Tuesday, December 30, 2014

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शिक्षा : जो फिर से हमें अपनी जड़ों से जोड़ दे
आज पुरे देश में १५ अगस्त की तैयारियां चल रही है. एक नया उत्साह नजर आ
रहा है. हर तरफ आशावादिता नजर आ रही है. पिछले एक दशक  में पहली बार ऐसा
हुआ है की हर व्यक्ति भारत में रहते हुए (विदेशों में जाने के बाद तो सब
को भारत याद आता है) अपने देश को इतने सम्मान  से इतना प्यार कर रहा है.
विदेशों की चमक-धमक से पहली बार आम भारतीय अपने आप को मुक्त कर पा रहा
है. "अच्छे दिन आने वाले हैं"  - शायद इन शब्दों का जादू है या फिर हर
भारतीय में वर्षों से दबा देशप्रेम जो वर्षों से तड़प रहा था एकाएक
विस्फोटक रूप ले रहा है. क्या हमारी शिक्षा व्यवस्था भी मुक्त हो सकेगी
-  पाश्चात्य प्रेम से? शिक्षा मंत्री (जिसे आज कल मानव संसाधन मंत्री
कहा जाने लगा है) ने एक विशेष समिति नियुक्त की है जो UGC को पुनर्गठित
करने की सिफारिश देगी. लेकिन कुछ लोगों ने कहा है की इस समिति में ऐसा
कोई व्यक्ति नहीं है जिसने शिक्षा का भारतीय-करन करने और उसको आम आदमी के
जीवन से जोड़ने का प्रयास किया हो न ही इस समिति में एक भी ऐसा व्यक्ति
है जिसने शिक्षा के द्वारा नवाचार, उद्योग व् तकनीक को जोड़ने या
उद्योगों को शिक्षा से जोड़ने में कोई कार्य किया हो. लोग आशंका व्यक्त
कर रहें हैं की क्या फिर से UGC  की जगह एक नया प्रशाशनिक डायनासौर उभर
कर आ जायेगा. इस प्रजातान्त्रिक देश में आज कई लोग मुखर हो कर IAS जैसी
प्रशाशनिक सेवाओं के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत करने लगे हैं. फिर
शिक्षा व्यवस्था के भारतीय-करन में लोग क्यों चुप हैं? जो लोग भारत को
समझते हैं वो यह जानते हैं की भारत में व्याप्त संस्कार हमें अपने आप से
जोड़ने और अपने आप को अभिव्यक्त करने के लिए हैं.
शिक्षा का उद्देश्य क्या है?
सा विद्या या विमुक्तये - यानी विद्या हमें मुक्त करने के लिए है. हम
संसार-चक्र से मुक्त हो सकें और अपने मानव जीवन को  सार्थक कर सकें यही
हमारे जीवन में शिक्षा का उद्देश्य है. इस हेतु हमको अच्छे संस्कार,
अच्छा ज्ञान, तकनीक, दक्षता और जीवन को मर्यादाओं में जीने के लिए आवश्यक
हुनर सीखना ही शिक्षा का मकसद है. शिक्षा हमें जीवन के साथ भी जोड़ती है
और जीवन से परे भी (अध्यात्म के रास्ते पर) और वह भी जीवन से उन्मुख हुए
बिना. यानी जीवन का पूर्ण आनंद लेते हुए जीवन के आखिरी मकसद तक ले जाने
का रास्ता है शिक्षा. लेकिन आज की शिक्षा व्यवस्था क्या ये सब दे पा रही
है?
वोकेशनल शिक्षा, प्रोफेशनल शिक्षा, और रोजगार  परक शिक्षा हमारी शिक्षा
व्यवस्था का एक हिस्सा होना चाहिए, क्योंकि अगर अच्छा रोजगार नहीं मिला
तो विद्यार्थी कैसे एक अच्छा जीवन बिता पायेगा और आध्यात्म की तरफ कैसे
बढ़ेगा.

शिक्षा की व्यवस्था क्या हो?
आज से करीब ९ दशक पहले गांधी जी ने देश के लोगों का आह्वान किया था की आप
शिक्षा में मंदिर स्थापित करें जहाँ पर पूर्ण रूप से भारतीय शिक्षा
प्रदान की जाए. उनके इस आह्वान पर अनेक शिक्षण संस्थाएं स्थापित हुई. आज
फिर से गांधी की जरुरत है.
कहाँ है अपने गांव, अपने मोहल्ले, अपने शहर, अपने परिवेश से जोड़ती
शिक्षा व्यवस्था
बहुत पुरानी कहानी है - एक बार एक शिक्षक ने अपने शिष्य की परीक्षा लेने
के लिए उससे कहा की इस स्थल से ३ मील के क्षेत्र में से कोई एक ऐसी
वनस्पति लाओ जिसका कोई उपयोग न हो. शिक्षक ने बहुत कोशिश की परन्तु वह
हार गया. वह खली हाथ व पास आया. उसने कहा की उसको कोई भी ऐसी वनस्पति
नहीं मिली. वह हार कर भी जीत गया क्योंकि उसको हर वनस्पति की उपयोगिता
समझ आ गयी. यही है भारतीय शिक्षा व्यवस्था.
आज हम ए फॉर एप्पल तो सीखा देते है लेकिन घर के पास में मौजूद खेजड़े पर
लगी सांगरी  के बारे में नहीं बताते. हम स्टैचू ऑफ़ लिबर्टी और शेक्सपिअर
 के बारे में बता देते हैं लेकिन अपने ही शहर के पुस्तकालयों और अपने ही
शहर के लेखकों के बारे में नहीं बताते. हर विद्यार्थी के मन में बचपन से
यह भर देते हैं की विज्ञानं, तकनीक और शोध के क्षेत्र में तो पश्चिमी देश
ही आगे हैं वहां जैसी प्रयोग-शालाएं कहाँ है लेकिन अपने ही गाव में बैठे
गुमनाम वैज्ञानिक और शोधकर्ता के बारे में नहीं बताते. विद्यार्थी बीथोवन
के बारे में जानता है लेकिन अपने ही गाव में गाने वाली भजन मंडली से
अनभिज्ञ है. अपने गाँव, अपने मोहल्ले, अपने परिवेश से दूर करने वाली इस
शिक्षा व्यवस्था को क्या कहेंगे?  कैसी शिक्षा है यह?
विद्या ददाति (अ) विनयम
"ऐसा नहीं है. ऐसा कहीं नहीं है. " जो भी मुझे मिलता है यही कहता है की
ज्यादा पढ़े लिखे लोग ज्यादा घमंडी होते हैं. ज्यादा पढ़े लिखे लोगों में
बहुत अहम होता है. लेकिन अगर सही में किसी ने विद्या हासिल की है तो उसमे
तो विनय होना ही चाहिए. परन्तु ऐसा नहीं है. इसके लिए जिम्मेदार हम स्वयं
हैं. आज हम विद्यार्थियों को जो आदर्श प्रस्तुत कर रहें हैं वे आदर्श
उनको अधिक से अधिक अविनयि बना रहा है. किसी भी शिक्षण संस्था में जब भी
कोई विशेष कार्यक्रम होता है तो विशिस्ट अतिथि के रूप में किसी उच्च
सरकारी अधिकारी या किसी उच्च राजनेता को आमंत्रित किया जाता है. अपने
ओहदे के उत्तरदायित्व निभाते निभाते वे इतने "रिजर्व्ड" हो जाते हैं की
मेरी समझ में उनको विद्यार्थिओं के सामने नहीं बुलाना चाहिए. ऐसे
व्यक्तियों को ही आमंत्रित किया जाना चाहिए जो जमीन से जुड़े हुए हों और
विद्यार्थियों के साथ खुल कर बात करना चाहते हों. शिक्षण संस्था के
अधिकारीयों व् शिक्षकों को भी अत्यंत विनीत भाव से पेश आना चाहिए. उनको
देख कर ही तो विद्यार्थी विनय का भाव सीखेंगे
शिक्षा में  सस्ती व् क्षेत्रीय  तकनीक का उपयोग करें
बड़ा अफ़सोस होता यह देख कर जब मुझे ऐसे लोग मिलते हैं जो शिक्षा
-व्यवस्था में संसाधनों की कमी की दुहाई देते रहते हैं. अगर महंगे संसाधन
अपनाएंगे तो आम आदमी को शिक्षा से वंचित कर देंगे. महँगी शिक्षा आम आदमी
को मुश्किल में डाल देगी. सरकार कब तक सारा खर्च उठाएगी (और यह उचित भी
नहीं है आखिर सरकार तो हमारे पैसों से ही चल रही है). जब सस्ते विकल्प
मौजूद हों तो फिर महंगी शिक्षा की तरफ क्यों जाएँ. विद्यार्थी को एयर
कंडीशनिंग नहीं दें, बल्कि औद्योगिक भ्रमण करवाएं. विद्यार्थिओं को
सिनेमा हॉल नहीं खुले मैदानों में ले जाएँ जहाँ वे खेल सकें. इग्नू ने
अपने सारे पाठ्यक्रम के लिए वीडियो प्रोग्राम बना रखें हैं जो मुफ्त में
प्रसारित होते हों और आप चाहें तो उनकी डीवीडी भी सस्ते में खरीद सकते
हैं. खान अकादेमी ने गणित आदि मुश्किल विषयों पर मुफ्त की वीडियो
प्रसारित कर दी है. इस प्रकार के संसाधओं से आप अपने विद्यार्थिओं की मदद
कर सकते हैं. कम खर्च में अच्छी शिक्षा दे सकते हैं. केमिस्ट्री की
प्रयोगशाला में स्थानीय उद्योगों के जरूरत के कार्य हों और उन कार्यों को
कर के विद्यार्थी उन उद्योगों की जरूरतों को समझें.

श्रम से जोड़ें विद्यार्थिओं को
मैं १९९५ में विख्यात समाज सेवक, शिक्षक पद्म श्री मगराज जी से मिलने
बाड़मेर गया था. उनके घर का पता पूछते पूछते में एक घर के आगे पहुँच गया.
वहा एक बुजुर्ग व्यक्ति सड़क के किनारे की  एक नाली की सफाई कर रहा था.
मैंने उनको पूछा की मगराज जी का घर कहाँ है, तो उन्होंने झाड़ू एक किनारे
रखा और मुझे घर के अंदर ले गए. फिर हाथ धो कर एक गिलास में पानी ले कर
आये और बोले में ही मगराज हूँ.
आज का विद्यार्थी श्रम से दूर भाग रहा है क्योंकि उसको हम श्रम करने का
मौका ही नहीं देते हैं. स्कूल, घर व् मोहल्ले के सभी कार्यों में फिर से
विद्यार्थिओं को जोड़ने की जरुरत है. अपनी कक्षा की साफ़ सफाई विद्यार्थी
स्वयं करे. अपने घर की साफ़ सफाई में विद्यार्थी खुद जुड़े. अपने मोहल्ले
के कार्यक्रम को सम्पादित करने में विद्यार्थी स्वयं कार्य करें.
विदेश का भ्रम
आज कल विदेश जाने का फैशन चल पड़ा है. हर व्यक्ति अपने लाडले को विदेश
भेज रहा है. जब वह जर्मन जाता है तो देखता है की उसको भी जर्मन भाषा
सीखनी पड़ेगी और वह गर्व से कहता है की हर जर्मन नागरिक अपनी मातृ भाषा
में बात करता है और अपने देश पर गर्व करता है. .  जब भारतीय विद्यार्थी
३० लाख खर्च कर के अमेरिका में पढ़ने जाता है तो वह उपरोक्त सभी कार्य
करता है, लेकिन भारत में शिक्षण संस्थाएं इनको लागू करने में कतराती हैं.
ये सभी बातें जब विदेशी संस्थाएं करती है तो वे महान बन जाती हैं. जब वे
अपना स्वयं का पाठ्यक्रम बनती हैं तो वे हमारी आदर्श शिक्षण संस्थाएं हैं
लेकिन स्वयं भारत में हम उसके लिए तैयार नहीं है.

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