग
सोच, कुछ नया करने का विश्वास भरा सपना तथा कम संसाधनों में काम करने की
जिजीविका शक्ति चाहिए.
२२ जून को मेने बी के स्कुल बीकानेर में एक कॅरियर मार्गदर्शन कार्यक्रम
में विद्यार्थिओं से संवाद किया. मेने सोचा था की विद्यार्थी जिस प्रकार
के पाठ्यक्रम चाहते हैं वे हैं तथा अब समस्या चयन की है. लेकिन मेने पाया
की ऐसा नहीं था. विद्यार्थी जो चाहते थे वैसे पाठ्यक्रम है ही नहीं.
विद्यार्थी भौतिकी, गणित, रसायन, डिज़ाइन, व अर्थशाश्त्र विषयों में
मौलिक शोध व अध्ययन करना चाहते हैं लेकिन उनके सपनों के पाठ्यक्रम गिने
चुने हैं. क्या कोई नया पाठ्क्रम चाहिए - नहीं. जो पाठ्क्रम हैं उसमे
पढ़ने पढ़ाने के तरीके में बदलाव की जरुरत है.  एक विद्यार्थी खाद्य
उद्योग के क्षेत्र में कुछ नया करना चाहता है. एक विद्यार्थी विज्ञापन के
क्षेत्र में कुछ नया करना चाहता है. एक विद्यार्थी मोबाइल के लिए एप्प
बनाने के क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहता है.एक विद्यार्थी उन उद्योग के
क्षेत्र में कुछ नया करना चाहता है. लेकिन मेरे पास उनके लिए कोई जवाब
नहीं है. क्योंकि हमारे देश में उद्योगों व शिक्षण संस्थाओं के बीच आपसी
तालमेल, सहयोग व सामंजस्य का आभाव है.
उद्योगों की भूमिका
उद्योगों के सहयोग के बिना शिक्षण संस्थाएं विद्यार्थियों को उद्योगों के
लिए तैयार नहीं कर सकती है. उद्योग जगत को भी शिक्षण संस्थाओं से तालमेल
करने से फायदा मिलेगा. लेकिन इस की शुरुआत अभी बाकी है. असल में
विद्यार्थिओं को भी शोध व नवाचार करने का मौका तभी मिल सकता है जब वे
अपने ज्ञान को किसी उद्योग में लागू कर के देख सकें. विद्यार्थियों को
अपनी कक्षा से बहार निकल कर उद्योगों की मशीनों के साथ वक्त बिताना
पड़ेगा. विद्यार्थिओं को दूसरे आविष्कारों को देखना पड़ेगा व अनुभवी
लोगों से मार्गदर्शन लेना पड़ेगा. शोध व नवाचार के लिए एक अलग दृष्टिकोण
व सकारात्मक सोच चाहिए. तकनीक की किस प्रकार से हम सुधारें जिससे लगत काम
हो और गुणवत्ता बढे. उद्योगों को विद्यार्थिओं की मदद ले कर सतत नवाचार
को प्रोत्साहन देना चाहिए. इंजीनियरिंग के हर विद्यार्थी को उद्योग में
जाकर प्रैक्टिकल ट्रेनिंग लेनी पड़ती है. ज्यादातर उद्योग इसको खाना
पूर्ति मान कर डयन नहीं देते हैं. विद्यार्थी भी लापरवाह हो जाते हैं.
अगर इस दौरान विद्यार्थी मन लगा कर कार्य प्रक्रिया का अध्ययन करे तो वह
कुछ नया सोच सकता है तथा उसमे छुपे शोधकर्ता को एक नई दिशा मिल सकती है.
शिक्षकों की भूमिका
शिक्षकों को विद्यार्थियों को नए आविष्कारों के बारे में बताना पड़ेगा
तथा उनको कुछ नया करने के लिए प्रोत्साहित करना पड़ेगा. उनको
विद्यार्थिओं को उद्योगों से जोड़ना पड़ेगा.  मेरे विश्व-विद्यालय में एक
शिक्षक के बारे में बताना चाहता हूँ. श्री भंवर लाल धाभाई अभी ७४ वर्ष के
हैं व मेकेनिकल इंजीनियरिंग के प्रोफ़ेसर हैं (वे पूर्व में भिकणेर
पॉलिटेक्निक के प्राचार्य भी रह चुके हैं) . वे अभी Ph.D. की पढाई कर
रहें है. इस हेतु वे टाटा कंपनी के सानंद प्लांट में गए व वहां वैल्यू
इंजीनियरिंग का प्रयोग देख कर आये. उन्होंने जो कुछ देखा था उसके बारे
में विद्यार्थिओं को विस्तार से बताया. उनकी चर्चा का फायदा मिला व कुछ
विद्यार्थिओं ने मिल कर एक कर बनायीं जिसकी कुशलता , व शक्ति मारुती
कंपनी की किसी भी कर से ज्यादा है. उन्होंने इस हेतु कई नवाचार किये.
प्रश्न है की वे अपने इन नवाचारों को किस प्रकार से रजिस्टर करवाएं. इन
छोटे छोटे आविष्कारों को प्रोत्साहन देंगे तो हम देश में अविष्कार व
नवाचार की संस्कृति बना पाएंगे. प्रोफ़ेसर धाभाई पिछले २० वर्षों से
स्वेच्छा से शाकाहारी हैं. वे साधारण (बिना अधिक मसाले वाला) भोजन करते
हैं व नियमित जीवन शैली अपनाते हैं. सुबह ५ बजे उठना व रात के १० बजे
सोना यह उनके जीवन की दिनचर्या का हिस्सा है. वे यह बातें विद्यार्थिओं
से भी करते हैं. उनकी जीवन शैली का उनकी कार्यक्षमता पर भी प्रभाव पड़ा
है. वे आज भी उतने ही ऊर्जावान है जितना की ३० वर्षीय व्यक्ति हो सकता
है.  विद्यार्थी की भूमिका
शोध के लिए सिर्फ ज्यादा संसाधन व ज्यादा इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं चाहिए.
विद्यार्थिओं को जहा पर भी वे अध्ययन कर रहें है वहा पर सिमित संसाधनो
में अविष्कार करने की प्रवृति बनानी पड़ेगी व लगातार प्रयास करने
पड़ेंगे. विद्यार्थियों को नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन , श्रिस्टी, ज्ञान,
टेड आदि के विडिओ देख कर प्रेरणा लेनी चाहिए. उनको वैज्ञानिक
प्रदर्शनियों  को देखने जाना चाहिए तथा वैज्ञानिक प्रोजेक्ट्स बनाने
चाहिए. प्रोजेक्ट्स की जितने भी प्रतियोगिताएँ हो उनमे भाग लेना चाहिए.

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